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Showing posts from November, 2013

यह कैसी 'एलकैमी ऑफ़ डिज़ायर'...?

बहुत सारे विचार, बहुत सारी आवाजें एक साथ उमड़ घुमड़ रही हैं मन में जैसे प्रेशर कुकर में पकती खिचड़ी में दाल और चावल. शुतुरमुर्ग की तरह आँख बंद कर लेने का भी सहारा नहीं. शब्दों से बनी तस्वीर को ना तो किसी रौशनी की ही ज़रुरत और न ही ऑप्टिकल नर्व की . एक तरफ़ से आवाज़ आ रही है 'सेक्स इज़ नॉट द ग्रेटेस्ट ग्लू बिटविन टू पीपल, लव इज़'. दुसरे कोने में कोई सधी हुई आवाज़ में कह रहा है ' अ बैड लैप्स ऑफ़ जजमेंट एंड एन औफ़ुल रीडिंग ऑफ़ द सिटुएशन हैड लेड टू एन अनफॉरचुनेट इंसिडेंट'. एक आवाज़ और भी है, पॉवर, पैसे और नाम के नशे में चूर 'दिस इज़ दी इज़ीएस्ट वे फॉर यू टू कीप द जॉब..'और आख़िर में एक गंभीर महानता का आवरण ओढ़े एक और आवाज़ ' आई हैव आलरेडी अनकंडीशनली अपोलोजाइज्ड फॉर माय मिसकंडक्ट टू द कंसर्नड जर्नलिस्ट, बट आई फील टू एटोन फरदर' उफ़्फ़ सर चकरा रहा है मेरा... किस आवाज़ को सच मानूं. एक तरफ़  हैं एलकैमी ऑफ़ डिज़ायर जैसी किताब के लेखक, तहलका जैसी अवार्ड विनिंग पत्रिका के मुख्य संपादक तरुण तेजपाल और दूसरी तरफ है एक ऐसा आदमी जो अपने ऑफिस में काम करने वाली लड़की पर यौन उत्पीड़न का प्रय

परवाना ही क्यूँ जल जाये

शमां से रौशन सारी महफ़िल फिर ये किस्सा समझ ना आये परवाना ही क्यूँ जल जाये तोल रवायत के पलड़े पर जात के दीन के सिक्कों से जिसने चाहा खुद को भुला के उसको कैसे कोई भुलाये दीवाना ही क्यूँ जल जाये किस्सागो दुनिया की फ़ितरत बदली है न बदलेगी एक कहानी लिखे एक लिखने से पहले ही मिट जाये अफ़साना ही क्यूँ जल जाये

तुझ में बसी है मेरी जान...

बचपन की कहानियां कभी जेहन से नहीं उतरतीं. किसी न किसी बहाने याद आ ही जाती हैं. या कहें कि बड़े बुज़ुर्ग कहानियों की शक्ल में अपने अनुभव छोड़ जाते हैं नई पीढ़ी के लिए जो गाहे बगाहे काम आते रहते हैं. इस वक़्त जो कहानी याद आ रही है वो है उस जादूगर की जो अपनी जान को तोते में छुपा के रखता था. जान तोते में हो तो फिर जादूगर को किस बात का डर, कोई भी उसे मार नहीं सकता था. उस वक़्त कहानी सुन के लगता था कि काश हमें भी जादू आता तो हम भी अपनी जान किसी डॉल या टेडी में छुपा देते. कुछ और बड़े हुए तो इस कांसेप्ट पे हँसी आने लगी. पर अब लगता है कि वो सिर्फ कहानी नहीं थी. सचमुच ही हम सब उस जादूगर जैसे होते हैं. हमें कोई न कोई चाहिए होता है अपनी जान छुपाने के लिए. जाने क्यूँ खुद में अपनी जान रखना इतना मुश्किल हो जाता है. कोई अपनी जान अपने बच्चे में छुपाता है तो कोई अपनी प्रेमिका में. किसी की जान कुर्सी में होती है तो किसी की बैंक की तिजोरियों में. आज फेसबुक के पन्ने पलटते हुए देखा कि सबसे ज़्यादा लोगों की जान आज सचिन रमेश तेंदुलकर में अटकी हुई थी. मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. आजकल तो जैसे एक ट्रेंड सा