बनारस की चाय के अलौकिक घूंट - भाग दो

पिछले दो दिन से शनिवार का इंतजार था.  शनिवार आया. आकर चला भी गया. कुछ व्यस्तताओं की वजह से अस्सी तक जाने का मौका न मिल सका. बस अब व्यस्तताएं न पूछियेगा. खैर रविवार की अपनी दिनचर्या को बदलते हुए में साढ़े नौ बजे हॉस्टल  से निकल गई.

काफ़ी उत्साहित थी कि आज किस किस के दर्शन होंगे. क्या क्या देखने, सुनने मिलेगा. भारत कला भवन वाले प्रोफ़ेसर साहब ने कहा था कि आना और आकर एक कोने में चुपचाप बैठना. बस बाकी तुम खुद ही देखती जाओगी. सो उनके कहे अनुसार दुकान पर पहुंची. साइकि पार्क की और दुकान में घुसते ही बांयी ओर पड़ी बेंच पर जा कर बैठ गई.

अभी तक दुकान पूरी भरी न थी. कम ही लोग थे. दो तीन बीस-बाईस की उम्र के लड़के सामने की बेंचों पर चाय के साथ हिंदी अखबारों का नाश्ता करने में व्यस्त थे. उनके पास ही एक सरकारी स्कूल के अध्यापक अपनी चाय लिए बैठे थे. उन्होंने मुझे और मैंने उन्हें पहचान लिया. पिछली बार जब यहाँ आई थी तो भेंट हुई थी उनसे. मुस्कानों ओर 'हेल्लो -हाय' की अदला बदली हुई. अभी तो मुझसे हेल्लो हाय की ही उम्मीद की जा सकती है. क्या है कि गंगा के पानी का रंग इतनी जल्दी चढ़ जाये, ऐसी न तो अपनी किस्मत ना ही काबिलियत.

अध्यापक जी के पास वाली बेंच पर देखा तो प्रोफेसर  सिंह भी मौजूद थे, चाय के साथ नाश्ते का दोना लिए. मुझे देख कर मुस्कुराये. नाश्ता क्या था ये तो पहचान नहीं पाई पर हाँ दिख रहा था कि रविवासरीय स्वतंत्रता का समारोह शुरू हो चुका है. उन्होंने मेरा परिचय आस पास के लोंगों से कराना शुरू किया. ये बिटिया है युनिवेर्सिटी से, मास काम डिपार्टमेंट में पढ़ती है. काशी को जानना चाहती है. आप हैं फलां जी. पायनियर में हैं. बिटिया इनसे पूछिए क्या पूछना चाहती हैं काशी के बारे में.

बिटिया कुछ पूछती उससे पहले पायनियर वाले साहब ने सवाल दागा "आप आर्ट्स फेकेल्टी से हैं ?". जवाब मिला "हाँ". "वामपंथी हैं ?"  जवाब था "नहीं" . "आपको प्रतिरोध के सिनेमा फ़िल्मोत्सव में देखा था..." अरे साहब आपने मुझे प्रतिरोध के सिनेमा के फ़िल्मोत्सव में देखा था तो जाहिर सी बात है आप भी वहां थे. क्या आपसे भी पूछा जाये कि आप वामपंथी हैं ?

वामपंथियों के आलावा उन्हें कांग्रेस सरकार और कांग्रेसियों से भी खुजली थी. जितनी देर बैठे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस को सज़ा दिलाने की पैरवी करते रहे. अब आप अगर कहें कि इसमें नया क्या है, हर दूसरे भारतीय को आजकल यही दिक्क़त है तो आपको बता दूँ कि मास कम्युनिकेशन से जुड़ने के बाद इतना तो हर कोई जानता है कि किसी खास विचारधरा के प्रो या एंटी हो कर आप जर्नलिस्ट होने का दम नहीं भर सकते. बाकी अखबार में नौकरी करना दूसरी बात है. भाई कांग्रेस और वामपंथ के आलावा तीसरी भी पार्टी है...

तीसरी पार्टी का यहाँ काफ़ी बोलबाला था. शायद मोदी की उत्तर प्रदेश यात्रा का असर था. एक बात बहुत खास नज़र आई  इस  दुकान के बारे में. यहाँ हर पार्टी और विचारधारा से सम्बन्ध रखने वाले लोग एक तो  साथ बैठ कर चाय पीते हैं और दूसरे एक दूसरे पर चाय से भी गरम चुटकियां लेते हैं.  समाजवादी, कांग्रेसी, भाजपाई, जदी, वामपंथी सब के सब एक दूसरे पर प्यार लुटाने में व्यस्त.

हाँ काशी के इस अस्सी में प्यार तो बिना गलियों के अधूरा ही समझिये. प्रोफ़ेसर कांव कांव मिश्रा उर्फ़ के के मिश्रा की सुनी जाये तो काशी का अर्थ है मस्ती. और मस्ती का अर्थ है भड़ास निकलना. यहाँ सब बौद्धिक उलटी करने आते हैं. ना करें तो जी न पायें. इन प्रोफ़ेसर साहब ने 380 रिसर्च पेपर लिखे हैं 280 किताबें लिखी हैं और अब तक 50 पी एच डी करवाई हैं. अब कहिये काशीनाथ सिंह कहाँ टिकते हैं इनके आगे. 'अरे वो तो टुच्चा लेखक है. हम लोगों पर किताब लिख के बड़ा आदमी हो गया...' मिश्रा जी बड़ी सरलता से कहते हैं. इनके बारे में एक साहब ने खुलासा किया कि ये यहाँ दो ही वजहों से आते हैं. कि या तो इन्हें एम पी का टिकट मिल जाये या इन्हें यूनिवर्सिटी का वी सी बना दिया जाय.

यहाँ वामपंथियों के प्रतिनिधि थे रामाज्ञा शशिधर. जेएनयू के पूर्व छात्र. ये भी युनिवेर्सिटी में हैं और प्रयोजन मूलक हिंदी पढ़ते हैं. उनके समीप ही बैठे होने के कारण उनसे मेरी कुछ देर बनारस और यहाँ की संस्कृति पर चर्चा होती रही. इस पर मिश्रा जी ने अब तक बताये गए अस्सी के 'आनंद युक्त, अहंकार मुक्त, अलमस्त स्वाभाव' की बानगी देते हुए शशिधर जी को छेड़ा  'क्यूँ बेचारी बालिका को परेशान कर रहे हो. तुम चार दिन से काशी में आकर रहने वाले बिहारी खुद भी जानते हो कि बनारस क्या है ? बताओ जरा हम भी सुन लें...' यहीं पर कहाँ रुकना था उन्हें... 'ये देखिये र और ड़ का फ़र्क़ नहीं समझते है, पढ़ाते हैं प्रयोजन मूलक हिंदी...'

सचमुच भड़ास निकल कर खुद को खाली करने की अद्भुत जगह है पप्पू की दूकान. एक दूसरे पर छींटाकाशी, मज़ाक और कहकहे... बीच बीच में किसी देसी गाने के बोल...पूरी सुर लय ताल में. कोई बेकार का सोफिस्टीकेशन नहीं. बनावट नहीं... है तो बस खांटी बनारसीपन. मुझे बताया गया कि मेरे आने से आज एक बदलाव है... लोग गलियां नहीं दे पा रहे हैं... मैं हंस दी.

 आज यहाँ ज़्यादातर लोगों से पहली बार मुलाकात थी और फिर सब मुझ से बहुत वरिष्ठ भी थे, तो सभी सस्नेह मुझे कुछ न कुछ बता रहे थे, समझा रहे थे. पर बख्शा मुझे भी नहीं गया. मिश्रा जी ने कह ही दिया, ' आज पहली बार आई हो तो इतने लोग ज्ञान दे रहे हैं तुम्हें दो चार दिन बाद इतनी इज्ज़त नहीं मिलेगी'. मैं कुछ कहती इस से पहले मेरा बचपना बोल उठा...' मैं रोज़ रोज़ आउंगी ही नहीं :) '  पर सच तो ये था कि उस पल लगा जैसे अस्सी ने मुझे भी अपना लिया है.







Comments

  1. प्रदीपिका, आपके लेखन में मुझे काशीनाथ सिंह की खुशबू मिल रही है...वही हाव-भाव। आप बधाई की भी पात्र हैं और मेरी जलन की भी। काश हम आप-सा लिख पाते। आपकी डिटेलिंग पर तो क़ुरबान। जय हो

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  2. वाऊ !!! मजा आ गया। लेखन का एक बेजोड़ उदहारण, वो भी बनारस, अस्सी और बीएचयू बारे में। साधुवाद।

    बीएचयू में अध्ययन के दौरान अस्सी मेरा भी सर्वाधिक पसंदीदा स्थान था। स्मृतियों को जगाने और उसमें हिलोरें लगवाने के करने लिए धन्यवाद प्रदीपिका।

    आह बनारस!!! पता नहीं फिर कब होंगे इस अलमस्त, शाश्वत नगरी के पुनःदर्शन।

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  3. ब्लॉग की दुनिया में आपका सबल और सार्थक हस्तक्षेप हो रहा है। लिखना मांजने के लिये भी यह ख़ूब काम आ सकता है। शुभकामनायें।

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    1. शुक्रिया राजीव जी :)

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  4. इस ब्लॉग के माध्यम से बनारस तक जाने का सौभाग्य मिला ... खूबसूरत शब्दों का चयन और भावों की अभिव्यक्ति बेहद सोच समझकर ... आपकी लेखनी अब तक छोटे रूप में फलक पर ट्रेलर के रूप में देखी थी - आज पूरी पिक्चर देखने को मिली ... बधाई ... क्या कुछ चित्र इसके साथ कॅंपोज़ किए जाएँ तो रूप निखरेगा (?) ... एक सुझाव ....

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