Posts

Showing posts from 2013

आज़ ये क़ायनात और होती

उनकी आँखों में लाख नगमे हों लब जो हिलते तो बात और होती लाख तारे हों शब के दामन में चाँद दिखता तो रात और होती इश्क बस फ़लसफ़ा न होता तो आज़ ये क़ायनात और होती हर एक चेहरे में तुम नज़र आते उफ़ ये आदम की ज़ात और होती

यह कैसी 'एलकैमी ऑफ़ डिज़ायर'...?

बहुत सारे विचार, बहुत सारी आवाजें एक साथ उमड़ घुमड़ रही हैं मन में जैसे प्रेशर कुकर में पकती खिचड़ी में दाल और चावल. शुतुरमुर्ग की तरह आँख बंद कर लेने का भी सहारा नहीं. शब्दों से बनी तस्वीर को ना तो किसी रौशनी की ही ज़रुरत और न ही ऑप्टिकल नर्व की . एक तरफ़ से आवाज़ आ रही है 'सेक्स इज़ नॉट द ग्रेटेस्ट ग्लू बिटविन टू पीपल, लव इज़'. दुसरे कोने में कोई सधी हुई आवाज़ में कह रहा है ' अ बैड लैप्स ऑफ़ जजमेंट एंड एन औफ़ुल रीडिंग ऑफ़ द सिटुएशन हैड लेड टू एन अनफॉरचुनेट इंसिडेंट'. एक आवाज़ और भी है, पॉवर, पैसे और नाम के नशे में चूर 'दिस इज़ दी इज़ीएस्ट वे फॉर यू टू कीप द जॉब..'और आख़िर में एक गंभीर महानता का आवरण ओढ़े एक और आवाज़ ' आई हैव आलरेडी अनकंडीशनली अपोलोजाइज्ड फॉर माय मिसकंडक्ट टू द कंसर्नड जर्नलिस्ट, बट आई फील टू एटोन फरदर' उफ़्फ़ सर चकरा रहा है मेरा... किस आवाज़ को सच मानूं. एक तरफ़  हैं एलकैमी ऑफ़ डिज़ायर जैसी किताब के लेखक, तहलका जैसी अवार्ड विनिंग पत्रिका के मुख्य संपादक तरुण तेजपाल और दूसरी तरफ है एक ऐसा आदमी जो अपने ऑफिस में काम करने वाली लड़की पर यौन उत्पीड़न का प्रय

परवाना ही क्यूँ जल जाये

शमां से रौशन सारी महफ़िल फिर ये किस्सा समझ ना आये परवाना ही क्यूँ जल जाये तोल रवायत के पलड़े पर जात के दीन के सिक्कों से जिसने चाहा खुद को भुला के उसको कैसे कोई भुलाये दीवाना ही क्यूँ जल जाये किस्सागो दुनिया की फ़ितरत बदली है न बदलेगी एक कहानी लिखे एक लिखने से पहले ही मिट जाये अफ़साना ही क्यूँ जल जाये

तुझ में बसी है मेरी जान...

बचपन की कहानियां कभी जेहन से नहीं उतरतीं. किसी न किसी बहाने याद आ ही जाती हैं. या कहें कि बड़े बुज़ुर्ग कहानियों की शक्ल में अपने अनुभव छोड़ जाते हैं नई पीढ़ी के लिए जो गाहे बगाहे काम आते रहते हैं. इस वक़्त जो कहानी याद आ रही है वो है उस जादूगर की जो अपनी जान को तोते में छुपा के रखता था. जान तोते में हो तो फिर जादूगर को किस बात का डर, कोई भी उसे मार नहीं सकता था. उस वक़्त कहानी सुन के लगता था कि काश हमें भी जादू आता तो हम भी अपनी जान किसी डॉल या टेडी में छुपा देते. कुछ और बड़े हुए तो इस कांसेप्ट पे हँसी आने लगी. पर अब लगता है कि वो सिर्फ कहानी नहीं थी. सचमुच ही हम सब उस जादूगर जैसे होते हैं. हमें कोई न कोई चाहिए होता है अपनी जान छुपाने के लिए. जाने क्यूँ खुद में अपनी जान रखना इतना मुश्किल हो जाता है. कोई अपनी जान अपने बच्चे में छुपाता है तो कोई अपनी प्रेमिका में. किसी की जान कुर्सी में होती है तो किसी की बैंक की तिजोरियों में. आज फेसबुक के पन्ने पलटते हुए देखा कि सबसे ज़्यादा लोगों की जान आज सचिन रमेश तेंदुलकर में अटकी हुई थी. मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. आजकल तो जैसे एक ट्रेंड सा

अपनी जान किसी के नाम...

ख़ाली काग़ज़ भी साफ़ दिल जैसा होता है जिस पर लिख सकते हैं अपनी जान किसी के नाम... -अमृता प्रीतम किसी के प्यार में लिखे हुए ख़त कितने ख़ूबसूरत हो सकते हैं ये मैंने ‘ख़तों का सफरनामा' पढ़ते हुए महसूस किया. अमृता और इमरोज़ के ख़त एक दूसरे के नाम. प्यार की चाशनी में डूबे, हज़ार दर्द, शिक़वे-शिक़ायतें समेटने के बावज़ूद इतने दिलक़श कि उफ़!! ख़ूबसूरती शायद अधूरे होने में ही है. पूरा होना तो जैसे ख़त्म हो जाना है, फ़िल्म के दी एंड की तरह. अधूरापन ही तो है इन ख़तों में जो दोनों को पूरा कर रहा है. अपनी बात कह पाने की ख्वाहिश, उसकी बात सुन पाने की आरज़ू. दोनों के पूरा होने के सुकून की उम्मीद. ये सुनने का इंतजार कि कोई उसकी याद को ज़िन्दगी की तरह जी रहा है और ये कहने की बेक़रारी भी कि तुम जीते रहोगे तो मैं भी ज़िन्दा हूँ. अपने हर ख़याल को काग़ज़ पर उकेर देने की तड़प, पानी में डूबते वक़्त सांस ले पाने की तड़प से ज़रा भी कमतर नहीं दिखती.  दुनिया के किसी भी कोने में, कितनी भी नेमतों के बीच दिल से अगर जाता नहीं तो बस एक ख्याल... ‘तुम कहाँ हो? कैसे हो? क्या कर रहे हो?’ बस एक चुपचाप सी ख्वाहिश... ‘काश

बनारस की चाय के अलौकिक घूंट - भाग दो

पिछले दो दिन से शनिवार का इंतजार था.  शनिवार आया. आकर चला भी गया. कुछ व्यस्तताओं की वजह से अस्सी तक जाने का मौका न मिल सका. बस अब व्यस्तताएं न पूछियेगा. खैर रविवार की अपनी दिनचर्या को बदलते हुए में साढ़े नौ बजे हॉस्टल  से निकल गई. काफ़ी उत्साहित थी कि आज किस किस के दर्शन होंगे. क्या क्या देखने, सुनने मिलेगा. भारत कला भवन वाले प्रोफ़ेसर साहब ने कहा था कि आना और आकर एक कोने में चुपचाप बैठना. बस बाकी तुम खुद ही देखती जाओगी. सो उनके कहे अनुसार दुकान पर पहुंची. साइकि पार्क की और दुकान में घुसते ही बांयी ओर पड़ी बेंच पर जा कर बैठ गई. अभी तक दुकान पूरी भरी न थी. कम ही लोग थे. दो तीन बीस-बाईस की उम्र के लड़के सामने की बेंचों पर चाय के साथ हिंदी अखबारों का नाश्ता करने में व्यस्त थे. उनके पास ही एक सरकारी स्कूल के अध्यापक अपनी चाय लिए बैठे थे. उन्होंने मुझे और मैंने उन्हें पहचान लिया. पिछली बार जब यहाँ आई थी तो भेंट हुई थी उनसे. मुस्कानों ओर 'हेल्लो -हाय' की अदला बदली हुई. अभी तो मुझसे हेल्लो हाय की ही उम्मीद की जा सकती है. क्या है कि गंगा के पानी का रंग इतनी जल्दी चढ़ जाये, ऐसी न तो अपनी

बनारस की चाय के अलौकिक घूंट

मुझे एक लोकोक्ति याद आ रही है. ज़रूर सुनी होगी आपने भी. आये थे हरि भजन को... हाँ आज मेरे साथ कुछ ऐसा ही वाक़या पेश आया पर इसकी तासीर उलटी थी. गई तो थी मैं कपास ओटने और हो गया हरि भजन.    हॉस्टल में ईथरनेट का प्रयोग होता है. केबल का पिन अगर ख़राब हो जाए तो सोचिये कितनी मुसीबत होगी. ख़ासकर हम जैसों की जो फ़ेसबुक पर जागते हैं और गूगल प्लस पर सोते हैं. दोपहर होती है विकिपीडिया पर तो शाम को यूट्यूब के किनारे पड़े रहते हैं.  तो आज हुआ ये कि ख़राब पिन को बनवाने के लिए, माफ़ कीजियेगा बदलवाने के लिए मैंने पूरा का पूरा केबल ही पोर्ट से निकला और पहुँच गई लंका. एकमात्र शिवम् कंप्यूटर्स का ही ठिकाना मालूम था सो वहीँ हमने अपनी अर्जी लगा दी. पर वहां से नोटिस मिला बीस मिनट बाद... अब सवाल ये था कि ये बीस मिनट कहाँ बिताई जाएँ. वापस आकार साइकिल उठाई तो पर समझ नहीं आ रहा था कि जाना कहाँ है. कुछ समझ आता इस से पहले ही महसूस हुआ कि साईकिल चल रही है... हाँ अस्सी की तरफ़. पर लंका का ट्रैफिक... अब आगे क्या कहूँ. न तो मैं गणेश की अवतार हूँ और ना ही मेरा कंप्यूटर व्यास की छायाप्रति. आज अस्सी पहुँच