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Showing posts from September, 2013

...देहाती नहीं...सिर्फ औरत !

देहाती औरत ...!! शहरी औरत, कामकाजी औरत, घरेलू  औरत, शरीफ औरत, बदचलन औरत... और भी पता नहीं क्या क्या कहते हो तुम उसे. कभी फैमिनिस्ट कह कर उसे तुम अपने उन अधिकारों के लिए तुमसे जूझती औरत के पोस्टर में तब्दील कर देते हो, जिन अधिकारों का तुमसे कोई वास्ता ही नहीं. तो कभी उसकी  बदहाली और लाचारी की कहानियां अख़बारों में पढ़कर शोक प्रकट करने का ढोंग रचते हो. उसे समझ नहीं आता कि उसका औरत होना तुम्हारे लिए इतना बड़ा कौतूहल क्यों है. क्या सिर्फ इसलिए कि तुम खुद एक औरत नहीं हो? इन विशेषणों को उस से जोड़ कर इतनी तूल देने का अर्थ क्या है आखिर? तुम उसके सम्मोहन में इतना गहरे डूबे हो कि तुम स्वयं अपने बारे में नहीं सोच पाते? स्त्री विमर्श, नारी उत्थान ...कभी पुरुष विमर्श अथवा उत्थान की आवश्यकता महसूस नहीं हुई तुम्हें? क्या तुम इतने आदर्श हो कि सुधार की कोई सम्भावना नहीं तुम मे? सुनो पुरुष, औरत तुम्हारी प्रतिद्वंदी नहीं पूरक है. तुम उस के स्वामी भी नहीं हो. उसे कोई अधिकार देने की चेष्टा न करो और ना ही अधिकार छीनने का झूठा गर्व पालो. ये तथाकथित अधिकार प्राकृतिक रूप से उसके पास सुरक्षित हैं. अधिकार लेने

युनिवेर्सिटी, शाम, लड़की...और हाफ पेंट्स !!

हाँ शाम का ही वक़्त था जब डिपार्टमेंट से बाहर निकली. करीब छह बजे थे. अरे ये क्या.... ? इतना खूबसूरत मौसम! काले बदल घिरे थे...हलकी रिमझिम भी थी. दिल खुश हो उठा. सारे दिन कि थकान जैसे ग़ायब हो गई. साइकिल उठाई और दौड़ा दी हॉस्टल कि तरफ. रास्ते भर मुस्कुराती , गुनगुनाती रही. इस बेमौसम बरसात ने इनटोक्सिकेट कर दिया था जैसे मुझे.     हॉस्टल पहुँच के याद आया कि सुबह से कुछ खाया नहीं है. आज प्रेजेंटेशन था. सुबह जल्दी ही निकल गई थी डिपार्टमेंट के लिए. देर होते होते शाम हो गई सुबह से. खैर इस वक़्त मुझे खाने कि नहीं बारिश की फिक्र थी. जल्दी जल्दी कपड़े बदले , साइकिल की चाभी उठाई और नाचती सी चल दी बाहर की ओर. ओये स्नैक्स तो ले ले. आज मैगी है मेस में... रूम मेट चिल्लाई. मुझे कहाँ सुनाई देना था... जा कहाँ रही है  ? वो और तेज़ चिल्लाई. आवारागर्दी करने... मैं मुस्कुराते हुए बोली. हँसी की आवाज़ आई मुझे. सुन लिया था  उसने .   साइकिल स्टेंड पर साईकिल निकालते वक़्त एक प्रश्नवाचक आवाज़ कानों से टकराई. ... लंका  ? मैंने पलट कर देखा. एक दुबली पतली , प्यारी सी लड़की मेरी तरफ सवालिया आँखों से देख रही

नीला अम्बर, नदी, समंदर...

नीला आसमान, नीली नदी. अलस्सुबह तेज़ तेज़ बह उठी. आसमान हैरान. क्यों ऐसी उतावली हो ? इतनी जल्दी ? तुम तो सो कर भी नहीं उठतीं इस वक़्त. क्या हुआ जो यूँ चली जा रही हो, तेज़कदम. और ये क्या ? अधमुंदी आखों से क्या दीखेगा तुम्हें ? बहा दोगी दो चार गाँव. अरे ! सुनती भी नहीं कुछ ! क्या गुनगुनाये जा रही हो ये ? धीमे स्वर में ! बताओगी भी...? ओहो! तंग ना करो. नदी मुस्कुराती, गुनगुनाती बहती रही. तेज़ तेज़. अपनी ही धुन में है. अरे ! अरे ! बचा के ! आसमान ने चेताया. उलट ही दोगी क्या नाव ? हे हे हे... नदी खिलखिलाई. उछाल दिया थोड़ा  पानी नाव पर. मुस्कुरा दिया आसमान. मुस्कुरा दिया नाव पर का नौजवान जोड़ा. एक ने हाथ बढा कर सहला दिया नदी का बदन. उड़ चली नदी दोगुने उत्साह से. नदी की आँखें बंद थीं. मुस्कुराहट भी थी पनीले होठों पर. प्रियतम को देख रही हो जैसे. साक्षात्. अब आसमान कुछ कुछ समझा. अपनी सफ़ेद होती दाढ़ी को हिला कर मुस्कुराया. बचपन बीत गया इसका. लगता है बीती रात देख लिया इसने भी वही सपना. वही पुराना सपना जो हर नदी के दिल में पलता रहा है. पर देर तक मुस्कुरा न सका. उदासी ने उसके चेहरे की सफ़ेद झुर्रियों को और