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Showing posts from March, 2015

विकास का बदरंग लॉलीपॉप

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विकास का बदरंग लॉलीपाप इन दिनों , चाहे रेल बजट हो या आम बजट , चुनावी वादे हों या बाद की घोषणाएं , वाई फाई एक ऐसा लॉलीपाप बन चुका है जिसे सभी देश की जनता को थमा देना चाहते हैं. कुछ इस तरह जैसे नए कपड़े या जूते की जिद करते नादान बच्चे का ध्यान एक समझदार माँ टॉफी , चौकलेट दिला कर भटका देती है.   आज़ादी के अड़सठ साल बाद भी देश की मुख्य समस्याएँ स्वच्छ पेयजल , आवास , सड़क एवं परिवहन , शिक्षा और रोज़गार ही हैं. महिला सुरक्षा , आदिवासी हितों और किसान आत्महत्याओं की तो बात ही न उठे तो बेहतर है. ऐसे में वाई फाई का लॉलीपॉप कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है. डिजिटल डिवाइड को कम करने या मोबाइल डेंसिटी बढ़ाने की कोशिशें गलत नहीं हैं. पर इससे कहीं अधिक  महत्वपूर्ण और मूलभूत आवश्यकताओं की कीमत पर ये कोशिशें कितनी सही हैं , यह सोचने का विषय है. ऐसा नहीं है कि बाकी समस्याओं और आवश्यकताओं पर योजनायें नहीं बनतीं. योजनायें हर बजट के साथ आती हैं पर उनका सही क्रियान्वन और उस क्रियान्वन का निष्पक्ष मूल्यांकन देखने को नहीं मिलता. संसद में हो-हल्ला करते हुए हिंसक हो उठने

मेरे शहर में चाँद

मेरे शहर में चाँद उतरता तो है हर शाम घाट की सीढ़ियों से छूता है माँ के पाँव और दौड़ जाता है उस पार की ठंडी रेती पर रामनगर की ओर कि अब अस्सी पर जी नहीं लगता बदल रहा है सब घाट और नाव भी गर्मी भी अलाव भी और वो दोस्तों का जमघट भी अब नहीं लगता कि जाना पहचना कोई चेहरा अब नहीं दिखता पर दौड़ता हुआ चाँद रुकता है पलटता है इस इंतज़ार में कि लौट आयेंगे रोज़ी की तलाश में बिछड़े वो सब नौजवान जिन्हें प्यार है गंगा किनारे की ठंडी रेती से, घाट पर चढ़ती उतरती हर सीढी से शहर की गली से, चौक से, घर से यहाँ की हवा में घुली सांड और गोबर की गंध से लस्सी की, चाट की सुगंध से, भांग के, मलैय्यो के रंग से चाँद की आँख से बह उठती है ओस और कई मील दूर धडकते हैं कई दिल कारखाने की मशीनों से कहीं तेज़ और दिलों में बैठा बनारस मचल उठता है रूठे हुए चाँद को मना लाने के लिए तड़प उठते हैं कई दिल घर आने के लिए

मार्कंडेय उवाच : गाँधी, काटजू और पत्रकारिता

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मार्च उन दिनों से ही मेरा पसंदीदा माह रहा है जब में स्कूल में थी. मार्च में होने वाली स्कूली परीक्षाएं हों या सुहाना मौसम, मुझे दोनों से ही बराबर प्यार रहा है. हाँ सचमुच, मुझे एक विद्यार्थी के तौर पर साल भर पढाई करना ज़रा भी पसंद नहीं आता था पर परीक्षाएं मुझे हमेशा अच्छी लगती थीं. शायद इसलिए कि परीक्षाएं बाकी लोगों से खुद को बेहतर साबित करने का सुनहरा मौका होती थीं. और हाँ, मार्च के महीने में मेरी क्रिएटिविटी भी बेहतर हो जाती है, शायद मौसम के असर से. मुझे लगता है काटजू साहब के साथ भी कुछ ऐसा ही रहा है. तभी तो इस महीने उनकी क्रिएटिविटी भी काफी उफान पर है और साथ ही बिना परीक्षा के भी खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश की जुगत भी उन्होंने भिड़ा ली है. हाँ, मैं मार्च 10, 11 और 12 को लिखे उनके ब्लॉग की ही बात कर रही हूँ. दस तारीख को उन्होंने दो पोस्ट लिखीं   'गाँधी- अ ब्रिटिश एजेंट' और 'द रियल फ़ादर ऑफ़ द इंडियन नेशन'. 11 को उन्होंने दो और पोस्ट लिखीं, एक अपनी गाँधी सीरीज को आगे बढ़ाते हुए, 'हियर इज़ द ' फ़ादर' ऑफ़ योर नेशन' और दूसरी राज्य सभा में उनके खिलाफ

महिला दिवस और मैं

चार रोज़ पहले साल का तीसरा महीना, यानी मार्च कैलेंडर पर चढ़ चुका है और ठीक चार रोज़ बाद की एक ख़ास तारीख़ का इंतज़ार आधी आबादी कर रही है. हाँ, मैं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की ही बात कर रही हूँ. हमें महिला दिवस की ज़रुरत क्यूँ है या इस दिन का एक आम महिला की ज़िन्दगी में क्या अर्थ होता है, इस बारे में बहुत बातें हो चुकीं.  इस बार मैं बात करना चाहूंगी अपने बारे में. कल रात नौ बजे जब मैं अपने दो सहकर्मियों के साथ एक ढाबे पर खड़ी रात का खाना पैक करवा रही थी, न चाहते हुए भी मुझे सुबह के अखबार में पढ़ा  16 दिसम्बर 2012 दिल्ली गैंग रेप के एक अपराधी मुकेश सिंह और उसके वकीलों का  बयान याद आ गया. माननीय वकील एम एन शर्मा के अनुसार लड़की और लड़का दोस्त नहीं हो सकते, लड़की को रात साढ़े सात बजे के बाद घर से नहीं निकलना चाहिए. यही हमारी संस्कृति है. यह सबसे अच्छी संस्कृति है और इसमें महिलाओं के लिये कोई जगह नहीं है. जनाब ए पी सिंह कहते हैं कि मेरी बहन या बेटी अगर शादी से पहले किसी पुरुष से दोस्ती रखती और अपना चरित्र ख़राब करती तो मैं उसे अपने फार्म हाउस पर ले जाकर सार परिवार के सामने उसपर पेट्रोल डाल कर आग लग

अर्जुन से द्रोण तक

बात तो ये है कि ना मैं कभी अर्जुन थी ना आज द्रोण हूँ. बात बस इतनी सी है कि कल तक कुछ स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते हुए जाने क्या क्या कर जाने के सपने देखा करती थी और आज एक कॉलेज में पढ़ाते हुए यंगिस्तानियों की एक नई फसल को कुछ वैसे ही सपने दिखा रही हूँ. तो अब आप पूछेंगे  कि ये द्रोण और अर्जुन किस बोतल से बहार आये. धीरज रखिये, सब बताती हूँ. हुआ ये कि मेरी ग्रेजुएशन क्लास में एक स्टूडेंट है दीपक ढ़ोंडियाल. पहाड़ी है और पैदाइशी जर्नलिस्ट है. हाँ, कविता लिखने की बीमारी भी है, बचपने से ही. क्लास में जो पढाया जाता है, ध्यान से सुनता है. असाइनमेंट मन से करता है, साथियों की मदद भी कर देता है. और क्या चाहिए एक शिक्षक को. सोने पे सुहागा ये कि हाल ही में उसने अपना पहला ब्लॉग लिखा जिसे मैंने अपने फ़ेसबुक के ब्लॉगर ग्रुप में शेयर किया. एक जर्नलिस्ट मित्र का कमेंट आया " शुरुआत और अंत बहुत अच्छा है. वैसे स्टूडेंट ने जैसा लिखा है वैसा कई स्थापित पत्रकार भी नहीं लिख पाएंगे. बधाई इतना योग्य स्टूडेंट पाने के लिए, द्रोणाचार्य को अर्जुन मिले तो ये दोनों का भाग्य है " अब आप ही बताइए कि कौन शिक्षक खुश न