Posts

Showing posts from April, 2020

लॉकडाउन जर्नल, दिन अज्ञात: सारा खेल सही उत्तरों का नहीं, सही प्रश्नों का है

Image
डल, श्रीनगर लॉकडाउन में अब दिनों का गिनना बेमानी हो चुका है. कल फोन पर बहन कह रही थी कि वो अब नॉर्मल्सी को मिस कर रही है. लेकिन इसके बावजूद उसे इस लॉकडाउन की आदत होने लगी है. और ऐसा भी नहीं है कि वो वापस उन दिनों में लौट जाना चाहती है जब वो अगले दिन उठकर दफ्तर जाने के कारण समय पर सोने की कोशिश किया करती थी. तो फिर होना क्या चाहिए? हम कैसा जीवन चाहते हैं? आज शाम मैं टहलने गई. एक जंगल के भीतर. हम तीन थे. मैंने प्रस्ताव रखा कि हम जंगल की दाँईं ओर की चढ़ाई पर चढ़ते हैं. उस पार सड़क है. लौटते समय हम सड़क से लौटेंगे. जिस रास्ते जाना उसी रास्ते जाने में क्या आनंद. हम चढ़ने लगते हैं. कोई पगडंडी नहीं है. ज़मीन सूखे हुए भूरे पत्तों से भरी है जो पाँवों के नीचे चूर-चूर होते जाते हैं. चढ़ाई पर बहुत सी कँटीली झाड़ियाँ हैं. हम खूब आगे तक जाते हैं. अँधेरा होने लगा है पर सड़क कहीं नहीं दिखती. साथी घबराने लगे हैं. वे लौटने की कहते हैं. मैं उन्हें साथ नहीं खींचती. उनके साथ लौट पड़ती हूँ. एक बार फिर मेरे पाँवों पर लाल रंग की लकीरें हैं.  लौटते हुए मैं गोकर्ण वाली ‘डाउन मैमोरी लेन’ के बा

लॉकडाउन जर्नल, डे -1: एक अबोध धरती की कल्पना

Image
गोकर्ण, फ़रवरी 2019  लॉकाडाउन एक बार फिर अगले 21 दिनों के लिए बढ़ा दिया गया है. कहा जाता है कि एक आदत बनने में कम से कम 18 दिन लगते हैं. ऐसे में हम में से कुछ को इस लॉकडाउन की आदत हो चुकी होगी.  इन दिनों हम में से बहुत से लोगों ने महसूस किया कि हमें जीवन में बस बहुत थोड़े से की ज़रूरत होती है. थोड़ी सी जगह, थोड़ा पैसा, थोड़ी इच्छाएँ और थोड़ा प्रेम. कितने कम में जीवन चल सकता है. और कम में चलने वाला यह जीवन शायद बहुत अधिक के पीछे भागते जीवन से कहीं सरल है. यह बहुत अधिक के पीछे भागना सिर्फ़ भौतिक हो, ऐसा भी नहीं है. हम अपने मन में भी बहुत कुछ के पीछे भागते हैं. कई बार बिना जाने कि हम ऐसा क्यों कर रहे हैं. एक बड़े को बच्चे से कहते सुनती हूँ, ‘इधर गोदी में आकर बैठो’, या फिर, ‘उँगली पकड़ कर चलो’, अचानक महसूस करती हूँ कि वह जाकर गोदी में बैठने वाला और उँगली पकड़ कर चलने वाला बेफिक्र आनंद कहाँ है? मुझे याद नहीं है वैसा महसूस करना क्या होता है. मैं उसे जानना चाहती हूँ. मेरे अवचेतन में बची उस आनंद की स्मृति मुझे बताती है कि वो अनुभूति मेरी सबसे बड़ी वयस्क महात्वाकांक्षा के

लॉकडाउन जर्नल, डे -2: क्वैरंटीन, लेखन और एकांत

Image
सिद्धार्थ  ने वाक़ई क्वैरंटीन के 21 दिनों में किताब लिख दी है. किताब का कवर मुझे बेहद पसंद आया, उसके रंग बहुत गहरे हैं. सुबह-सुबह किताब का एकसर्प्ट हिंदुस्तान टाइम्स पर पढ़ने के बाद से मैं लेखन के बारे में सोच रही हूँ. कल मुझे इंस्टाग्राम पर किसी ने अपने हाथ से लिखे दो पन्नों की तस्वीरें भेजीं. न जाने वो गल्प था या जर्नल पर जो था, सुंदर था. क्वैरंटीन के इस समय में लेखक अपनी बालकनी में चिड़ियाओं के लौटने के बारे में बात कर रहा था.  मैसेंजर में भी आज लेखन पर एक सवाल आया, “अच्छा लेखन कैसे किया जाए? कैसे पता चलता है कि लेखन अच्छा है या खराब?” एकाँत का लेखन से बड़ा पुराना रिश्ता है. कहा जा सकता है कि लेखन एक एकांतवासी का ज़रिया है, दुनिया से जुड़ने का. पर देखिए कि यदि आप लेखन को लेकर गंभीर हैं तो आपका एकांतवास बढ़ता जाएगा. आपको अधिक से अधिक समय अकेले, अपने साथ, अपने पात्रों के साथ बिताना होगा. आपके पात्र कभी बाहरी नहीं होते. वे आपका ही एक हिस्सा होते हैं, जिसके बारे में आप भी उतना ही जानते जाते हैं, जितना पात्र के बारे में जानने लगते हैं.  एकाकीपन कई तरह का हो सकता है. व

लॉकडाउन जर्नल, डे -3: यह वर्ल्ड ऑर्डर की नई संभावनाएँ नहीं, अपने भीतर की संवेदना तलाशने का समय है

Image
उत्तर प्रदेश में पदयात्रा के समय ली गई तस्वीर आज एक अरसे बाद मैंने बाहर की दुनिया की तरफ देखा. बाहर, मतलब कंप्यूटर की राइटिंग और सिनेमा स्क्रीन, किताबों और घर के आसपास के पेड़ों और झाड़ों के बाहर. मैं कोरोनावाइरस के बारे में उतना भी नहीं पढ़ रही हूँ, जितना परिवार और मित्र व्हाट्सऐप मैसेज में भेज रहे हैं. मुझे जानना चाहिए. पर क्या?  फोन के नोटिफिकेशन में इज़राइल में घोषित लॉकडाउन की खबर आती है. मैं जानना चाहती हूँ कि ताकतवर इज़राइल में क्या हो रहा है. बीबीसी पर छह अप्रेल का वीडियो देखती हूँ. इज़राइल के उन ऑर्थोडॉक्स इलाक़ों को दिखाया जा रहा है, जहाँ स्टेट की नहीं, रब्बियों की बात सुनी जाती है. बड़े परिवार और कम्यूनिटी लाइफ़ उनके जीवन जीने का तरीक़ा है. ये इलाके इज़राइल की आधुनिक, प्रोग्रेसिव, अमीर और ताकतवर इमेज से मेल नहीं खाते. मैं बीबीसी के संवाददाता टॉम बेटमैन के साथ-साथ उन गलियों से घूमती हूँ.  फिर हम ग़ाज़ा जाते हैं. “लॉकडाउन जहाँ रोज़ की बात है.” एक रिफ्यूज़ी कैंप में रह रहे परिवार में महिला घर का आख़िरी बचा आटा सान रही है. यह आटा उधार लिए पैसे से आया है. वो बत

लॉकडाउन जर्नल, डे -5: वर्जीनिया वूल्फ को अपना पब्लिकेशन हाउस क्यों खोलना पड़ा होगा?

Image
आज का दिन कल जैसा नहीं था. आज धूप में गर्मी थी. काम खत्म करने के बाद मैं घर के बाहर बैठी हुई थी. मन दूर सामने फैली गर्वीली पहाड़ियों में कहीं था. पथरीला पर विराट एकांत. ऐसा एकांत जिसे आपने कभी सामने से नहीं देखा, लेकिन फिर भी वो कहीं आपके भीतर है. किसी की अनजान व्यक्ति को बहुत पहले से जानने के अहसास की तरह. मैंने हाथ की किताब पढ़ना शुरू किया. किताब में एक लड़की है, जो ऑक्सफ़ोर्ड और केंब्रिज की शानदार इमारतों और ख़ूबसूरत बगीचों से गुज़र रही है. एक ऐसी दुनिया जहाँ वो बस एक विज़िटर हो सकती है या फिर एक मेहमान. जिसे वहाँ के सुसमृद्ध, विशालकाय पुस्तकालय में, जहाँ उसके प्रिय कवियों और लेखकों की पाँडुलिपियाँ सुरक्षित हैं, घुसने के लिए डीन की चिट्ठी चाहिए, या किसी पुरुष का साथ. क्यों? क्योंकि वो एक महिला है. हाँ, मैं वर्जीनिया वूल़्फ़ की बात कर रही हूँ. पुस्तकालय में उसे प्रवेश नहीं मिलता. गाउन पहनने वाला प्रबुद्ध रक्षक एक महिला को कैसे आने दे. उसके चेहरे पर लिखे भद्र निषेध में कोई तिरस्कार नहीं है, बस उसके समय की मान्यता है, कि एक महिला पुरुष की तरह पढ़ने-लिखने, शोध करने, स्कॉलर ह

लॉकडाउन जर्नल, डे-6: सच कहूँ तो हमारी कोई ज़रूरत ही नहीं है

Image
देर रात हुई है. दिन गुज़रने का पता अब चलता नहीं. कमरे में बत्ती नहीं जलाई है. बस कंप्यूटर स्क्रीन की चमक है जो मेरी आँखों पर बरस रही है. सफ़ेद, कुछ ज़र्द. कमरे का पीछे के मैदान की ओर खुलने वाला दरवाज़ा पूरा खुला है. चाँद की कुछ रौशनी कमरे में है, पर अब वो अंधेरे में खूब घुल गई है. इस तरह का अंधेरे में घुलने वाला चाँद सिर्फ़ बचपन में उगता था. गर्मी की छुट्टियों में, गाँव में. जब बिजली के तार अक्सर ठंडे पड़े होते थे.  चंदा की रौशनी में वो गाँव, लगता था कि दुनिया का अकेला गाँव है. और मैं, दुनिया की अकेली बच्ची. आज दो दिन बाद शाम को मैं घर के मुख्य दरवाज़े के बाहर तक गई. पाँव में कुछ चोट है तो दो दिन से चलना-फिरना बंद था. आज शाम खुद को भीतर न रोक सकी. बाहर चली गई. दो दिन न देखने पर ही लगने लगा कि सबकुछ नया सा हो गया था. पर इस नई दुनिया में कुछ तो कम लगा रहा था. मेरी नज़र न जाने क्यों इन दूर-दूर बने घरों के ऊपर कुछ तलाशती रही.  चूल्हों से उठता धुँआ, जिसमें गोल-गोल रोटियों की गर्म महक भरी होती थी.  वो धुँआ कहाँ गया? उसी धुँए से तो पता चलता था कि शाम हो गई. पता चलता था कि अब घर

लॉकडाउन जर्नल, डे-7: वादी जैसे शब्द, न्यूज़ एंकर्स डिज़र्व ही नहीं करते

Image
तस्वीर: संजय पंडिता दर्द एक दरिया है. इस दरिया में एक बहुत गहरी जगह आती है. इतनी गहरी कि उसे पार करने के बाद दर्द अपना अहसास खो देता है… अहसास होते ही क्यों हैं? अहसास होते हैं, क्योंकि हम होते हैं. मैं फिल्म देख रही थी अभी. शिकारा. कब से देखना था इस फ़िल्म को. मेरे लिए ये फ़िल्म नहीं थी. नज़्म की एक किताब थी, वो किताब जिसके शायर से मुझे मोहब्बत है. जैसे शिकारा के शायर से शाँति को थी. जब आपको शायर से मोहब्बत होती है तो आप उसकी नज़्म में क्राफ़्ट नहीं, मानी तलाशते हो. जब रिलीज़ हुई थी तो मैं कश्मीर में थी. कश्मीर में थिएटर्स नहीं थे. जब वापस दिल्ली आई तो फ़िल्म उतर गई. परसों जब प्राइम पर फ़िल्म आई तो मनीषा ने फ़ोन करके बताया. संजू ने भी फ़ोन किया. पूछा, “आपने शिकारा देख ली?” जानती थी, उसने भी वही बताने के लिए फ़ोन किया था जो मनीषा ने बताया था. संजू ने अपनी माँ के साथ देखी थी फ़िल्म. बताया, दोनों मिलकर खूब रोए. संजू पैदा भी नहीं हुआ था जब उन्होंने वादी छोड़नी पड़ी थी. वादी, बड़ा मैजिकल लगता है ये शब्द मुझे. फ़िल्म में एक न्यूज़ एंकर कहता है, ‘वादी में हालात असामान्य.

लॉकडाउन जर्नल, डे -8: “अगर मैं सचमुच तुम्हारे सपने का हिस्सा हूँ, तो तुम एक दिन लौट आओगे.”

Image
कल शाम का जर्नल लिखने के बाद से ही जिस शब्द ने मेरे मन पर आधिपत्य जमाया हुआ है, वह है टेलीपेथी. अगर टेलीपेथी यानी मन ही मन किसी से बातचीत कर लेने जैसा कुछ होता है तो ये कैसे होता है? क्या इसका कोई विज्ञान है. सिग्मंड फ्रॉइड ने ड्रीम और टेलीपैथी पर लिखा है. सिग्मंड ने मानव मन के किस कोने पर नहीं लिखा?  ये लिखते हुए मैं मुस्कुरा रही हूँ. फ्रॉइड अब सिग्मंड हो गए हैं. फ़र्स्ट नेम से बुला रही हूँ. परिचय और घनिष्ठता ऐसा कर देती है. क्यों और कैसे कर देती है, उसके लिए फिर डॉक्टर फ्रॉइड की तरफ़ देखना होगा. उनके पास लगभग हर सवाल का कुछ-कुछ जवाब है. मेरे कंप्यूटर में उनका पूरा का पूरा काम स्टोर है. 3804 पन्ने. इतना काम? वह भी वैज्ञानिक काम, प्रयोगों पर आधारित. हिस्टीरिया, फोबिया, ऑबसेशन, सेक्सुएलिटी, ड्रीम, टेलीपैथी, सिविलिज़ेशन, स्लिप ऑफ़ टंग, भूलना, अंधविश्वास, रोज़मर्रा का मनोविज्ञान…. कुछ भी नहीं छोड़ा.  सिग्मंड को पढ़ते हुए मैं देखती हूँ कि हम आम लोग खुद अपने बारे में भी कितना कम जानते हैं. जब अपने बारे में ही नहीं जानते तो हम दुनिया के बारे में इतनी पक्की राय कैसे बना लेते हैं?