अर्जुन से द्रोण तक
बात तो ये है कि ना मैं कभी अर्जुन थी ना आज द्रोण हूँ. बात बस इतनी सी है कि कल तक कुछ स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते हुए जाने क्या क्या कर जाने के सपने देखा करती थी और आज एक कॉलेज में पढ़ाते हुए यंगिस्तानियों की एक नई फसल को कुछ वैसे ही सपने दिखा रही हूँ. तो अब आप पूछेंगे कि ये द्रोण और अर्जुन किस बोतल से बहार आये. धीरज रखिये, सब बताती हूँ. हुआ ये कि मेरी ग्रेजुएशन क्लास में एक स्टूडेंट है दीपक ढ़ोंडियाल. पहाड़ी है और पैदाइशी जर्नलिस्ट है. हाँ, कविता लिखने की बीमारी भी है, बचपने से ही. क्लास में जो पढाया जाता है, ध्यान से सुनता है. असाइनमेंट मन से करता है, साथियों की मदद भी कर देता है. और क्या चाहिए एक शिक्षक को. सोने पे सुहागा ये कि हाल ही में उसने अपना पहला ब्लॉग लिखा जिसे मैंने अपने फ़ेसबुक के ब्लॉगर ग्रुप में शेयर किया. एक जर्नलिस्ट मित्र का कमेंट आया " शुरुआत और अंत बहुत अच्छा है. वैसे स्टूडेंट ने जैसा लिखा है वैसा कई स्थापित पत्रकार भी नहीं लिख पाएंगे. बधाई इतना योग्य स्टूडेंट पाने के लिए, द्रोणाचार्य को अर्जुन मिले तो ये दोनों का भाग्य है " अब आप ही बताइए कि कौन शिक्षक खुश न होगा ऐसी प्रतिक्रिया पा कर.
मैं खुश हूँ, मेरा खुश होना लाज़िमी भी है. पर ये सा* एथिक्स बीच में आ जाते हैं. एक सवाल जो कभी मेरे स्कूल और कॉलेज के दिनों में सामने आया करता था ( ख़ास तौर पर तब, जब मैं उन फेवरेट स्टूडेंट्स की लिस्ट में शामिल नहीं हुआ करती थी) कि क्या एक टीचर के फेवरेट स्टूडेंट्स होने चाहिए, एक बार फिर सामने आ जाता है. मुझे लगता है कि दूसरों से ज़्यादा मेहनत करने वाले बच्चे शिक्षक का स्पेशल अटेंशन डिज़र्व करते ही हैं. जिनके पास ख़ास प्रतिभाएं होती हैं उनपर ख़ास ध्यान देना शिक्षक की नैतिक ज़िम्मेदारी हो जाती है. पर ऐसा नहीं होना चाहिए कि शिक्षक इस नैतिक ज़िम्मेदारी के चलते बाकी स्टूडेंट्स में असंतोष फैल जाये या वे डीमोटीवेट हो जाएँ.
इस तरह के असंतोष पर मुझे मेरे पिता का लिखा हुआ एक पत्र याद आता है जिसमें उन्होंने मेरा और मेरी बहन का ज़िक्र करते हुए लिखा था, " तुम और दीपू मेरी दो आँखें हो, दोनों में जो ज्यादा चमकदार होगी वही मुझे अधिक प्रिय होगी." इसे पढ़कर मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि आप कैसे अपनी दो आँखों में ज्यादा चमकदार को प्रिय कह सकते हैं, जबकि आपको कम चमकदार आँख का ज्यादा ख्याल रखना चाहिए, और देखना चाहिए कि वह कम चमकदार क्यूँ है, आख़िर है तो आपकी ही की आँख. खैर, उस दिन तो मुझे उनके उस विचार का औचित्य समझ नहीं आया था पर आज यह ज़रूर समझ आता है कि फेवरेटिज़्म इंसानी फ़ितरत का एक बुनियादी हिस्सा है. द्रोण ने भी तो फेवरेट अर्जुन को सबसे आगे रखने के लिए एकलव्य का अंगूठा मांग लिया था.
फ़िलहाल अच्छा लग रहा है उस रोल में खुद को देखना जिस रोल में कल तक मेरे टीचर्स, मेरे गाइड्स हुआ करते थे. अपने स्टूडेंट्स की मदद करना, उनकी प्रतिभाओं को तराशने के लिए न सिर्फ़ उन्हें समझना व समझाना बल्कि न चाहते हुए भी उन्हें डांटना, सज़ाएं देना, कुल मिला कर यह एक बहुत ही अलग तरह का अनुभव है.
मुझे भी अपने विद्यार्थी जीवन से बहार आये हुए अभी बहुत वक़्त नहीं हुआ है, तो ऐसे में एक यंग क्लास का हिस्सा बनाना और भी रोचक हो जाता है, चाहे उसमे मेरी जगह पोडियम के पीछे ही क्यूँ न हो. स्टूडेंट्स की शैतानियाँ, नया नया रोमांस, काम न करने के उनके झूठे बहाने सब कुछ नोट करती हूँ और अपने कॉलेज के दिन याद करते हुए मुस्कुराती हूँ. कल तक अपनी क्लास में जिन शरारतों को अंजाम देते वक़्त मैं अपने टीचर्स से डरती थी, आज अपने स्टूडेंट्स की उन्हीं शरारतों को जान कर नज़र अंदाज़ कर जाती हूँ.
रोल बदल रहे हैं, वक़्त बदल रहा है. उम्मीद है कहानी भी बदलेगी. द्रोण के पास एक अर्जुन था, मैं चाहूंगी मुझे एक नहीं कई अर्जुन मिलें.
मैं खुश हूँ, मेरा खुश होना लाज़िमी भी है. पर ये सा* एथिक्स बीच में आ जाते हैं. एक सवाल जो कभी मेरे स्कूल और कॉलेज के दिनों में सामने आया करता था ( ख़ास तौर पर तब, जब मैं उन फेवरेट स्टूडेंट्स की लिस्ट में शामिल नहीं हुआ करती थी) कि क्या एक टीचर के फेवरेट स्टूडेंट्स होने चाहिए, एक बार फिर सामने आ जाता है. मुझे लगता है कि दूसरों से ज़्यादा मेहनत करने वाले बच्चे शिक्षक का स्पेशल अटेंशन डिज़र्व करते ही हैं. जिनके पास ख़ास प्रतिभाएं होती हैं उनपर ख़ास ध्यान देना शिक्षक की नैतिक ज़िम्मेदारी हो जाती है. पर ऐसा नहीं होना चाहिए कि शिक्षक इस नैतिक ज़िम्मेदारी के चलते बाकी स्टूडेंट्स में असंतोष फैल जाये या वे डीमोटीवेट हो जाएँ.
इस तरह के असंतोष पर मुझे मेरे पिता का लिखा हुआ एक पत्र याद आता है जिसमें उन्होंने मेरा और मेरी बहन का ज़िक्र करते हुए लिखा था, " तुम और दीपू मेरी दो आँखें हो, दोनों में जो ज्यादा चमकदार होगी वही मुझे अधिक प्रिय होगी." इसे पढ़कर मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि आप कैसे अपनी दो आँखों में ज्यादा चमकदार को प्रिय कह सकते हैं, जबकि आपको कम चमकदार आँख का ज्यादा ख्याल रखना चाहिए, और देखना चाहिए कि वह कम चमकदार क्यूँ है, आख़िर है तो आपकी ही की आँख. खैर, उस दिन तो मुझे उनके उस विचार का औचित्य समझ नहीं आया था पर आज यह ज़रूर समझ आता है कि फेवरेटिज़्म इंसानी फ़ितरत का एक बुनियादी हिस्सा है. द्रोण ने भी तो फेवरेट अर्जुन को सबसे आगे रखने के लिए एकलव्य का अंगूठा मांग लिया था.
फ़िलहाल अच्छा लग रहा है उस रोल में खुद को देखना जिस रोल में कल तक मेरे टीचर्स, मेरे गाइड्स हुआ करते थे. अपने स्टूडेंट्स की मदद करना, उनकी प्रतिभाओं को तराशने के लिए न सिर्फ़ उन्हें समझना व समझाना बल्कि न चाहते हुए भी उन्हें डांटना, सज़ाएं देना, कुल मिला कर यह एक बहुत ही अलग तरह का अनुभव है.
मुझे भी अपने विद्यार्थी जीवन से बहार आये हुए अभी बहुत वक़्त नहीं हुआ है, तो ऐसे में एक यंग क्लास का हिस्सा बनाना और भी रोचक हो जाता है, चाहे उसमे मेरी जगह पोडियम के पीछे ही क्यूँ न हो. स्टूडेंट्स की शैतानियाँ, नया नया रोमांस, काम न करने के उनके झूठे बहाने सब कुछ नोट करती हूँ और अपने कॉलेज के दिन याद करते हुए मुस्कुराती हूँ. कल तक अपनी क्लास में जिन शरारतों को अंजाम देते वक़्त मैं अपने टीचर्स से डरती थी, आज अपने स्टूडेंट्स की उन्हीं शरारतों को जान कर नज़र अंदाज़ कर जाती हूँ.
रोल बदल रहे हैं, वक़्त बदल रहा है. उम्मीद है कहानी भी बदलेगी. द्रोण के पास एक अर्जुन था, मैं चाहूंगी मुझे एक नहीं कई अर्जुन मिलें.
Superb..!
ReplyDeleteThanks Jitendra :)
Deleteसराहनीय
ReplyDeleteShukriya Subhash Tripathi
Deleteबहुत ख़ूब....सटीक बात लिखी है. द्रोण और अर्जुन की जुगलबंदी ने एकलव्य और कर्ण को समाज में अपनी प्रतिभा पर गर्व करने का मौका ही नहीं दिया.
ReplyDeleteThank you, Gaurav.
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