बनारस की चाय के अलौकिक घूंट




मुझे एक लोकोक्ति याद आ रही है. ज़रूर सुनी होगी आपने भी. आये थे हरि भजन को... हाँ आज मेरे साथ कुछ ऐसा ही वाक़या पेश आया पर इसकी तासीर उलटी थी. गई तो थी मैं कपास ओटने और हो गया हरि भजन. 
 
हॉस्टल में ईथरनेट का प्रयोग होता है. केबल का पिन अगर ख़राब हो जाए तो सोचिये कितनी मुसीबत होगी. ख़ासकर हम जैसों की जो फ़ेसबुक पर जागते हैं और गूगल प्लस पर सोते हैं. दोपहर होती है विकिपीडिया पर तो शाम को यूट्यूब के किनारे पड़े रहते हैं. 

तो आज हुआ ये कि ख़राब पिन को बनवाने के लिए, माफ़ कीजियेगा बदलवाने के लिए मैंने पूरा का पूरा केबल ही पोर्ट से निकला और पहुँच गई लंका. एकमात्र शिवम् कंप्यूटर्स का ही ठिकाना मालूम था सो वहीँ हमने अपनी अर्जी लगा दी. पर वहां से नोटिस मिला बीस मिनट बाद...

अब सवाल ये था कि ये बीस मिनट कहाँ बिताई जाएँ. वापस आकार साइकिल उठाई तो पर समझ नहीं आ रहा था कि जाना कहाँ है. कुछ समझ आता इस से पहले ही महसूस हुआ कि साईकिल चल रही है... हाँ अस्सी की तरफ़. पर लंका का ट्रैफिक... अब आगे क्या कहूँ. न तो मैं गणेश की अवतार हूँ और ना ही मेरा कंप्यूटर व्यास की छायाप्रति.

आज अस्सी पहुँच कर साईकिल घाट की तरफ न मुड़ कर चौराहे तक सीधी चलती गई. और जब बात अस्सी की थी तो काशीनाथ सिंह को याद करना भी बनता था, हाल ही में उन्हें पढ़ जो रही हूँ. और जब वो याद आये तो पप्पू की चाय की दूकान भी याद आई. ‘काशी का अस्सी’ में इस दूकान को पढने के बाद से ही यहाँ आने की इच्छा थी. एक बनारसी सीनियर ने कह भी दिया था कि शाम छः बजे के बाद अस्सी जा कर देखोगी तो आज भी तुम्हें वही झलकियाँ दिख जाएँगी जिन्हें किताब में पढ़कर तुम मुग्ध हो रही हो.

चौराहे पर कई चाय की दूकाने हैं. पर एक दूकान को देख कर मुझे स्वतः ही आभास हुआ कि यही पप्पू की दूकान है. मैंने साईकिल रोकी. जहाँ खड़ी कर रही थी वहां खादी का लाल कुरता पहने, चश्मा लगाये बुद्धिजीवी से दीखते एक जनाब सड़क पार करने के लिए खड़े थे. उन्हें देख कर मेरी उत्सुकता और बढ़ गई. हो न हो यही पप्पू चायवाले की दूकान है और ये महाशय वहीँ जा रहे हैं.

मेरा अंदाजा सही था. वे वहीँ पहुंचे. साईकिल लॉक कर के मैं भी पहुंची. पर सारे अंदाज़ों के बावज़ूद यह कन्फर्म कर लेना भी ज़रूरी था कि क्या वाक़ई ये वही दूकान है जहाँ कभी नामवर सिंह, धूमिल और भी न जाने कौन कौन बड़े नाम बैठ कर चाय के साथ साथ बनारस की अलमस्त फ़िज़ा के घूँट भरा करते थे. दूकान के दरवाज़े के दाईं ओर एक जनाब बैठ कर इत्मीनान से चाय बना रहे थे और दूसरी ओर एक श्रीमान पान बनाने में व्यस्त थे. मैं उलझन में कि किसे पूछा जाय. 

आख़िर में मैंने चाय बनाने के आयोजन में विघ्न डालते हुए मुहं खोला. मैं कुछ बोलती, कि इस से पहले ही उन साहब ने मेरी उत्सुकता को न समझते हुए मुझे दुकान में अन्दर जाने का इशारा कर दिया. उन्हें क्या पता कि मेरे लिए यह सिर्फ़ चाय की दूकान न थी, एक दूसरी दुनिया तक ले जाने वाला जादुई पुल थी. वह दुनियां जो एक किताब में क़ैद है. पर इस सब की उन्हें क्या खबर. उनके लिए तो मैं बस एक आम ग्राहक थी जिसे बस एक कप चाय से मतलब था. 

पर नहीं यह सही नहीं है. इस दूकान पर आने वालों को एक कप चाय से ज़्यादा की ही तलाश रहती है. बहरहाल मैंने हिम्मत कर के पूछा कि क्या यह पप्पू चायवाले की दूकान है. जवाब हाँ में ही था. मैं ख़ुशी ख़ुशी ऊपर पहुँच गई. दूकान बहुत छोटी नहीं थी. अमूमन जिस तरह की चाय की दुकानें मैंने देखी हैं उनसे बड़ी ही थी. वहां जाकर बैठने के बाद मैं ऐसी खुश थी मनो मेरी चाँद पर जाने की ख्वाहिश पूरी हो गई हो. याद आ रहा है एक बार और इसी तरह की ख़ुशी महसूस कि थी मैंने. जब रेल म्यूज़ियम गई थी, चेतन भगत के किसी नॉवेल में उसे पढने के बाद.

थोड़ी देर तक तो मैं बस वहां के माहौल को ही ओब्ज़र्व करती रही. मेजों और बेंचों को जगह का पूरा इस्तेमाल करते हुए अरेंज किया गया था, कुछ यूँ कि देखने पर किसी कॉफ़ी हाउस का देसी वर्जन लगता था. वहां आम रिक्शे वाले थे, प्रौढ़ मध्यमवर्गीय लोग थे और विद्यार्थी दीखते युवा भी थे. मैं उस वक़्त अकेली ही वहां महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही थी पर वहां लोगों की नज़रों में सवाल न थे. स्वागत था, अपनत्व था. 

मैंने पास बैठे एक प्रौढ़ को अपना परिचय दे कर बताया कि मैंने इस दूकान के बारे मैं काशीनाथ जी की किताब मैं पढ़ा है. फिर बोली कि आप तो यहाँ बहुत समय से आते होंगे, बताइए कुछ इस जगह के बारे में. वे कुछ कहते इस से पहले ही वहीँ बैठा एक युवक बोला, आपको काशीनाथ जी के बारे मैं जानना है, ये नहीं बताएँगे, रुकिए हम बुलाते है... अभी एक साहब आ रहे हैं वे बताएँगे. मैं खुश...क्या बात है !!

वे साहब आये. परिचय मिला ये काशीनाथ जी के उपन्यास में मौजूद हैं. वही भारत कला भवन में काम करने वाले प्रोफेसर आर. पी. सिंह. मेरी ख़ुशी दोगुनी. एक तो दूसरी दुनियां के दर्शन दूसरे उस दुनियां के निवासी से सीधे सीधे मुलाकात... जियो!! प्रोफेसर साहब के साथ वे लाल कुरते वाले जनाब भी थे जो मुझे दूकान में आते वक़्त नज़र आये थे. वे एक कवि निकले. प्रदीपिका धन्य हुईं... इतना सब एक साथ! बिना उम्मीद किये! यह भी पता चला, किताब में उनका भी ज़िक्र है. 

प्रोफेसर साहब से बात हुई, अस्त-व्यस्त पर हर हाल में मस्त बनारस के बारे में, अस्सी के बारे में, चाय की दूकान और चाय के बारे में भी. मालूम हुआ कि बनारस का दिल अगर कहीं धड़कता है तो वो यही दुकान है. यहाँ हर आय वर्ग और मानसिक स्तर के लोग मिलेंगे और सब के सब अपने आप को बनारस का बड़ा बुद्धिजीवी समझते होंगे. पड़ौस में सोने वाले कुत्ते से लेकर व्हाइट हाउस के भीतर होने वाली तमाम घटनाओं पर एक्सपर्ट कोमेंट अगर चाहिए तो सीधे यहीं चले आइये.

आलम यह है कि इलेक्शन जैसे मौकों पर खबरचियों को शहर भर का फेरा करने कि ज़रुरत नहीं. आइये पप्पू चाय वाले की दूकान पर और गर्म चाय के साथ तमाम ख़बरें और लोकमत सुड़किये. बातों बातों में पता चला काशीनाथ जी अब भी कभी कभी आते हैं वहां. उनसे मिलने का प्रस्ताव मिला. इससे ज़्यादा क्या चाहिए था मुझे... पर मुझे बताया गया कि इस दूकाननुमा किताब को अगर और गहराई से पढना है तो कभी शनिवार-रविवार में आओ सुबह साढ़े नौ बजे के आस पास. चुप चाप एक कोने में बैठो और देखो... वो पन्ने खुलेंगे कि दुनिया की किसी और किताब में ढूंढे न मिले.

अब शनिवार का इंतज़ार है. किताब बुला रही है. 

P.S. चाय के बारे में तो बताना ही भूल गई. चाय वाक़ई बढ़िया थी. और फिर अगर किसी ने स्नेह से पिलाई हो तो कहने ही क्या. प्रोफ़ेसर साहब ने पैसे देने से मना कर दिया. कहा छोटी हो, पैसे निकलने की ज़रुरत नहीं. जय हो बनारस!

Comments

  1. Hey good one. It's different. I liked it. Now lets see what happens on saturday. :)

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    1. I am looking forward to enter another interesting world of stories.
      waiting for Saturday :)
      Thank you Sumilan sir

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  2. मस्त जगह है न? और इसका श्रेय मुझे जाता है। हा हा हा। अब सुनो काशी नाथ सिंह जी अस्सी जाते थे ऐसा नहीं है वो अब भी अस्सी आते हैं। और एक खास बात हर साल 1 जनवरी को डॉक्टर गया सिंह चाचा जी पोई चाचा के चाय की दूकान (ठीक अस्सी चौराहे पर है) पर उनका जन्मदिन मनाते हैं, इसमें काशीं नाथ सिंह जी भी आते हैं।

    और हां अस्सी बहुत गहरा है। और गहराई में जाओ और मजा आएगा।

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    1. हाँ राघवेन्द्र सर आज पता चला. :)
      अस्सी से परिचय कराने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया

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  3. Bahut umda detailing...jis pappu chai Ki dukan pe hum chai nai pi sake...aap ek ghanta ji aaye. Issiliye to, Jo maza Banaras me na Paris me na....??? Samjhe! Beautifully written. I am amazed....kash hamari kalam me itni taqat hoti....jiyo.

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    1. ...फारस में :)
      ऐसा मत कहिये मंजीत जी. आपकी कलम का ही करिश्मा है कि मैं कुछ लिख पा रही हूँ. गुस्ताख से बहुत प्रेरणा मिली मुझे.
      और इस पोस्ट का श्रेय तो पूरी तरह आपको जाता है. मैं काशी में एक साल से थी ज़रूर पर असली काशी, अस्सी और पप्पू चाय वाले का पता तो आपने ही मुझे दिया.

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  4. बहुत खुब। सबसे पहले तो मै आपकी लेखन कला, जिसे आपने बेहद खुबसूरती से सजाया है उसकी तारीफ करूँगा उसके बाद जो आपने लेख को रुचिपूर्ण बनाने के लिए गलतियों के बाद जिस सादगी से माफ़ी मांगी है वो मुझे पसंद आई, चूकि मै भी युवा वर्ग का हु तो फेसबुक वाली लाइन अची लगी जो आज की हक़िकत बयाँ करती है। काफी उम्दा बस एक आपने की कि आपने लेख एक जगह अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किया है कंफ्यूज जहा पे आप उसके हिंदी शब्द प्रयोग में ला सकते थे। मेरा ऐसा मानना है की जब आप किसी भाषा का प्रयोग किसी लेखनकला में करते है तो आप सम्पूर्ण लेख में केवल एक ही भाषा का प्रयोग करे, जिससे उसको खूबसूरती में और भी चार लग जाते है।

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  5. Replies
    1. शुक्रिया नीलिमा जी

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  6. शनिवार , 10 AM , गरमा गरम चाय , बनारस . आपकी सारी जिज्ञासाएं संतुष्ट हों ।
    हमारे लिए ज्यादा ठंडी मत होने दीजियेगा जल्दी ही लिखिएगा ...

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  7. kya baat hai yaar.....tujhe to kuch naya or acha anubhav hua hoga un logo ke bich.....tere sath sath maine bhi lutf utha liya.....or sach tu bhot acha likti hai.....

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  8. Bhasha me bahut hi saralta hai jo hum sab amuman sochte hain ya kabhi kabhi apne mann se baaten karte hain. Tathyon ki thodi si kami lagi mujhe kyonki main kuch rochak prasang dhundunga ise padte hue. Rajneeti ki baaten poore uttar bharat ki chai ki dukano me aapko sunne milengi. Main aane wale lekhini me is vishay pe kuch alag aur atulya hone ki asha karta hun.

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  9. बनारस को जीने के लिए अस्सी एक ऑक्सीजन कि तरह से है, प्रदीपिका !अस्सी को समझने कि तुम्हारी ललक कहीं न कही से जीवन को भी समझने में मदद करेगी,बाकि रहा तुम्हारा लेखन तो वह कमाल है, जैसे जैसे अनुभव बढ़ेगा,कलम की धार भी खुद बढ़ जाएगी !मै भी अड़ीबाजी का हिस्सा रहा हूँ,और प्रोo देवब्रत चौबे जी मेरे गुरु हैं जो तुमको उसी चाय कि दुकान पे मिल जायेंगे कभी, …सुखद भविष्य कि शुभकामनायें!
    http://umesh-pathak.blogspot.in/2012/06/blog-post.html

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