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पुरानी रौशनी के पार...

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तस्वीर: प्रदीपिका सारस्वत मैं जब भी अपने लिए कुछ लिखने बैठती हूं तो बड़ी कोफ्त होती है जब मेरा वाक्य मैं से शुरू हो रहा होता है. इस मैं को मिटा देने की तमाम कोशिशों के बाद भी मैं ऐसा नहीं कर पाती. और तब मैं खुद को घुटनों पर सर रखे, शून्य में ताकते, मुस्कुराते देखती हूं. उस मुस्कुराहट की रौशनी में पढ़ी जा सकने वाली इबारत कहती है कि ‘ मैं शायद समस्या है ही नहीं. मैं को तवज्जो देना समस्या है. मैं अगर है तो उसे रहने दो, जैसे ये कमरा है, कुर्सी है, किताब है. उसके होने पर इतना शोरगुल क्यों ? यू शुड मेक पीस विद ‘ आइ. ’’ ठीक. कुर्सी पर बैठकर सिखती हुई मैं, सामने घुटनों पर सर रखे शून्य में देखकर मुस्कुराती मैं के सामने सर झुका कर मान लेती हूं. मैं देखती हूं कि मैं कभी खुद का, तो कभी कुछ अपने जैसों का हाथ पकड़ कर खुद को वहां ले जा सकती हूं जहां बताया जाता रहा है कि रौशनी नहीं पहुंची है. उन नियमों के पार जहां विज्ञान जाने की कोशिश में तो है, पर उसे वहां पहुंचने में अभी समय लगेगा. आप तब तक कहानियों में विश्वास नहीं करते जबतक आप कहानियां जीने नहीं लगते. आप विज्ञान पर भी तब तक यकीन नहीं