नवंबर डायरी, दिल्ली 2023

 







नवंबर
सात

मैं अपनी मेज़ पर हूँ, मेरा बदन इस वक़्त जाने कितने अहसासों का पुतला है. जुनून, ख्वाहिश, तलब. छोटा पुराना स्पीकर एक रोमानी गाना बजा रहा हैअपनी जड़ों से बिछड़े, एक अनजान सफ़र में भटकते, मगर हर एक लमहे को अपनी जान के आख़िरी क़तरे की तड़प के साथ जीते हुए लोगों का गीत. अभी कुछ देर पहले मैंने लिखा कि मैं चाहती हूँ कि मैं किसी के ( मज़बूत मगर नर्म) इख़्तियार में रहूँ. अकेले और आज़ाद होने की थकन बढ़ती जा रही है. ये बहुत औरताना ज़रूरत है. मैं देख रहूी हूँ कि मेरा लिखा किसी तर्जुमे जैसे मालूम होता है. सच भी है. मैं जिस भाषा में पढ़ रही हूँ, उसी भाषा में महसूस कर रही हूँ. मेरी कोई भाषा ही नहीं. जिसने माँ देखी हो उसकी मादरी ज़बान कोई हो सकती है क्या? मैं इन रोमानियों के क़ाफ़िलों से जुड़ाव महसूस करती हूँ.


पिछले पैरा की पहली दो बातें मैंने अंग्रेज़ी में लिखीं. फिर उन्हीं दो बातों को हिंदी में लिखा. आसान नहीं लगा उसी बात को हिंदी में कह पाना. जब कह दिया तो लगा जैसे मैं पहले से ज़्यादा आसानी से साँस ले पा रही हूँ. दिल्ली की इस हवा में साँस लेना यूँ भी कहाँ बहुत आसान है. 


नवंबर बारह


पिछले चार दिन ऐसे बीते कि एक पल को अकेले हो सकने की सहूलियत मिली. किसी के इख़्तियार में होना जितना रूमानी मालूम होता है, अकेले होना उतना ही ज़रूरी. अजीब कश्मकश है. नौ तारीख़ को मैंने इस ज़मीन पर एक और साल पूरा कर लिया. इसका मानी तो बहुत नहीं समझती, पर इसका असर बेतरह महसूस करती हूँ. एक और साल, कुछ और सवाल, कुछ और सवालों के हल, कुछ और भरना, कुछ और ख़ाली होना. सब एक साथ. अब कॉन्ट्राडिक्शन तकलीफ़ नहीं देता, वरन अब यही सबसे कुदरती तरीक़ा मालूम होता है जीने काजब विरोधाभास दिखने लगे तो उसे जबरन सुलझाने मत दौड़ पड़ो, उस बखत जो जैसा महसूस हो रहा है उसे वैसा रहने दो. जब उस अँधेरे के छँटने का वक़्त आएगा, तुम्हें कोई और कोशिश करनी ही पड़ेगी.


नवंबर तेरह


धूप आज ज़रा देर से निकली. हवा में कल रात की आतिशबाज़ी का असर अब भी तैर रहा है. कुट्टू बिल्ला भी बालकनी में नहीं रुकना चाहता. मैं बाहर जाना चाहती हूँ, सूरज को महसूस करना चाहती हूँ, भले ही हवा का देवता, स्वस्ति वाचन की प्रार्थना के विपरीत मानव के लिए कोई भी औषधि लाने से इनकार कर चुका हो. कहीं नज़दीक से आती रोते हुए बच्चे की आवाज़, चिड़ियों के कलरव के साथ फिर वही विरोधाभास ले आती है. लेखकों, मनीषियों को मानना है कि यह विरोधाभास ही हमारी रचनात्मकता का स्रोत है. बड़े परदे पर दुनिया को बचाते हुए महानायकों को गढ़ने वाले पटकथा लेखक-निदेशक जॉन वीडन मानव विरोधाभास के एक बहुत ही बुनियादी पहलू के बारे में बड़ी दिलचस्प बात कहते हैं. वे कहते हैं, तुम्हारी अपनी ख़्वाहिश चाहे जो भी होतुम्हें बहुत अमीर बनना हो, मशहूर होना हो, नेता, कलाकार, स्टार बनना हो, पर तुम्हारे शरीर का उद्देश्य बस एक ही है. वह मर जाना चाहता है. उसे अपने जैसे कुछ और शरीर बनाने हैं यानी बच्चे पैदा करने हैं और मर कर मिट्टी को उर्वर करना है. बस. पर तुम मरना नहीं चाहते. क्या ही विरोधाभास है. पर क्या हम इससे उबर सकते हैं? जवाब हाँ भी है और ना भी. उबरने पर हम भीतर से लेकर बाहर तक युद्धों में डूबते जाते हैं. उबर जाने पर बुद्ध हो जाते हैं. 


हम एक ही बुद्ध को जानते हैं, सिद्धार्थ को. आठ नवंबर को जब मैं सामने बैठे सिद्धार्थ पर अपने विरोधाभास ज़ाहिर करती हूँ, तो वह मुझे एक कहानी सुनाते हैं. मेरा विरोधाभास है कि मैं जो कर रही हूँ, वह किए जैसा नहीं दिखता. वह किया जा रहा है कि नहीं, कहा नहीं जा सकता. सिद्धार्थ न्यू टेस्टामेंट का ज़िक्र करते हैंक्रिस्तानी बाइबल का पश्चिमार्ध. वे जोसफ़ के बेटे की कहानी सुनाते हैं. जोसफ़ एक बढ़ई है, खूब काम करता है. पर उनका युवा बेटा यहाँ-वहाँ घूमता है, लोगों से मिलता है और दिन निकलते जाते हैं. लोग जोसफ़ और मेरी से कहते हैं कि तुम्हारा बेटा कुछ काम नहीं करता. पर माता-पिता जानते हैं कि उनका बेटा दैवीय है. वे कहते हैं, “वह अपना काम कर रहा है.”


कहानी इतनी सी ही थी. मैंने कृतज्ञ स्तब्धता के साथ सुनी. ऐसी कहानी मुझे सिद्धार्थ के सिवा कौन सुना सकता है? जोसफ़ और मेरी के भीतर अपने पुत्र के लिए कोई विरोधाभास नहीं. उन्होंने स्वीकार कर लिया है कि वह दिव्य है, उससे साधारण पुत्र की तरह आकांक्षाएँ नहीं पाली जा सकतीं. जिसे तुमने नहीं चुना, जिसकी तुमने कामना नहीं की, उसके घटित होने को स्वीकार कर लेना तुम्हें विरोधाभासों से मुक्ति दे सकता है, आंतरिक और बाहरी युद्ध और हिंसा से मुक्त कर सकता है. पर अपनी इच्छा के विपरीत जाना इतना सरल भी तो नहीं. 


त्योहारों का समय है. मैं पिछले कुछ दिनों से दीपिका के साथ ही हूँ. छुट्टियों के दिन रसोई में तमाम खाने बनाते हुए बीते. पहली बार महसूस हुआ कि इतने जतन और मेहनत से बनाया खाना अकेले खाना कितना बेमानी हो सकता है. मैं दीपू से कहती हूँ कि घर में बच्चे होने चाहिए. वह सुनती है, सोचती है, हँसती भी है. बच्चों के लिए किसके पास समय है.


नवंबर दस को दोपहर के खाने पर एक कोरियाई जोड़े से मिलना हुआ. दीपिका ने मुझे कुछ दिनों पहले उनके बारे में बताया था. उनकी तस्वीर के साथ उसने लिखा था कि ये दोनों एक दूसरे के प्रति बेहद उदार हैं. उम्र के साठ शरद पार का यह जोड़ा मुझे ख़ुशगवार हैरत से भर गया. प्रोफ़ैसर हाकसून पइक कोट्टायम स्थित महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय में हाल ही में शुरू हुए कोरिया सेंटर के अधिष्ठापन और व्याख्यान के लिए आए थे. उनकी पत्नी भी साथ थीं. सिओल वापस लौटने से पहले वे दोपहर के खाने पर दीपिका और उसके सहकर्मी कर्नल पिल्लइ से दोपहर के खाने पर मिलना चाहते थे. दीपिका चाहती थी मैं भी उनसे मिलूँ. ग्रीनपार्क के एक रेस्तराँ में मैं उन्हें हमारे लिए पारंपरिक कोरियाई खाना ऑर्डर करते हुए देखती रही. उनके चेहरों में एक सौम्य सी रौशनी थी, जो एक गहरी उदारता और लगातार बहुत कुछ स्वीकार करते जाने के बाद तुम्हारे अंदर पैदा होने लगती है. खाना आने के बाद उन्होंने प्रार्थना की. मेज़ पर रखे खाने और साथ मौजूद लोगों के लिए ईश्वर को धन्यवाद देने के बाद प्रोफ़ैसर पइक ने जो कहा वह अब याद नहीं आता, पर जो नहीं भूला गया वह है उस प्रार्थना का अहसास. 


मेज़ पर खाने की विशेषताओं के अलावा प्रोफ़ैसर की प्रेमकहानी पर भी बात हुई. उन्होंने बताया कि सत्ताईस-अट्ठाईस की उम्र में जब वे पढ़ाई कर रहे थे, तब सुन फ़ार्मेसिस्ट हुआ करती थीं और उनका खर्चा उठाने में मदद करती थीं. पइक कई भाई-बहनों वाले परिवार से आते थे और तमाम कारणों से सिओल की लड़कियाँ ऐसे परिवारों में विवाह करना पसंद नहीं करतीं, पर सुन ने सिर्फ़ पइक को विवाह से पहले आर्थिक मदद दी और फिर विवाह करके इतने वर्षों से उनकी जीवन साथी बनी हुई हैं. “कोरिया में कहावत है कि जो जोड़ा मुश्किल वक़्त में साथ खड़ा रहता है, उसे अलग नहीं किया जा सकता,” पइक ने जिस सौम्यता से यह कहा, मुझे नहीं लगता मैंने सिनेमा से बाहर किसी को ऐसा कुछ कहते सुना हो. 


रेस्तराँ से लौटते वक़्त दीपिका और कर्नल पिल्लइ बात करते रहे कि हमारे हिंदुस्तानी दायरों में इतराने, दंभ भरने का इतना रिवाज़ है कि तो काम की गुणवत्ता ही आसानी से मिलती है और ही ऐसी व्यावहारिक और सौम्य सहजता. मेरी आँखों में देर तक उनका अंतिम अभिवादन तैरता रहा. गाड़ी से उतरने के बाद कोरियाई दंपति एक दूसरे के बाजू में खड़े हुए थे. सुन ने अपना दायाँ हाथ मोड़ कर अपने सिर के ऊपर की ओर किया और प्रोफ़ैसर हाकसुन अपने बाएँ हाथ को उसी तरह सिर के ऊपर ले गए. अब दोनों के हाथ एक बड़े से दिल की शक्ल में एक दूसरे के पास थे. एक बुज़ुर्ग जोड़े का यह कोरियाई अभिवादन कितना सुंदर था यह देखने वाला ही जान सकता था. उनके जाने के बाद लगता रहा है कि कोई अपना चला गया है. हाँ, वे अपने ही हैं. कार में बैठते हुए हम सब मलयाली थे, रेस्तराँ में हम कोरियाई हो गए थे. अब बस हम चंद लोग थे


वह जोड़ा, जो इतना सफल और सहृदय है, बस एक ही दुख सीने में पाले हुए है. बच्चे शादी नहीं करना चाहते. दक्षिण कोरिया में प्रति महिला जन्म दर दुनिया में सबसे कम है.


अभी कुछ देर पहले एक संदेश मिला. बहुत मेधावी और वैसी ही सहृदय लड़की का. लिखती है कि उसने मुझे स्वप्न में देखा, सुनहरी सुबह में गेहूँ या कि धान के खेत के बीच चलते हुए. फिर वह मुझे कोई कविता पढ़ते देखती है. मैं वापस लिखती हूँ कि तुम्हारा मन एक सुंदर चितेरा है. वह लिखती है कि जिन सुंदर लोगों से यह मिलता है वे इसे सुंदर बना देते हैं. सच. हाकसून पाइक और सुन से मिलकर वैसा ही तो लगा. दीपिका का होना मुझे रोज़ सुंदर बनाता है. और उन लोगों का होना भी, जो तकलीफ़ में हैं और अपनी तकलीफ़ को मुझ तक आने से नहीं रोक पाते. 

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