रविवार या सन्डे...?

 आज रविवार है. रविवार ! सुन के कुछ जाना पहचाना सा लग रहा है न ये शब्द. हाँ सन्डे और मंडे वाली जीवन शैली में रविवार जैसे  रास्ता भटक कर कहीं खो गया है. और नहीं तो क्या. पहले रविवार माने होता था स्कूल की छुट्टी होने पर भी सुबह सुबह उठ जाना. पापाजी का ऑफिस न जाना. रविवार का मतलब होता था रंगोली और श्री कृष्णा और आर्यमान. रविवार का मतलब होता था सुबह की धूप का खिड़की से कमरे तक आना. हाँ, क्यूंकि बाकी दिनों इस धूप को कमरे तक आते देखने के लिए हम घर में कहाँ रुक पाते थे, स्कूल जो जाना होता था. रविवार का मतलब होता था रूटीन से अलग स्पेशल खाना. और हाँ मेरे लिए रविवार का एक और बहुत खास मतलब होता था. और वो था दैनिक समाचार पत्र का रविवासरीय अंक, जिसके लिए हम भाई बहन आपस में खींचतान करते थे. किसी को उसमें कहानी पढनी होती थी, किसी को राशिफल. किसी को हेनरी पढना होता था तो किसी को वर्ग पहेली सबसे पहले हल कर के सबसे बुद्धिमान होने का ख़िताब पाना होता था.

पांचवीं क्लास के बाद उस तरह का रविवार आना बहुत कम हो गया. हम बोर्डिंग में रहने जो चले गए. हम यानि मैं और दीपिका, मेरी बहन. हाँ घर पर वो रविवार आना ज़ारी रहा. इसीलिए जब हम दोनों छुट्टियों में घर आते थे तो हम भी उस रविवार को जी पाते थे. और हाँ तब वो रविवार और भी खास हो जाया करते थे क्यूंकि कई दिन बाद पूरा परिवार एक साथ होता था. रविवार का खाना हम दोनों की पसंद का ही बनता था. दोपहर को पापाजी के साथ बैठ कर हॉलिडे होम वर्क करना. शाम को मम्मी पापाजी का हम बच्चों के साथ आई-स्पाई खेलना... सब बहुत ही मज़ेदार होता था. उससे भी मज़ेदार होता था शाम चार बजे से दूरदर्शन पर आने वाली फ़ीचर फ़िल्म का इंतज़ार. इस फ़िल्म को देखने के लिए हम बच्चे कई चीजों के लिए भगवान को मनाते रहते थे. पहला कि पापाजी का मूड ठीक हो कि कहीं वो हम लोगों को चुपचाप बैठ कर पढने की हिदायत न दे दें. दूसरा घर पे कोई गेस्ट आके उसी कमरे में न बैठ जाये जिसमे टीवी सेट रहता था. और तीसरा, लाइट आ रही हो क्यूंकि इन्वर्टर पर फ़िल्म देखने की परमिशन नहीं थी.

पर अब वो रविवार नहीं आता. अब बस सन्डे आता है. सन्डे, जो रविवार से बिलकुल अलग है. सन्डे का मतलब है देर तक सोते रहना. सुबह का नाश्ता स्किप कर देना.सन्डे का मतलब है आलस. सन्डे का मतलब है सप्ताह भर के कपडे धोना, सफाई करना. सन्डे का मतलब है बोर होना. सन्डे की शाम का मतलब है मंडे की व्यस्त सुबह का इंतज़ार करना. अब न अखबार पढने को लेकर वो झगड़े होते हैं न  फ़िल्म देखने को वैसी गुज़ारिश करनी पड़ती है. सब कुछ कंप्यूटर की एक क्लिक पर मौजूद है. पर सब कुछ आसानी से पा कर भी आज वो ख़ुशी नहीं मिलती जो पहले झगड़ने और मनाने के बाद पाकर मिलती थी. पहले जो गुस्सा सुबह जल्दी जगा दिए जाने पर आता था आज वो खुद के देर तक सोते रहने पर आता है. सब बदल गया है, पर हम...?  उफ़्फ़ !! जाने हम चाहते क्या हैं ! रविवार या सन्डे ?

Comments

  1. समझदार होकर हमने अपना लड़कपन खो दिया है



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  2. samay ke sath sab badal jata hai.....or ye bhi ussi badlav me saamil hai....jo chahata koi nai par hota jarur hai....

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  3. रविवार सण्डे में नहीं बदला है, बचपन जवानी में तब्दील हो गया है

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  4. सही कह रही हो आप .
    .अब पहले जैसे इतवार नही होते
    क्युकी दिलो में पहले जैसे प्यार नही होते
    कह तो देते हैं सब मिस यू आल
    पर अब सबके साँझा संसार नही होते

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