रामनगर की रामलीला

कल रामनगर की रामलीला देखने का प्रस्ताव पास हुआ. आज क्लास के बाद आ कर एक नींद लेने का मन था पर दीपिका जी ने सारे अरमानों पर पानी फेरते हुए घोषणा की कि आज शाम रामनगर चला जायेगा. मैंने बारिश का हवाला देकर टालने की कोशिश की पर इस अतिथिसेवक  देश में अतिथियों का ही शासन चला है. (सोनिया जी बुरा न मानें, क्या है कि वो अब अतिथि नहीं हैं ना ) लिहाजा मुझे नींद का विचार त्याग कर रामनगर की ओर प्रस्थान करना पड़ा.

लंका पहुँचते पहुँचते इंद्र देव ने बनारस पर फिर से अपनी कृपा दृष्टि बरसा दी थी. कुछ देर बी एच यू गेट की शरण लेने के पश्चात जब बारिश थमती सी लगी हम रामनगर जाने वाले एक ऑटोरिक्शा में बैठ गए. मिट्टी और कीचड़ में डूबी सड़क पर जब ऑटो आगे बढ़ा तो लग रहा था जैसे हम चॉकलेट कि नदी में हिचकोले खा रहे हैं. सच कह रही हूँ बचपन की फेंटेसीज़ याद आ गयीं. ऑटो में होने का सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि आप दरवाज़े जैसी कोई रुकावट न होने से शहर कि फ़िज़ा को बड़े करीब से महसूस कर सकते हैं. ऐसा लगता है जैसे आप लोगों के घरों और दुकानों से हो कर निकल रहे हैं. खैर हम भी शहर का पूरा लुत्फ़ ले रहे थे. जगह जगह पान की दुकानों पर अपना और दूसरों का ज्ञान वर्धन करते लोग , नवरात्रि के अवसर पर चाइनीज़ लाइटों और बारिश के कीचड़ से सजे छोटे छोटे मंदिर, मिलावटी डीजल या शायद कैरोसिन आयल पी कर टल्ली हुए, काला, दम  घोंटता धुँआ छोड़ते ऑटोज़, ज़रुरत से ज़्यादा गला फाड़ कर हॉर्न बजातीं ऑटोरिक्शाज़ को उनकी औक़ात बताती कारें... कितना कुछ तो था देखने को...

सामने घाट से ज़रा आगे बढे तो देखा दो नंग धडंग तीन-चार साल के लड़के पतंग उड़ाने का अभिनय कर रहे थे. हाँ अभिनय, हाथ में पतंग का प भी नहीं और चेहरे तो देखिये उनके, क्या मुस्कान थी, एफिल टावर छू लिया हो जैसे, आँखे आसमान में पतंग के पीछे पीछे , ये गई कि वो गई... हाथ बाक़ायदा ढील दे रहे थे... जय हो गुरु !!  ये मज़ा, ये फ़ाक़ामस्ती तो बनारस में ही दिख सकती थी..खैर नज़ारे तो और भी थे पर हमें तो रामलीला का इंतज़ार था सो पहुच गए रामनगर, ऑटो में ही रोलर कोस्टर का मज़ा लेते हुए. हाँ हाँ, इतनी तत्परता से सवाँरी गई बनारस की सड़कें आपको इतना आनंद तो दिला ही सकतीं हैं ना!

रामलीला ग्राउंड पहुंचे तो हम मूर्खों को ये ज्ञान नहीं था कि रामनगर की रामलीला एक ही स्थान पर नहीं होती. ग्राउंड खाली पड़ा था. पता करने पर ज्ञात हुआ कि आज का कार्यक्रम पंचवटी पर है. पंचवटी जा ही रहे थे कि राजपरिवार कि बग्घियाँ लौटती दिखाई दीं. ऑटो चालक बताने लगा कि ये शाही बग्घियाँ हैं, राजपरिवार के सदस्यों को आयोजन स्थल तक छोड़ कर आ रही हैं. दीपिका को जाने क्या सूझा, पूछ बैठी कि यहाँ के राजा करते क्या हैं. चालक अवाक्! राजा क्या करते हैं? अरे वे तो राजा हैं, उन्हें क्या करने की ज़रुरत? आई मीन उनका सोर्स ऑफ इनकम...? अरे उनके पास पैसे की क्या कमी... वो इंदिरा गांधी ने राजाओं की संपत्ति ले ली थी न... इंदिरा गाँधी कौन होती है संपत्ति लेने वाली, वो तो खुद हमारे देश का पैसा विदेश में जमा कर रहीं है ले जाके... ऑटो वाला शायद भावुकता में इंदिरा और सोनिया में फ़र्क़ नहीं कर पा रहा था..

खैर हम पंचवटी पहुँच गए थे. सामने काफ़ी संख्या में पुलिसकर्मी दिखाई दे रहे थे और उनके आगे थे तीन शाही हाथी. हमें लगा रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के होंगे पर वे राजा एवं उनके परिवार के सदस्यों के थे. मुद्दा ये था कि आयोजन स्थल पर दर्शकों के बैठने की व्यवस्था न होने पर राजा आदि सम्मानित लोग हाथी पर बैठ कर ही राम लीला देखने वाले थे. अन्य साधारण ग्रामीण अपने साथ लकड़ी या लोहे का आसन साथ लाये थे. रामलीला स्थल पर पूरा मेला सजा हुआ था. छोटे -मोटे झूले, चाट की दूकानें, चाइनीज़ खिलौने, गुब्बारे सब कुछ था जो एक गाँव के मेले में आमतौर पर दीखता है.

ये सब नज़ारे दुर्लभ ही थे हम जैसों को तो सोचा कि कुछ तस्वीरें उतार ली जाएँ. पर ये क्या कैमरा निकालते ही एक ग्रामीण ने आदेश दिया 'नो कैमरा", विदेशी समझ रहा था शायद, थोडा साफ़ रंग और विदेशी परिधान पहने होने का यही नुक्सान होता है. कैमरा ऑफ ही किया था कि एक पुलिसकर्मी ने कहा फोटो लेना है ? ले लो, ले लो ! आगे बढ़ कर एक फ्रेम बनाने की कोशिश की तो दुसरे पुलिस कर्मी ने  टोक दिया 'नो पिक्चर अलाउड' उफ़!! जितने लोग उतने क़ायदे क़ानून, कैमरा नहीं तोप हो जैसे हाथ में.

खैर एक दो तस्वीरें लेकर हम आगे बढ़ गए. रामलीला शुरू हुई. एक ऊँचे अटारीनुमा मंच पर मंदोदरी रावण को समझा रही थी कि राम से बैर न मानने में ही उसकी भलाई है. पर रावणों ने कब मानी है. बिना माइक्रो फोन और लाऊड स्पीकर वाली इस रामलीला में ज्यादा सुनाई तो नहीं दे रहा था पर ग्रामीणों ने समझा दिया कि क्या दृश्य है. मंदोदरी की बात अनसुना कर रावण कचहरी की ओर चला. कचहरी का आयोजन महल से कुछ ही दूर दुसरे मंच पर था. इसी बीच महल से नंगे पांव कचहरी जाते निरीह से दीखते रावण की तस्वीर उतारने का अवसर भी मिला. बाकियों को कैमरा से चाहे जो दिक्कत हो, रावण जी काफी कैमरा फ्रेंडली थे.

कचहरी एक तो यूँ ही बहुत साधारण सी थी,   दूसरे बिना किसी परदे के रावण का दर्शकों के बीच से आना और भरी शरीर के चलते  बमुश्किल सिंहासन तक जा पाना उसे और भी गरिमाहीन कर रहा था. उस पर भी  संदेशवाहक का संबोधन 'एsss महाsssराsssज', बेचारे रावण की सारी रावणई ख़त्म.

रावण की इस दुर्दशा को कैमरे में कैद कर ही रही थी कि दरबान के कॉस्टयूम जैसा कुछ पहने एक महानुभाव पास आए ओर आवाज़ में ज़ोर लाकर अंग्रेजी में चिल्लाए 'नो कैमरा' 'कैमरा क्लोज़' फिर से उन्हें हमारी राष्ट्रीयता पर शक हुआ. यहाँ तक तो ठीक था पर आगे की बात... 'हरामी लोग हराम का कैमरा ले के आजाते हैं..' बस बर्दाश्त के बाहर था ये तो... 'ये सब नहीं बोलेंगे आप' उबल पड़ी मैं भी...मेरे मुंह से मातृभाषा सुन घबरा गए दरबान अंकल. मैं कुछ और कहती इस से पहले भागते ही नज़र आये.

दिल खट्टा हो गया. उठ गए हम दोनों वापस आने के लिए. अँधेरा भी होने लगा था. शहर का डीफोर्मेड मैसकुलिन कैरेक्टर डरा रहा था. शुक्र है बहार निकलते ही ऑटो मिल गया. ऑटो चला ही था कि दीपिका ने दूसरी ओर देखने का इशारा किया. मैंने देखा, आठ-दस साल की उम्र के चार-पांच लड़के लाइन से सड़क किनारे खड़े होकर अपने पितरों का तर्पण कर रहे थे. क्या कहूँ इस पर...?  यही ना कि, एsss महाsssराsssज,  पेट्रिआर्की के ठेकेदारों की नई फसल तैयार हो  रही  है.

Comments

  1. कुछ पढ़ रहा हूँ ऐसा नहीं लगा ऐसा लगा जैसे मैं भी साथ ही था । रोचक संस्मरण , अच्छे से गुहा गया ..:)

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    1. शुक्रिया 'अर्थहीन'

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  2. Nice one! BTW i thought it's a narration but the last paragraph gave it a signature. Nice sense of humor in the first para.. I think you have got a regular reader now. So, looking forward for the next one.

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    1. Thank you Mr. Chatterjee! I ll try to stand up to my reader's expectations.

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  3. गजब का बहाव ..... सबकुछ बरसाती नदी सा बेधड़क ...कहीं कोई रुकावट, कोई फास नहीं.... एक दो व्याकरणिक अशुद्धियाँ पर इस बहाव में वो भी अलमस्त बहती हुयी ..... जब से पढ़ रहा हूँ तुम्हे हर लिखावट पहले से मंजी हुयी ...हर अक्षर पहले से सुलझे हुए ...... हर भाव पहले से ज्यादा मुखर .....

    सच कहूँ तो मजा आ रहा है तुम्हे पढ़ कर .... हर बार पहले से कुछ ज्यादा हीं ......

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  4. एक जिज्ञासा है .... क्या सच में ' हरामी लोग हराम का कैमरा ले के आजाते हैं..' ऐसा कहा गया था ? ..... और अंतिम पंक्ति में आप पूर्वाग्रह से थोड़ी ग्रस्त लगीं । कल ही कहना चाहता था पर संकोच वश नहीं कहा लेकिन फिर सोचा पाठक को प्रतिक्रिया देने में संकोच नहीं करना चाहिए ... आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगी ।

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    1. जी हाँ, बिलकुल वही शब्द कहे गए थे और मैं सुनकर स्तब्ध थी.
      किस तरह का पूर्वाग्रह, स्पष्ट करिए तो कुछ समझ पाऊँगी.

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    2. मैं भी स्तब्ध हूँ आखिर ' नो कैमरा ' कहने वाला कैमरे और कैमरा थामने वाले के सन्दर्भ में ऐसा कैसे कह सकता है । --------------------
      संस्मरण में पितरों के तर्पण से आपका आशय क्या है ?
      यदि सार्वजनिक स्थल पर मूत्र विसर्जन से है तो प्रसाधन स्थल प्रसाधन संस्कारों का अभाव उसका कारण है न कि कुसंस्कार ... इस पर ये कहना कि " ईव टीज़र्स, रेपिस्टों और पैट्रिआर्की के ठेकेदारों की नई फसल तैयार हो  रही  है । " उचित नहीं है ।

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    3. किस आभाव की बात कर रहे हैं आप? प्रसाधन एक बड़ी समस्या इसलिए है क्योंकि वह हमारे समाज की प्राथमिकता नहीं है, ठीक उसी तरह जिस तरह महिलाओं को पुरुषों के सामान समझना इस समाज की प्राथमिकता नहीं है. यदि मान भी लिया जाये कि प्रसाधन नहीं है तब भी वह पवित्र कार्य इस तरह खुले आम सड़क पर किया जाता है वह समझ से बाहर है. इतना ही कहूँगी कि ये छोटी छोटी चीजें समाज को उसकी वास्तविकता बताती हैं.

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    4. मैं पुनः स्पष्ट करे दे रहा हूँ ... मेरी आपत्ति सिर्फ आपकी अंतिम पंक्ति को लेकर है । प्रसाधन स्थलों , प्रसाधन संस्कारों का अभाव एक समस्या है और इस समस्या से ग्रस्त लोगों के प्रति " ईव टीज़र्स, रेपिस्टों और पैट्रिआर्की के ठेकेदार " जैसे पूर्वाग्रह रखना उचित नहीं है । अभावों में जी रहा हर व्यक्ति अपराधी चरित्रहीन नहीं होता । साथ ही खुले में प्रसाधन की समस्या पर आपके समान ही गंभीर हूँ । और हाँ हर बात में समाज का रोना छोडिये । Society is a big word , Change begins from I , YOU and WE ...रावण के दस चेहरों पर राम का एक ही चेहरा भारी था ... :) .

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  5. ise padke laga ki mano main hi banaras ke is yatra ka anand le raha hun, Dhanyavad is jivant chitran ke liye :)

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  6. शब्दों के उचित संयोजन का अभाव है जिससे पूरी गतिविधि अनाकर्षक लगती है, पहला पैरा में उद्धृत वयंग्य में पैनेपन का अभाव है, कीचड़ को "चॉकलेट के नदी" हास्यास्पद लग रहा है, तीसरा पैरा ग्रेट है, ऑटो चालक से राजा के बारे में उस तरह का प्रश्न पूछना बिलकुल ही युक्तिसंगत नहीं है, नौवें पैरा में व्यंजित लेखिका के क्रोध में भी आक्रोश का अभाव नजर आ रहा है | अंतिम पैरा बहुत खूबसुरत है | कुल मिलाकर पूरी रचना पढने से ये कतई नहीं लगता कि ये वही लेखिका है जिन्होंने "नीला अम्बर नदी समंदर" और "देहाती नहीं सिर्फ औरत" जैसी प्रभावशाली और आकर्षक रचनाएं रची है |

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  7. waah.waah.. ekdum hubahu bayaan kiya hai.. kamal ka likhti hain!! Mazaaaa aa gaya.

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