ये जो बारिश है...
आज सुबह से ही पानी बरस रहा है बनारस में. दिल्ली में भी बरसा था कल. सुना है कि कोई चक्रवात आया है थाईलैंड से. फैलिन, हाँ यही नाम बता रहे हैं लोग. एन दशहरे के मौके पर आया है, रावण की तरह. रावण! बुराई का प्रतीक!!
समझ नहीं आता कि साल में एक दिन रावण का पुतला जला देने से कौन सी बुराई पर विजय प्राप्त कर ली जाती है. यह भी समझ नहीं आता कि आखिर हम सांप निकल जाने के बाद लक़ीर को क्यूँ पीटते रहना चाहते है... यह भी नहीं कि हम परम्पराओं के नाम पर इतने जड़ क्यूँ हो जाते हैं, क्यों इनका महत्व भूल कर सिर्फ़ प्रतीकों पर हो हल्ला करते हैं? मुझे तो खैर बहुत कुछ समझ नहीं आता पर बात यहाँ मेरी नहीं है, प्रतीकों की है .
मैं इस बारे में ज्ञान नहीं दूंगी कि क्यूँ नहीं हम रावण के पुतले को जलाने की बजाय अपने अन्दर की बुराइयों को ख़त्म करते. मैं बस ये समझने कि कोशिश कर रही हूँ कि इन प्रतीकों के मूल को भूल जाना कहाँ तक उचित है?
कल दुर्गा पूजा के पंडाल में भी गई थी मैं. यहीं मधुबन में ही लगा था. पहली बार देख रही थी दुर्गा पूजा. दुर्गा की बड़ी सी मूर्ति, वो बड़ी बड़ी आँखों वाली, देखती ही रह गई कुछ देर तक...
तेज था मूर्ति के मुख पर, आँखों में, उसकी मुद्रा में. दुर्गा की प्रतीक! पंडाल में बहुत भीड़ थी. भीड़ में लड़कियां भी थीं, महिलाएं भी. अपने आपको भीड़ से बचाती सीं. मैंने वह तेज ढूँढने की कोशिश की, उनके चेहरे पर, उनकी आँखों में, उनकी मुद्रा में. निराशा ही हाथ लगी.
प्रतीक एक निर्जीव पुतला या मूर्ति ही क्यूँ? जीते-जागते तुम और मैं क्यूँ नहीं?? सोचना!!
ये पानी जो बरस रहा है बाहर. ये भी एक प्रतीक है. निरंतरता और बदलाव का. आदि काल से बरस रहा है. अनंत तक बरसेगा. पर हमेशा नया... हर बूंद अनछुई... वक़्त के साथ साथ चलती. क्यूँ ना हम भी वक़्त के साथ ही चल सकें? ...और हमारे प्रतीक भी ?
समझ नहीं आता कि साल में एक दिन रावण का पुतला जला देने से कौन सी बुराई पर विजय प्राप्त कर ली जाती है. यह भी समझ नहीं आता कि आखिर हम सांप निकल जाने के बाद लक़ीर को क्यूँ पीटते रहना चाहते है... यह भी नहीं कि हम परम्पराओं के नाम पर इतने जड़ क्यूँ हो जाते हैं, क्यों इनका महत्व भूल कर सिर्फ़ प्रतीकों पर हो हल्ला करते हैं? मुझे तो खैर बहुत कुछ समझ नहीं आता पर बात यहाँ मेरी नहीं है, प्रतीकों की है .
मैं इस बारे में ज्ञान नहीं दूंगी कि क्यूँ नहीं हम रावण के पुतले को जलाने की बजाय अपने अन्दर की बुराइयों को ख़त्म करते. मैं बस ये समझने कि कोशिश कर रही हूँ कि इन प्रतीकों के मूल को भूल जाना कहाँ तक उचित है?
कल दुर्गा पूजा के पंडाल में भी गई थी मैं. यहीं मधुबन में ही लगा था. पहली बार देख रही थी दुर्गा पूजा. दुर्गा की बड़ी सी मूर्ति, वो बड़ी बड़ी आँखों वाली, देखती ही रह गई कुछ देर तक...
तेज था मूर्ति के मुख पर, आँखों में, उसकी मुद्रा में. दुर्गा की प्रतीक! पंडाल में बहुत भीड़ थी. भीड़ में लड़कियां भी थीं, महिलाएं भी. अपने आपको भीड़ से बचाती सीं. मैंने वह तेज ढूँढने की कोशिश की, उनके चेहरे पर, उनकी आँखों में, उनकी मुद्रा में. निराशा ही हाथ लगी.
प्रतीक एक निर्जीव पुतला या मूर्ति ही क्यूँ? जीते-जागते तुम और मैं क्यूँ नहीं?? सोचना!!
ये पानी जो बरस रहा है बाहर. ये भी एक प्रतीक है. निरंतरता और बदलाव का. आदि काल से बरस रहा है. अनंत तक बरसेगा. पर हमेशा नया... हर बूंद अनछुई... वक़्त के साथ साथ चलती. क्यूँ ना हम भी वक़्त के साथ ही चल सकें? ...और हमारे प्रतीक भी ?
हर बार की तरह .... परिपक्वता की राह पर ..लिखावट भी और सोच भी ...
ReplyDeleteशुक्रिया सिन्हा सर :)
Deleteरावण कभी मरा नहीं करते, अगर वह बुराई का प्रतीक है तो आज भी जिंदा है, और छद्म वेश में ताक लगाए बैठा है सीता को चुरा ले जाने को। लेकिन अगर वह एक आर्य राजा के हाथों हारा हुआ अर्ध-आर्य या अनार्य राजा है तो इस कहानीको अलग आयामों में देखने की जरूरत है।
ReplyDeleteदमदार लेखनी...
ReplyDeleteआपका लेख काफी अच्छा लगा... मगर ये समझ नहीं आता कि जिन जगहों पर रावण का पुतला हर साल जलाया जाता है अगले दिन वहां अधेरा क्यों छा जाता है... अधेरे को छोड़ दिजिए... कोई लाइट ना सकी कम से कम एक दीपक तो जला ही दिया जाए लगता है रावण के मरने पर लोगों के खुशी कम और मातम ज्यादा होता है मानों उनसे कोई भूल हो गई है... भाई हद्द ही हो गई है।।।।
ReplyDeleteimpressive thots and observation... and grt lines abt rain in last para... liked it
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