विकास का बदरंग लॉलीपॉप


विकास का बदरंग लॉलीपाप

इन दिनों, चाहे रेल बजट हो या आम बजट, चुनावी वादे हों या बाद की घोषणाएं, वाई फाई एक ऐसा लॉलीपाप बन चुका है जिसे सभी देश की जनता को थमा देना चाहते हैं. कुछ इस तरह जैसे नए कपड़े या जूते की जिद करते नादान बच्चे का ध्यान एक समझदार माँ टॉफी, चौकलेट दिला कर भटका देती है. 

आज़ादी के अड़सठ साल बाद भी देश की मुख्य समस्याएँ स्वच्छ पेयजल, आवास, सड़क एवं परिवहन, शिक्षा और रोज़गार ही हैं. महिला सुरक्षा, आदिवासी हितों और किसान आत्महत्याओं की तो बात ही न उठे तो बेहतर है. ऐसे में वाई फाई का लॉलीपॉप कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है. डिजिटल डिवाइड को कम करने या मोबाइल डेंसिटी बढ़ाने की कोशिशें गलत नहीं हैं. पर इससे कहीं अधिक  महत्वपूर्ण और मूलभूत आवश्यकताओं की कीमत पर ये कोशिशें कितनी सही हैं, यह सोचने का विषय है.

ऐसा नहीं है कि बाकी समस्याओं और आवश्यकताओं पर योजनायें नहीं बनतीं. योजनायें हर बजट के साथ आती हैं पर उनका सही क्रियान्वन और उस क्रियान्वन का निष्पक्ष मूल्यांकन देखने को नहीं मिलता. संसद में हो-हल्ला करते हुए हिंसक हो उठने के लिए बदनाम जन-प्रतिनिधि इन विषयों पर बात करते बमुश्किल ही सुने जाते हैं.

यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट में दर्शाए 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर यकीन किया जाय तो 70.6 प्रतिशत शहरी पीने के लिए टैप वाटर का प्रयोग करते हैं, जिसमें से सिर्फ़ 60.2 प्रतिशत घरों को मिलने वाला पानी ही ट्रीटेड होता है. 4.5 प्रतिशत लोग आज भी बिना ढके कुँए का पानी पीने पर मजबूर हैं. क्या यह राष्ट्रीय महत्व का विषय नहीं है? क्या इस पर त्वरित स्तर पर काम नहीं होना चाहिए.

इसी तरह एक प्लेट खाने की न्यूनतम कीमत पर बहस कर सुर्खियाँ बटोरने वाले, देश की सबसे सस्ती कैंटीन के उपभोक्ताओं का फ़ूड सिक्यूरिटी के नाम पर एंटाइटलमेंट स्कीम्स से आगे का कोई ख़ास विज़न नहीं दिखाई देता. वेतन भत्ते बढ़ाने और स्विस खातों की सूचि सार्वजनिक किये जाने के नाम पर एक हो जाने वाले ये महानुभाव कभी यह क्यों नहीं पूछते कि आख़िर कब तक फ़ूड सिक्यूरिटी का मतलब सब्सिडी वाले मोटे चावल तक ही सीमित रहेगा?

बात अगर भोजन और पानी से आगे बढती है तो आवास, शिक्षा और नौकरी तक पहुँचती है. आवास पर भारत सरकार की जनगणना का डेटा प्रदर्शित करने वाली वेबसाइट के रुख में खासा विरोधाभास नज़र आता है. एक ओर जहाँ वेबसाइट कहती है कि देश के 37 प्रतिशत घरों में सिर्फ़ एक ही रहने योग्य कमरा है वहीँ दूसरी ओर यह भी बताती है कि 97 प्रतिशत घर अच्छे हैं और रहने योग्य हैं. यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या उन घरों को अच्छा और रहने योग्य माना जा सकता है जहाँ पूरे परिवार के लिए सिर्फ़ एक ही कमरा हो? फिर झुग्गियों और मलिन बस्तियों की तो बात ही क्या की जाय.

शिक्षा के वर्तमान हालत किसी से छिपे नहीं हैं, फिर चाहे प्राथमिक शिक्षा हो या उस से आगे की. स्कूली शिक्षा को तीन भागों में बाँटा जा सकता है. पहला भाग सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का, दूसरा मध्य वर्गीय पब्लिक स्कूलों का और तीसरा भाग महंगे कान्वेंट स्कूलों का जहाँ सिर्फ़ अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा दी जाती है. देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को सिर्फ़ पहले या दुसरे भाग के विद्यालयों तक भेजने की ही आर्थिक सामर्थ्य रखता है. इन विद्यालयों के मौजूदा हालात पर अगर लिखना ही हो तो कितने टन कागज और कितने गैलन स्याही खर्च होगी इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है. पर बात यहाँ लिखने की नहीं है, बात है उन बच्चों के भविष्य की जो इन विद्यालयों में पढ़ तो रहे हैं पर न तो इन्हें एक अच्छी इमारत, शौचालय, पीने का साफ़ पानी जैसी बुनियादी  सुविधाएँ मिलतीं हैं न ही ज़िम्मेदार शिक्षक. ज़िम्मेदार शिक्षक तो क्या इन्हें पूरे शिक्षक तक नहीं मिल पाते. न जाने कितने विद्यालय एक –एक, दो-दो शिक्षकों के रहमोकरम पर चल रहे हैं. उदहारण के लिए मध्य प्रदेश के मंडला जिले के एक प्राथमिक स्कूल को बारहवीं पास करने के बाद एजुकेशन में डिप्लोमा कर रहा, संविदा पर कार्यरत एक शिक्षक चला रहा है.

और यह हाल सिर्फ़ एक स्कूल का नहीं अधिकतर स्कूलों का है. जिन विद्यालयों में एक से अधिक शिक्षक होते भी हैं वे भी आधे समय अवकाश पर रहते हैं और बचे समय में सरकारी विभिन्न योजनाओं के लिए किसी न किसी प्रकार के प्रलेखन में व्यस्त रहते हैं. विद्यार्थियों को यदि पूरा समय नहीं दिया जायेगा, शिक्षण कार्य यदि पूरी ज़िम्मेदारी से नहीं किया जाएगे तो फिर गलाकाट प्रतियोगिता के इस समय में बिहार जैसी घटनाएँ तो होंगी ही.

स्कूली शिक्षा की नींव जब कमज़ोर हो तो विद्यार्थी का पूरा भविष्य अधर में रह जाते है और ऐसे में तैयार हो जाती है नौजवानों की एक ऐसी भीड़ जो सिविल सर्विसेज़ से लेकर क्लर्की तक के सारे एक्ज़ाम देती है और उम्र निकल जाने पर छोटी मोटी प्राइवेट नौकरी तक सिमट कर रह जाती है.
शिक्षा के बाद परिवहन की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं. देश भर की सड़कें और उन पर चलने वाली बसें एक अरसे से किसी बड़े बदलाव की बाट जोह रही हैं. वाई फाई लाने और बुलेट ट्रेन चलाने के सुहाने वादे करती सरकारों को सरकारी बसों और सड़कों की खस्ता हालत क्यूँ नहीं नज़र आती यह एक यक्ष प्रश्न से कम नहीं है. रेलवे का भी कुछ ऐसा ही हाल है. कभी भी समय पर न पहुँचने के लिए भारतीय रेल की मिसाल दी जाती है. परिवहन का हाल ऐसा है कि होली दिवाली जैसे त्योहारों पर घर जाने के लिए एक आम भारतीय को नाकों चने चबाने पड़ जाते हैं. न तो अपने शहर तक की कोई सीधी बस मिलती है, न रेल की प्रतीक्षा सूचि छोटी होती दिखाई देती है. एक आम भारतीय अभी इतना समृद्ध हुआ नहीं है कि साल में दो बार तथाकथित ‘कैटल’ क्लास में ही सही, हवाई सफ़र कर सके.


ऐसे में देश व प्रदेश सरकारों को नित नए लॉलीपॉप का अविष्कार करने की बजाय देश बुनियादी ज़रूरतों पर ध्यान देना होगा. न सिर्फ़ पूरा किये जा सकने वाले लक्ष्य और योजनायें बनानी होंगी बल्कि उन के क्रियान्वन और मूल्यांकन पर भी कार्य करना होगा. वरना लोक लुभावन वादे करने वाली सरकारें आती जाती रहेंगी और देश विकासशीलता का जामा पहन कर विकास के चौराहे पर मुंह बाए खड़ा रहेगा.

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