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Showing posts from 2014

समझो हमें वहीं पर, दिल है जहाँ हमारा

                                                                                                                                          मोहगांव, मंडला                                                                                                                                            मध्य प्रदेश  आज तारीख है 14-07-14. 4 अगस्त को मैंने प्रदान ज्वाइन किया था. आज मुझे प्रदान में दो महीने और दस दिन हो चुके हैं. अब तक जिन शहरों और गाँव में रही हूँ उन में सब से अलग तरह की जगह है मंडला. यूँ तो हर शहर, हर गाँव अपने आप में अलग ही होता है. बोली- भाषा, रहन-सहन, खान-पान अलग- अलग ही होता है पर यहाँ आने के बाद इस अंतर को मैंने कुछ ज्यादा ही महसूस किया.  आदिवासियों की आधी से ज़्यादा आबादी वाले इस जिले का चालीस प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा जंगलों से ढका हुआ है. चार अगस्त को जबलपुर से आते वक़्त बहुत ही एक्साइटेड थी मैं इस नई जगह और नए काम के बारे में. केरल के बाद पहली बार इतनी हरी भरी जगह देखी थी, दीवारें तक काई जमने से हरी हो गई थीं. जबलपुर से मंडला की ओर बढ़ने पर फ़्लैट छतों की जगह खपरैल व

साए के बिना

तुम्हारी उँगलियाँ थामती हैं  जो मेरे हाथ चलते तो हो  तुम  साथ  पर तुम्हारा साथ है जैसे साया जिसका साथ होना न होना तय करते हैं रौशनी के कतरे मुझे प्यार है इस साए से पर ये भी सच है  अधूरा नहीं कोई जिस्म किसी साए के बिना

और बरसात आ गई

रात भर की भीगी छोटे कसबे की कमज़ोर सड़क सड़क के छोर पर किसी के इंतज़ार में रात भर का जागा बूढ़ा, पहाड़ी जंगल जंगल के कांपते कन्धों पर धुंध की मोटी, मैली खद्दर खद्दर के धागों में उलझे छोटे छोटे सपने कस्बे भर के और मैं फिर भीग गए और बरसात... ...आ गई

आज फिर...

आज फिर तुझसे मुलाकात करूँ नम हवाओं से तेरी बात करूँ जाने कब से सुबह नहीं देखी चाँद के नाम आज रात करूँ मेरे हिस्से में तू है और दिल है नाम तेरे ये कायनात करूँ जानता हूँ गुनाह है इश्क तेरा चल आज फिर ये वारदात करूँ 

यादों के पिघलते शीशे

पिघलती हुई यादों के शीशे में  उभरने लगे हैं  कुछ अक्स  एक नदी है  कुछ बादल  एक सूरज है, ज़रा सुर्ख  थोड़ा भीगा हुआ सा  नमी से सब्ज़ होती सी  पड़ी हैं चंद सीढियां भी, काली-भूरी-मटमैली ओढ़ ली है चादर  बेरंग, ख़ामोशी की  दूर...कायनात ने  और फिर  वही शहर है, तुम हो  और मेरा अक्स  तुम्हारी यादों के  पिघलते शीशे में

ओ समय

जी उठी हैं आज फिर से कुछ उमंगें स्वप्न से कुछ  जागने से फिर लगे हैं तुम्हें छूकर  ओ समय फिर से उकेरे हैं  मेरी इन उंगलियों ने  चित्र से कुछ हाँ, धरातल पर नियति के भर दिए हैं रंग भी मैंने चुरा कर  रात से, दिन से लगी हैं गुनगुनाने फिर हवाएं भी नई सी हो गई हैं और मैं भी  छू तुम्हें  फिर जी गई हूँ   ओ समय,  पर तुम वही हो  हाँ, वही हो 

बाख़बर !! होशियार !! ' अच्छे दिन ' तशरीफ़ ला रहे हैं !

कब से सुन रही हूँ कि अच्छे दिन आने वाले हैं, अच्छे दिन आने वाले हैं. सुनकर कोई खास किस्म के  एक्साइटमेंट टाइप की फीलिंग मुझे तो कम से कम नहीं ही आती, अलबत्ता हँसी जैसी ज़रूर आती है कि लोग इतना पगलाए हुए क्यूँ हैं. वैसे पगलाना बुरी बात नहीं, पर तभी तक जब तक इस पागलपन का सिर और पैर हो. मतलब कुछ समझ तो आये कि जिस बात पर आप इतना पगलाए हुए हैं उसकी कुछ अन्दर की खबर भी है आपको कि बस खरबूजों को देख कर खरबूजे हुए जा रहे हैं. कभी कभी वक़्त मिलता है तो ये भी सोच लेती हूँ कि (इन पगलाए हुए लोगों) के लिए अच्छे दिन का मतलब आख़िर होता क्या होगा, या क्या क्या होता होगा. पर अब इंतज़ार के पल ख़त्म क्योंकि इस समय इन बहु प्रतीक्षित अच्छे दिनों का निर्धारण करने वाली घड़ी भारतीय लोकतंत्र का दरवाज़ा बड़े जोर शोर के साथ खटखटा रही है. नमो पार्टी, हाँ भई नमो पार्टी जादुई आंकड़ा 'अपने' दम पर पार कर चुकी है. दुश्मन के ख़ेमे में हताशा के बादल साफ़ दिखाई दे रहे हैं. और अच्छे दिनों का बेसब्री से इंतज़ार करते  (पगलाए हुए) लोग तो खैर सुबह से ही ढोल बजा रहे हैं, पटाखे छोड़ रहे हैं, और भी जाने क्या क्या कर रहे है, कह रहे

My first Film

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LADKIYAAN Here is my first attempt at film making. Making it was a learning experience. This film is not that good technically but is close to my heart as it is the first one. I'm sorry for the poor quality of sound and other issues with it but i still want you to spare 17 minutes from your busy schedule.  :)

मेरे लिए तुम

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अस्सी की सीढियों पर बीती सुरमई सुबह या कनॉट प्लेस पर गुज़री शर्मीली शाम हॉस्टल के कमरे की दीवार पर सैक्सोफोन बजाता लड़का या डिपार्टमेंट के पीपल के चबूतरे पर लिखा हुआ नाम धुंधलाता ताजमहल शिमला की सर्द हवा भीम की चाय, या किंगडम ऑफ़ ड्रीम्स का नीला आसमान सवाल ये नहीं कि इनमें से क्या हो मेरे लिए तुम सवाल ये है कि क्या क्या नहीं हो मेरे लिए तुम

एक चम्मच मुस्कान

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आज सूरज उगने पर मैंने देखा कि मेरा प्रेम ज़रा जल्दी जाग पड़ा कुछ देर रूक कर छोड़ दिया उसने सिराहना प्रिय के बिस्तर का आश्चर्य ! नहीं गया वो मलिन बस्तियों की ओर सत्यापित करने वसुधैव कुटुम्बकम का भारी भरकम सिद्धांत नहीं छुपा वो जाकर चाय का गिलास धोते बच्चे की उधड़ी जेब में नहीं उड़ाया आज उसने बुढ़ापे का मखौल वृद्धाश्रम के सालाना जलसे में कर्तव्य और सम्मान पर चुटीला भाषण देकर मैंने देखा आज उसने खटखटाया अनचीन्हा दरवाज़ा पड़ोसी के घर का और परोसी गई चाय की प्याली में घोल कर पी ली एक चम्मच खालिस मुस्कान

क्यों ?

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बिहारी, प्रीतम, और बच्चन बहुत कुछ लिखा तुमने प्रेम पर और उन पर भी जो प्रेम करते हैं प्रेम में व्याकुल नायक पर विरह में जलती नायिका पर पर बोलो क्यों नहीं लिखा तुमने प्रेम का अभिनय करने वालों पर प्रेम को छलने वालों पर उन पर जो एक साथ कई प्रेम करते हैं और उपलब्धता के आधार पर एक को चुनते हैं क्यों ?

एहसास के पंछी

उन हाथों की सुलगती हुई नर्मी का नम होता एहसास आज भी है कहीं क़ैद वक़्त के पुराने पिंजरे में जिन हाथों ने ढका था कभी ठण्ड से कंपकंपाते मेरे कमज़ोर हाथों को जाने क्यूँ खुलते ही नहीं लम्हों के ये ताले कितना भी चाहो आज़ाद नहीं होते एहसास के ये पंछी छुपा देती हूँ इन्हें पिंजरे के साथ दूर कहीं नज़र अन्दाज़ियों के जंगल में  और में देखती हूँ कि मेरे हाथ अब कमज़ोर नहीं

क्या हो तुम

जानती हूँ कि कौन हो तुम इसलिए जानना चाहती हूँ कि क्या हो तुम वह शब्द ? जो निकला था पहली बार मेरे नन्हें होठों से और गूंजती है प्रतिध्वनि जिसकी आज भी यादों के खंडहरों में ये बात और है कि सुन नहीं पाती मैं सही सही शब्द लौट जाती हैं ध्वनि तरंगें टकराकर मेरे गिर्द लिपटे समय के आवरण से वह स्पर्श ? जो मिला था मुझे हवा और पानी के बाद बाकी हैं अभी भी निशान जिसके मेरे माथे पर ये बात और है कि छू नहीं पाती मैं सही सही हिस्सा फिसल जाती हैं काँपती उँगलियाँ वर्षों से जमी हृदयहीन स्पर्शों की अनचाही धूल पर एक गंध, स्वाद या छवि ? जो हैं कहीं आज भी मुझमें पर कहाँ ? आ सकोगी तुम मुझे बताने कि तुम शब्द नहीं हो स्पर्श भी नहीं हो गंध, स्वाद और छवि भी नहीं हो तुम एक सवाल भर हो जो पूछती रहूंगी मैं तुमसे ही कि क्या हो तुम ?

इन ख्वाहिशों से कह दो कहीं और जा बसें...

जनवरी का आख़िरी सप्ताह है , गुलाबी ठण्ड है और   मैं भदैनी घाट की सीढ़ियों पर बैठी हुई हूँ.   गंगा किनारे घाट की सीढ़ियों पर बैठना मुझे तब से ही बहुत पसंद रहा है जब मैं पहली बार बनारस आई थी. युनिवर्सिटी आने के बाद तो   मेरी कितनी ही शामें   अस्सी   पर बीती हैं. सर्दी की गुनगुनी धूप हो , डायरी हो , कलम हो , गंगा का किनारा हो , बनारस में इससे ज़्यादा और क्या चाहिए.   घाट की जिस सीढ़ी पर अभी मेरे पाँव हैं उससे अगली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है. माफ़ी चाहती हूँ पानी में नहीं , ' गंगाजल ' में. गंगाजल , जिसे   स्पर्श   कर लोग जीवन चक्र से मुक्त हो जाने की आकांक्षा रखते हैं. सचमुच जादू होता है न स्पर्श में !! सोच रही हूँ कि मैं भी छू पाती गंगा को. मुझे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं है. मैं कुछ   चाह रही हूँ तो बस इतना ही कि एक सीढ़ी और नीचे उतर कर अपने पाँव  ' गंगाजल ' में डुबा कर प्रकृति के कोमल स्पर्श का जादू कुछ देर महसूस कर सकूँ. पर मैं ऐसा नहीं कर पा रही हूँ.   माना कि मैं विवश हूँ और एक सीढ़ी नीचे उतर कर अपने पाँव गंगाजल में नहीं डुबा सकती पर इसका अर्थ कतई ये न लगाया जाय कि मै

रविवार या सन्डे...?

 आज रविवार है. रविवार ! सुन के कुछ जाना पहचाना सा लग रहा है न ये शब्द. हाँ सन्डे और मंडे वाली जीवन शैली में रविवार जैसे  रास्ता भटक कर कहीं खो गया है. और नहीं तो क्या. पहले रविवार माने होता था स्कूल की छुट्टी होने पर भी सुबह सुबह उठ जाना. पापाजी का ऑफिस न जाना. रविवार का मतलब होता था रंगोली और श्री कृष्णा और आर्यमान. रविवार का मतलब होता था सुबह की धूप का खिड़की से कमरे तक आना. हाँ, क्यूंकि बाकी दिनों इस धूप को कमरे तक आते देखने के लिए हम घर में कहाँ रुक पाते थे, स्कूल जो जाना होता था. रविवार का मतलब होता था रूटीन से अलग स्पेशल खाना. और हाँ मेरे लिए रविवार का एक और बहुत खास मतलब होता था. और वो था दैनिक समाचार पत्र का रविवासरीय अंक, जिसके लिए हम भाई बहन आपस में खींचतान करते थे. किसी को उसमें कहानी पढनी होती थी, किसी को राशिफल. किसी को हेनरी पढना होता था तो किसी को वर्ग पहेली सबसे पहले हल कर के सबसे बुद्धिमान होने का ख़िताब पाना होता था. पांचवीं क्लास के बाद उस तरह का रविवार आना बहुत कम हो गया. हम बोर्डिंग में रहने जो चले गए. हम यानि मैं और दीपिका, मेरी बहन. हाँ घर पर वो रविवार आना ज़ारी