Posts

Showing posts from October, 2013

अपनी जान किसी के नाम...

ख़ाली काग़ज़ भी साफ़ दिल जैसा होता है जिस पर लिख सकते हैं अपनी जान किसी के नाम... -अमृता प्रीतम किसी के प्यार में लिखे हुए ख़त कितने ख़ूबसूरत हो सकते हैं ये मैंने ‘ख़तों का सफरनामा' पढ़ते हुए महसूस किया. अमृता और इमरोज़ के ख़त एक दूसरे के नाम. प्यार की चाशनी में डूबे, हज़ार दर्द, शिक़वे-शिक़ायतें समेटने के बावज़ूद इतने दिलक़श कि उफ़!! ख़ूबसूरती शायद अधूरे होने में ही है. पूरा होना तो जैसे ख़त्म हो जाना है, फ़िल्म के दी एंड की तरह. अधूरापन ही तो है इन ख़तों में जो दोनों को पूरा कर रहा है. अपनी बात कह पाने की ख्वाहिश, उसकी बात सुन पाने की आरज़ू. दोनों के पूरा होने के सुकून की उम्मीद. ये सुनने का इंतजार कि कोई उसकी याद को ज़िन्दगी की तरह जी रहा है और ये कहने की बेक़रारी भी कि तुम जीते रहोगे तो मैं भी ज़िन्दा हूँ. अपने हर ख़याल को काग़ज़ पर उकेर देने की तड़प, पानी में डूबते वक़्त सांस ले पाने की तड़प से ज़रा भी कमतर नहीं दिखती.  दुनिया के किसी भी कोने में, कितनी भी नेमतों के बीच दिल से अगर जाता नहीं तो बस एक ख्याल... ‘तुम कहाँ हो? कैसे हो? क्या कर रहे हो?’ बस एक चुपचाप सी ख्वाहिश... ‘काश

बनारस की चाय के अलौकिक घूंट - भाग दो

पिछले दो दिन से शनिवार का इंतजार था.  शनिवार आया. आकर चला भी गया. कुछ व्यस्तताओं की वजह से अस्सी तक जाने का मौका न मिल सका. बस अब व्यस्तताएं न पूछियेगा. खैर रविवार की अपनी दिनचर्या को बदलते हुए में साढ़े नौ बजे हॉस्टल  से निकल गई. काफ़ी उत्साहित थी कि आज किस किस के दर्शन होंगे. क्या क्या देखने, सुनने मिलेगा. भारत कला भवन वाले प्रोफ़ेसर साहब ने कहा था कि आना और आकर एक कोने में चुपचाप बैठना. बस बाकी तुम खुद ही देखती जाओगी. सो उनके कहे अनुसार दुकान पर पहुंची. साइकि पार्क की और दुकान में घुसते ही बांयी ओर पड़ी बेंच पर जा कर बैठ गई. अभी तक दुकान पूरी भरी न थी. कम ही लोग थे. दो तीन बीस-बाईस की उम्र के लड़के सामने की बेंचों पर चाय के साथ हिंदी अखबारों का नाश्ता करने में व्यस्त थे. उनके पास ही एक सरकारी स्कूल के अध्यापक अपनी चाय लिए बैठे थे. उन्होंने मुझे और मैंने उन्हें पहचान लिया. पिछली बार जब यहाँ आई थी तो भेंट हुई थी उनसे. मुस्कानों ओर 'हेल्लो -हाय' की अदला बदली हुई. अभी तो मुझसे हेल्लो हाय की ही उम्मीद की जा सकती है. क्या है कि गंगा के पानी का रंग इतनी जल्दी चढ़ जाये, ऐसी न तो अपनी

बनारस की चाय के अलौकिक घूंट

मुझे एक लोकोक्ति याद आ रही है. ज़रूर सुनी होगी आपने भी. आये थे हरि भजन को... हाँ आज मेरे साथ कुछ ऐसा ही वाक़या पेश आया पर इसकी तासीर उलटी थी. गई तो थी मैं कपास ओटने और हो गया हरि भजन.    हॉस्टल में ईथरनेट का प्रयोग होता है. केबल का पिन अगर ख़राब हो जाए तो सोचिये कितनी मुसीबत होगी. ख़ासकर हम जैसों की जो फ़ेसबुक पर जागते हैं और गूगल प्लस पर सोते हैं. दोपहर होती है विकिपीडिया पर तो शाम को यूट्यूब के किनारे पड़े रहते हैं.  तो आज हुआ ये कि ख़राब पिन को बनवाने के लिए, माफ़ कीजियेगा बदलवाने के लिए मैंने पूरा का पूरा केबल ही पोर्ट से निकला और पहुँच गई लंका. एकमात्र शिवम् कंप्यूटर्स का ही ठिकाना मालूम था सो वहीँ हमने अपनी अर्जी लगा दी. पर वहां से नोटिस मिला बीस मिनट बाद... अब सवाल ये था कि ये बीस मिनट कहाँ बिताई जाएँ. वापस आकार साइकिल उठाई तो पर समझ नहीं आ रहा था कि जाना कहाँ है. कुछ समझ आता इस से पहले ही महसूस हुआ कि साईकिल चल रही है... हाँ अस्सी की तरफ़. पर लंका का ट्रैफिक... अब आगे क्या कहूँ. न तो मैं गणेश की अवतार हूँ और ना ही मेरा कंप्यूटर व्यास की छायाप्रति. आज अस्सी पहुँच

ये जो बारिश है...

आज सुबह से ही पानी बरस रहा है बनारस में. दिल्ली में भी बरसा था कल. सुना है कि कोई चक्रवात आया है थाईलैंड से. फैलिन, हाँ यही नाम बता रहे हैं लोग. एन दशहरे के मौके पर आया है, रावण की तरह. रावण! बुराई का प्रतीक!! समझ नहीं आता कि साल में एक दिन रावण का पुतला जला देने से कौन सी बुराई पर विजय प्राप्त कर ली जाती है. यह भी समझ नहीं आता कि आखिर हम सांप निकल जाने के बाद लक़ीर को क्यूँ पीटते रहना चाहते है... यह भी नहीं कि हम परम्पराओं के नाम पर इतने जड़ क्यूँ हो जाते हैं, क्यों इनका महत्व भूल कर सिर्फ़ प्रतीकों पर हो हल्ला करते हैं? मुझे तो खैर बहुत कुछ समझ नहीं आता पर बात यहाँ मेरी नहीं है, प्रतीकों की है . मैं इस बारे में ज्ञान नहीं दूंगी कि क्यूँ नहीं हम रावण के पुतले को जलाने की बजाय अपने अन्दर की बुराइयों को ख़त्म करते. मैं बस ये समझने कि कोशिश कर रही हूँ कि इन प्रतीकों के मूल को भूल जाना कहाँ तक उचित है? कल दुर्गा पूजा के पंडाल में भी गई थी मैं. यहीं मधुबन में ही लगा था. पहली बार देख रही थी दुर्गा पूजा. दुर्गा की बड़ी सी मूर्ति, वो बड़ी बड़ी आँखों वाली, देखती ही रह गई कुछ देर तक... तेज था

मैंने जिंदगी पी है

कल ही आना ऐ हवा लेकर अपनी लोरियाँ आज तो नींद का गाँव कहीं पीछे छूट गया मुझसे मत पूछ ज़मीं चाँद के घर का पता झूठा दरपन था कोई गिर के यूँ ही टूट गया जल न अब मुझ से दिये तू ही सो जा जा के मैंने सब ख्वाब बुझाके तुझ से माफ़ी ली है आज सब माफ़ करो मैं नशे में हूँ ज़रा मैंने छुप के ही सही थोड़ी ज़िंदगी पी है

रामनगर की 'रामलीला' से कुछ दृश्य

Image

रामनगर की रामलीला

कल रामनगर की रामलीला देखने का प्रस्ताव पास हुआ. आज क्लास के बाद आ कर एक नींद लेने का मन था पर दीपिका जी ने सारे अरमानों पर पानी फेरते हुए घोषणा की कि आज शाम रामनगर चला जायेगा. मैंने बारिश का हवाला देकर टालने की कोशिश की पर इस अतिथिसेवक  देश में अतिथियों का ही शासन चला है. (सोनिया जी बुरा न मानें, क्या है कि वो अब अतिथि नहीं हैं ना ) लिहाजा मुझे नींद का विचार त्याग कर रामनगर की ओर प्रस्थान करना पड़ा. लंका पहुँचते पहुँचते इंद्र देव ने बनारस पर फिर से अपनी कृपा दृष्टि बरसा दी थी. कुछ देर बी एच यू गेट की शरण लेने के पश्चात जब बारिश थमती सी लगी हम रामनगर जाने वाले एक ऑटोरिक्शा में बैठ गए. मिट्टी और कीचड़ में डूबी सड़क पर जब ऑटो आगे बढ़ा तो लग रहा था जैसे हम चॉकलेट कि नदी में हिचकोले खा रहे हैं. सच कह रही हूँ बचपन की फेंटेसीज़ याद आ गयीं. ऑटो में होने का सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि आप दरवाज़े जैसी कोई रुकावट न होने से शहर कि फ़िज़ा को बड़े करीब से महसूस कर सकते हैं. ऐसा लगता है जैसे आप लोगों के घरों और दुकानों से हो कर निकल रहे हैं. खैर हम भी शहर का पूरा लुत्फ़ ले रहे थे. जगह जगह पान की दुकानों पर