महिला दिवस और मैं
चार रोज़ पहले साल का तीसरा महीना, यानी मार्च कैलेंडर पर चढ़ चुका है और ठीक चार रोज़ बाद की एक ख़ास तारीख़ का इंतज़ार आधी आबादी कर रही है. हाँ, मैं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की ही बात कर रही हूँ. हमें महिला दिवस की ज़रुरत क्यूँ है या इस दिन का एक आम महिला की ज़िन्दगी में क्या अर्थ होता है, इस बारे में बहुत बातें हो चुकीं. इस बार मैं बात करना चाहूंगी अपने बारे में.
कल रात नौ बजे जब मैं अपने दो सहकर्मियों के साथ एक ढाबे पर खड़ी रात का खाना पैक करवा रही थी, न चाहते हुए भी मुझे सुबह के अखबार में पढ़ा 16 दिसम्बर 2012 दिल्ली गैंग रेप के एक अपराधी मुकेश सिंह और उसके वकीलों का बयान याद आ गया.
माननीय वकील एम एन शर्मा के अनुसार लड़की और लड़का दोस्त नहीं हो सकते, लड़की को रात साढ़े सात बजे के बाद घर से नहीं निकलना चाहिए. यही हमारी संस्कृति है. यह सबसे अच्छी संस्कृति है और इसमें महिलाओं के लिये कोई जगह नहीं है.
जनाब ए पी सिंह कहते हैं कि मेरी बहन या बेटी अगर शादी से पहले किसी पुरुष से दोस्ती रखती और अपना चरित्र ख़राब करती तो मैं उसे अपने फार्म हाउस पर ले जाकर सार परिवार के सामने उसपर पेट्रोल डाल कर आग लगा देता. वाह ! क्या आदर्श विचार हैं.
और हमारे रेपिस्ट साहब की सुनें तो वे कहते हैं कि रेप किये जाते वक़्त लड़की अगर विरोध न करती और चुप रहती तो बच जाती. एक भली लड़की रात को घर से बाहर नहीं निकलती. वे कहते हैं कि लड़कियों का काम है घर पे रह कर घर का काम करना न कि ग़लत कपडे पहन कर घर से बहार निकलना, डिस्को और बार में जाना. और अगर वह रात को घर से निकलती है तो उसके जैसे संस्कृति के ठेकेदारों को पूरा हक़ है कि वो उसे रेप करे और जान से मार दें ताकि बाकी लड़कियां सबक सीख सकें.
दिक्क़त की बात यह है कि ये मानसिकता सिर्फ़ एक रेपिस्ट और उसके वकीलों की नहीं है बल्कि हमारे समाज के एक बड़े तबके की है. औरतों को संस्कृति का पाठ सिखाने वाले ये खुद को मर्द कहने वाले जानवर, और इन जानवरों को अपनी कुंठा चारे में परोसतीं चंद औरतें न सिर्फ़ आज हमारे समाज में एक लड़की के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं बल्कि वे लड़की को और असुरक्षित बना कर इस पूरे समाज के स्वास्थ्य के साथ छेड़ छड कर रहे हैं.
शर्मनाक है ऐसे देश में महिला दिवस की रस्म अदा करना जहाँ इस तरह की अपराधिक मानसिकता वाले लोग निर्भय होकर अपने विचार रख सकते हों. शर्मनाक है देश की संसद में इस तरह के वाकये पर सिर्फ़ ये कहा सुना जाना कि जेल में डॉक्युमेंट्री शूट करने की इजाज़त आख़िर किसने दी थी. शर्मनाक और खौफ़नाक है ऐसे माहौल में एक लड़की का पैदा होना, जिंदा रहना.
कम से कम मुझे तो बहुत ही डर लगा कल रात. कहीं कोई वैसा ही आदर्श संस्कृतिवादी मेरे सामने आ गया तो?? क्या करूँ, कई बार रात साढे सात बजे के बाद घर से भी निकलती हूँ, कपड़े भी आदर्शवादियों के मन मुताबिक नहीं पहनती, पुरुष सहकर्मियों से दोस्ती भी है. इन हालातों में तो अब अल्लाह ही हाफिज है मेरा.
कल रात नौ बजे जब मैं अपने दो सहकर्मियों के साथ एक ढाबे पर खड़ी रात का खाना पैक करवा रही थी, न चाहते हुए भी मुझे सुबह के अखबार में पढ़ा 16 दिसम्बर 2012 दिल्ली गैंग रेप के एक अपराधी मुकेश सिंह और उसके वकीलों का बयान याद आ गया.
माननीय वकील एम एन शर्मा के अनुसार लड़की और लड़का दोस्त नहीं हो सकते, लड़की को रात साढ़े सात बजे के बाद घर से नहीं निकलना चाहिए. यही हमारी संस्कृति है. यह सबसे अच्छी संस्कृति है और इसमें महिलाओं के लिये कोई जगह नहीं है.
जनाब ए पी सिंह कहते हैं कि मेरी बहन या बेटी अगर शादी से पहले किसी पुरुष से दोस्ती रखती और अपना चरित्र ख़राब करती तो मैं उसे अपने फार्म हाउस पर ले जाकर सार परिवार के सामने उसपर पेट्रोल डाल कर आग लगा देता. वाह ! क्या आदर्श विचार हैं.
और हमारे रेपिस्ट साहब की सुनें तो वे कहते हैं कि रेप किये जाते वक़्त लड़की अगर विरोध न करती और चुप रहती तो बच जाती. एक भली लड़की रात को घर से बाहर नहीं निकलती. वे कहते हैं कि लड़कियों का काम है घर पे रह कर घर का काम करना न कि ग़लत कपडे पहन कर घर से बहार निकलना, डिस्को और बार में जाना. और अगर वह रात को घर से निकलती है तो उसके जैसे संस्कृति के ठेकेदारों को पूरा हक़ है कि वो उसे रेप करे और जान से मार दें ताकि बाकी लड़कियां सबक सीख सकें.
दिक्क़त की बात यह है कि ये मानसिकता सिर्फ़ एक रेपिस्ट और उसके वकीलों की नहीं है बल्कि हमारे समाज के एक बड़े तबके की है. औरतों को संस्कृति का पाठ सिखाने वाले ये खुद को मर्द कहने वाले जानवर, और इन जानवरों को अपनी कुंठा चारे में परोसतीं चंद औरतें न सिर्फ़ आज हमारे समाज में एक लड़की के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं बल्कि वे लड़की को और असुरक्षित बना कर इस पूरे समाज के स्वास्थ्य के साथ छेड़ छड कर रहे हैं.
शर्मनाक है ऐसे देश में महिला दिवस की रस्म अदा करना जहाँ इस तरह की अपराधिक मानसिकता वाले लोग निर्भय होकर अपने विचार रख सकते हों. शर्मनाक है देश की संसद में इस तरह के वाकये पर सिर्फ़ ये कहा सुना जाना कि जेल में डॉक्युमेंट्री शूट करने की इजाज़त आख़िर किसने दी थी. शर्मनाक और खौफ़नाक है ऐसे माहौल में एक लड़की का पैदा होना, जिंदा रहना.
कम से कम मुझे तो बहुत ही डर लगा कल रात. कहीं कोई वैसा ही आदर्श संस्कृतिवादी मेरे सामने आ गया तो?? क्या करूँ, कई बार रात साढे सात बजे के बाद घर से भी निकलती हूँ, कपड़े भी आदर्शवादियों के मन मुताबिक नहीं पहनती, पुरुष सहकर्मियों से दोस्ती भी है. इन हालातों में तो अब अल्लाह ही हाफिज है मेरा.
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