लॉकडाउन जर्नल, डे -1: एक अबोध धरती की कल्पना



गोकर्ण, फ़रवरी 2019 

लॉकाडाउन एक बार फिर अगले 21 दिनों के लिए बढ़ा दिया गया है. कहा जाता है कि एक आदत बनने में कम से कम 18 दिन लगते हैं. ऐसे में हम में से कुछ को इस लॉकडाउन की आदत हो चुकी होगी. 

इन दिनों हम में से बहुत से लोगों ने महसूस किया कि हमें जीवन में बस बहुत थोड़े से की ज़रूरत होती है. थोड़ी सी जगह, थोड़ा पैसा, थोड़ी इच्छाएँ और थोड़ा प्रेम. कितने कम में जीवन चल सकता है. और कम में चलने वाला यह जीवन शायद बहुत अधिक के पीछे भागते जीवन से कहीं सरल है.

यह बहुत अधिक के पीछे भागना सिर्फ़ भौतिक हो, ऐसा भी नहीं है. हम अपने मन में भी बहुत कुछ के पीछे भागते हैं. कई बार बिना जाने कि हम ऐसा क्यों कर रहे हैं.

एक बड़े को बच्चे से कहते सुनती हूँ, ‘इधर गोदी में आकर बैठो’, या फिर, ‘उँगली पकड़ कर चलो’,

अचानक महसूस करती हूँ कि वह जाकर गोदी में बैठने वाला और उँगली पकड़ कर चलने वाला बेफिक्र आनंद कहाँ है? मुझे याद नहीं है वैसा महसूस करना क्या होता है. मैं उसे जानना चाहती हूँ. मेरे अवचेतन में बची उस आनंद की स्मृति मुझे बताती है कि वो अनुभूति मेरी सबसे बड़ी वयस्क महात्वाकांक्षा के पूरे हो जाने के बाद हो सकने वाली अनुभूति से कहीं सुखद है. 

तब मैं अपनी बाल्यावस्था की अबोध अनुभूतियों तक क्यों नहीं जाना चाहती? मैं महात्वाकांक्षाओं के पीछे क्यों जा रही हूँ. समय और अनुभवों ने मुझे अबोध नहीं रहने दिया है. ज्ञान या जानकारी का बढ़ना मुझे महात्वाकांक्षाएं देता है, या इच्छाएँ देता है. तब क्या उस अबोध स्थिति तक फिर जा सकना संभव नहीं है?

नीत्शे का ‘द इनोसेंस ऑफ बिकमिंग’ का सिद्धांत इस संभावना को बल देता है. उनके मुताबिक़ स्वतंत्र इच्छा (फ्री विल) और अपराध (गिल्ट) की संकल्पना ने हमारे होने की अबोधता को हमसे छीन लिया. स्वतंत्र इच्छा और अपराध की संकल्पनाएँ मानव की दंडित करने की प्रवृत्ति का परिणाम थीं. 

दंडित करने के लिए किसी भी कार्य का उत्तरदायित्व तय करना आवश्यक था. तो स्वतंत्र इच्छा का अस्तित्व स्थापित कर कार्य की जवाबदेही तय की गई, अपराध तय किया गया और दंड दिया गया.


“पुराने समुदायों के मुखिया दंड देने का अधिकार अपने लिए या ईश्वर के लिए सुनिश्चित करना चाहते थे. मानव को स्वतंत्र जीव घोषित किया गया ताकि उसपर फ़ैसला सुनाया जा सके और दंड दिया जा सके, ताकि उसे अपराधी घोषित किया जा सके.

परिणामस्वरूप, हर कार्य को स्वतंत्र इच्छा से किया कार्य माना गया, और माना गया कि हर कार्य का उद्भव, करने वाले के बोध (कॉन्शसनेस) से ही होता है. (और इस तरह मनोविज्ञान के सबसे बुनियादी झूठ को मनोविज्ञान का सिद्धांत बना दिया गया.)”

वे कहते हैं कि दंड और अपराध के ज़रिए मानव की अबोधता को संक्रमित करने वाले धर्मशास्त्रियों का विरोध किए बिना मनोविज्ञान, इतिहास,प्रकृति, सामाजिक संस्थाओं और उनके क़ानूनों से दंड और अपराध निकालकर बाहर नहीं किया जा सकता.

“ईसाइयत सज़ा-ए-मौत देने वालों की मैटाफ़िज़िक्स है.”

मैं नीत्शे में संभावना देखती हूँ पर संतुष्ट नहीं हो पाती. बहुत हद तक संभव है कि अपराध और दंड की परिकल्पना ने ही हमारी अबोधता हम से छीन ली हो. आदम और हव्वा के लिए प्रतिबंधित फल को खाना अपराध था. अपराध करने के बाद उनकी अबोधता चली गई, अपने निर्वस्त्र शरीर पर ही वे एक-दूसरे के सामने असहज होने लगे. और इस अपराध का उन्हें दंड मिला. उन्हें अदन का बगीचा छोड़ना पड़ा.

मैं एक बार सोचकर देखना चाहती हूँ कि अगर हव्वा ने वह फल न खाया होता तो धरती कैसी होती. सवाल यह भी उठता है कि क्या ज्ञान हमारी अबोधता को नष्ट कर देता है? ज्ञान और अज्ञान शायद एक ही वस्तु है. उसका ज्ञान या अज्ञान होना पात्र पर निर्भर है.

मैं एक अबोध धरती की कल्पना नहीं कर पाती. 

हमें शायद कई बार वयस्क होने के बाद भी उस अबोधता को फिर से अनुभव होता है, कुछ ही क्षणों के लिए सही. पर हमारी नई दुनिया की आदत हमें उस तरफ़ जाने नहीं देता. इस दुनिया के उत्तरदायित्व, अपराध और दंड कष्टकारी होते हुए भी हमें पीछे छूटे अबोध आनंद की तरफ़ लौटने नहीं देते.

तो क्या अगर हमें 21 दिन उस पुरानी अबोधता के साथ रहने का मौक़ा मिल सके तो हम फिर वैसे ही हो सकेंगे, जैसे बाल्यकाल में थे? शायद हाँ. 

अपराध और दंड के इस फेर से सारे समाज को तो एक ही बार में निकाल सकना असंभव लगता है. पर शायद अपने आप को अपराधी ठहराना और दंडित करना बंद कर हम अपनी अबोधता फिर पाने की कोशिश ज़रूर कर सकते है. 

पर ऐसा करने से पहले इस ‘अपने आप’ को जानना अनिवार्य होगा.



Comments

Popular posts from this blog

Soar in the endless ethers of love, beloved!

नवंबर डायरी, दिल्ली 2023

रामनगर की रामलीला