मेरे शहर में चाँद

मेरे शहर में चाँद
उतरता तो है
हर शाम
घाट की सीढ़ियों से
छूता है
माँ के पाँव
और दौड़ जाता है
उस पार की
ठंडी रेती पर
रामनगर की ओर

कि अब अस्सी पर
जी नहीं लगता
बदल रहा है सब
घाट और नाव भी
गर्मी भी अलाव भी
और वो दोस्तों का जमघट
भी अब नहीं लगता
कि जाना पहचना कोई चेहरा
अब नहीं दिखता

पर दौड़ता हुआ चाँद
रुकता है
पलटता है
इस इंतज़ार में
कि लौट आयेंगे
रोज़ी की तलाश में बिछड़े
वो सब नौजवान
जिन्हें प्यार है
गंगा किनारे की
ठंडी रेती से,
घाट पर चढ़ती उतरती
हर सीढी से
शहर की गली से,
चौक से, घर से
यहाँ की हवा में घुली
सांड और गोबर की गंध से
लस्सी की, चाट की सुगंध से,
भांग के, मलैय्यो के रंग से

चाँद की आँख से
बह उठती है ओस
और कई मील दूर
धडकते हैं
कई दिल
कारखाने की मशीनों से कहीं तेज़
और दिलों में बैठा बनारस
मचल उठता है
रूठे हुए चाँद को
मना लाने के लिए
तड़प उठते हैं कई दिल
घर आने के लिए

Comments

  1. बहुत खूब,,,,आपने बनारसी रंगत को शब्दों में उतार दिया है.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

...देहाती नहीं...सिर्फ औरत !

Soar in the endless ethers of love, beloved!

नवंबर डायरी, दिल्ली 2023