मार्कंडेय उवाच : गाँधी, काटजू और पत्रकारिता

मार्च उन दिनों से ही मेरा पसंदीदा माह रहा है जब में स्कूल में थी. मार्च में होने वाली स्कूली परीक्षाएं हों या सुहाना मौसम, मुझे दोनों से ही बराबर प्यार रहा है. हाँ सचमुच, मुझे एक विद्यार्थी के तौर पर साल भर पढाई करना ज़रा भी पसंद नहीं आता था पर परीक्षाएं मुझे हमेशा अच्छी लगती थीं. शायद इसलिए कि परीक्षाएं बाकी लोगों से खुद को बेहतर साबित करने का सुनहरा मौका होती थीं. और हाँ, मार्च के महीने में मेरी क्रिएटिविटी भी बेहतर हो जाती है, शायद मौसम के असर से.


मुझे लगता है काटजू साहब के साथ भी कुछ ऐसा ही रहा है. तभी तो इस महीने उनकी क्रिएटिविटी भी काफी

उफान पर है और साथ ही बिना परीक्षा के भी खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश की जुगत भी उन्होंने भिड़ा ली है. हाँ, मैं मार्च 10, 11 और 12 को लिखे उनके ब्लॉग की ही बात कर रही हूँ. दस तारीख को उन्होंने दो पोस्ट लिखीं   'गाँधी- अ ब्रिटिश एजेंट' और 'द रियल फ़ादर ऑफ़ द इंडियन नेशन'. 11 को उन्होंने दो और पोस्ट लिखीं, एक अपनी गाँधी सीरीज को आगे बढ़ाते हुए, 'हियर इज़ द ' फ़ादर' ऑफ़ योर नेशन' और दूसरी राज्य सभा में उनके खिलाफ पारित निंदा प्रस्ताव की प्रतिक्रिया में 'अ हम्बल एडवाइस टू राज्य सभा' . इन सनसनीखेज आलेखों के पीछे काटजू की क्या मंशा रही ये तो वही जानें पर सुर्ख़ियों में वे एक बार फिर आ गए, कक्षा के सबसे खुरापाती विद्यार्थी की तरह.

काटजू की गाँधी सीरीज की पहली पोस्ट का पहला पैरा ही उनकी मनोदशा के बारे में बहुव्त कुछ कह जाता है. उन्होंने लिखा, " यह पोस्ट मेरी आलोचना का कारण बनेगी, परन्तु मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि मुझे लोकप्रियता की चाह नहीं. यह जानते हुए भी कि उन बातों के लिए कई लोगों द्वारा मुझे अपमानित और निन्दित किया जाएगा, फिर भी मैंने कई बार ऐसी बातें कही हैं, क्योंकि मैं मानता हूँ कि उन बातों को कहा जाना देश के हित में है. मैं कहता हूँ कि गाँधी निष्पक्ष रूप से एक ब्रिटिश एजेंट था." इसके बाद आगे वे अपने कथन को सिद्ध करने के लिए तर्क देते हैं. ये सभी तर्क इतिहास से उठाये गए हैं और एकदृष्टया पाठक को सोचने पर विवश कर देते हैं.

अब मसला यह है कि अगर काटजू मानते हैं कि गाँधी ब्रिटिश एजेंट हैं और वे अपने पक्ष में अकाट्य तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं तो उन्हें पोस्ट की शुरुआत में यह स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता ही क्यूँ पड़ी कि यह पोस्ट उनकी आलोचना एवं अपमान का कारण बनेगी पर इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. मैंने कहीं पढ़ा था कि जहाँ अपराधबोध होता है वहीँ स्पष्टीकरण की आवाश्यकता होती है, बाकी आप खुद समझ लें.

मैं स्वयं भी गाँधी की बड़ी प्रशंसक नहीं रही हूँ. गाँधी को जितना पढ़ा है, लोगों से सुना है उतना ही जानती हूँ, उनकी पीढ़ी मैं पैदा जो नहीं हुई. कहने को तो काटजू भी गाँधी की पीढ़ी के नहीं हैं और गाँधी की मृत्यु से करीब दो साल पहले ही उनका जन्म हुआ है. अतः उनका गाँधीज्ञान भी पढने और सुनने पर ही आधारित हो सकता है. ऐसे में गाँधी पर इस तरह की टिप्पणी करने से पहले गाँधी पर एक बहुआयामी शोध तो आवश्यक हो ही जाता है. क्योंकि काटजू न सिर्फ़ देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे हैं बल्कि देश की पत्रकारिता की शीर्ष संस्था के भी अध्यक्ष रहे हैं उनसे इस तरह के आलेखों की उम्मीद नहीं की जा सकती.

अगर उनके स्पष्टीकरण पर ही गौर किया जाए तब भी यह समझना मेरे लिए दुष्कर हो जाता है कि गाँधी को ब्रिटिश एजेंट, एक चालाक पाखंडी या फिर सुभाष चन्द्र बोस जापानी फसिस्ट्स का एजेंट साबित करने की कोशिश करना किस प्रकार से देश हित में है. अब अगर उनके ग्यारह मार्च के पोस्ट 'अ हम्बल एडवाइस टूराज्य सभा' पर भी बात की जाय तो आलेख की बौखलाई हुई भाषा ही सब कुछ कह देती. उसे पढने के बाद ऐसा लगता है कि या तो गर्म खून वाले किसी सोलह वर्षीय युवा ने भावावेश में उसे लिखा है या फिर लेखक सठिया गया है.

काटजू के गाँधी को सुर्ख़ियों में लाने के बाद यह संयोग ही रहा कि कल पत्रकारिता की कक्षा में विद्यार्थियों को गाँधी और भारतीय पत्रकारिता पढ़ने के सिलसिले में गाँधी के पत्रकारिता पर कुछ विचार पढने को मिले. गाँधी स्वयं एक ख्यातिलब्ध पत्रकार थे. दक्षिण अफ्रीका में इंडियन ओपेनिओं से लेकर भारत में यंग इण्डिया, हरिजन, हरिजनबन्धु, हरिजन सेवक आदि अख़बारों को उन्होंने बड़ी सफलता के साथ सम्पादित किया. उनके पत्रों की सबसे ख़ास बात यह थी कि वे विज्ञापन नहीं छापने के बावज़ूद भी एक बड़ा पाठक समूह रखते थे.

गाँधी ने पत्रकारिता के बारे में अपनी आत्मकथा में कहा कि "पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सेवा है. अखबार एक बड़ी ताकत है परन्तु जिस तरह से जल का बंधनमुक्त प्रवाह गावों को डुबा सकता है और फसलों को नष्ट कर सकता है उसी तरह एक उन्मुक्त कलम भी विनाशकारी साबित हो सकती है. पर यदि कलम पर नियंत्रण बाहरी होगा तो यह नियत्रण की आवश्यकता से अधिक विषैला साबित हो सकता है. बेहतर यही होगा की नियत्रण आतंरिक हो. अगर यह तर्क उपयुक्त है तो  कितने पत्र पत्रिकाएँ इस कसौटी पर खरे उतरेंगे. पर जो अनुपयोगी हैं उन्हें कौन रोकेगा. कौन न्याय करेगा. उपयोगी और अनुपयोगी को अच्छाई और बुराई की तरह साथ साथ चलना होगा. और मनुष्य को उसमें से एक को अपने लिए चुनना  होगा"

इस तरह गाँधी के ये विचार काटजू पर हुई सारी कंट्रोवर्सी पर स्वतः ही लगाम लगा देते हैं. किसी की कलम पर बाहरी नियत्रण की बजाय आतंरिक नियंत्रण ही उपयुक्त है. और फिर मनुष्य एक तर्कशील प्राणी है वह सही, गलत या उपयोगी, अनुपयोगी में से अपने लिए चुनाव कर सकता है. रही बात काटजू की, तो मार्च का आनंद उठाने का उन्हें पूरा अधिकार है. 

Comments

  1. बहुत अच्छा लिखा प्रदीपिका, लेकिन काटजू कभी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नहीं रहे। काटजू वैसे भी सुर्खियों के भूखे हैं। गांधी को जानना काटजू जी के बस की बात नहीं। सिर्फ जज होकर वह इतिहास पुरूषों पर फैसला नहीं सुना सकते।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया मंजीत. मैंने गलती से निजात पा ली है.
      बिलकुल सही कहा आपने, इतिहास पुरुषों पर फ़ैसला करने का अधिकार सुर्ख़ियों के भूखे किसी रिटायर्ड जज को नहीं दिया जा सकता.

      Delete

Post a Comment

Popular posts from this blog

नवंबर डायरी, दिल्ली 2023

Soar in the endless ethers of love, beloved!

रामनगर की रामलीला