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ओ समय

जी उठी हैं आज फिर से कुछ उमंगें स्वप्न से कुछ  जागने से फिर लगे हैं तुम्हें छूकर  ओ समय फिर से उकेरे हैं  मेरी इन उंगलियों ने  चित्र से कुछ हाँ, धरातल पर नियति के भर दिए हैं रंग भी मैंने चुरा कर  रात से, दिन से लगी हैं गुनगुनाने फिर हवाएं भी नई सी हो गई हैं और मैं भी  छू तुम्हें  फिर जी गई हूँ   ओ समय,  पर तुम वही हो  हाँ, वही हो