इन ख्वाहिशों से कह दो कहीं और जा बसें...
जनवरी का आख़िरी सप्ताह है, गुलाबी ठण्ड है और मैं भदैनी घाट की सीढ़ियों पर बैठी हुई हूँ. गंगा किनारे घाट की सीढ़ियों पर बैठना मुझे तब से ही बहुत पसंद रहा है जब मैं पहली बार बनारस आई थी. युनिवर्सिटी आने के बाद तो मेरी कितनी ही शामें अस्सी पर बीती हैं. सर्दी की गुनगुनी धूप हो, डायरी हो, कलम हो, गंगा का किनारा हो, बनारस में इससे ज़्यादा और क्या चाहिए.
घाट की जिस सीढ़ी पर अभी मेरे पाँव हैं उससे अगली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है. माफ़ी चाहती हूँ पानी में नहीं, 'गंगाजल' में. गंगाजल, जिसे स्पर्श कर लोग जीवन चक्र से मुक्त हो जाने की आकांक्षा रखते हैं. सचमुच जादू होता है न स्पर्श में !! सोच रही हूँ कि मैं भी छू पाती गंगा को. मुझे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं है. मैं कुछ चाह रही हूँ तो बस इतना ही कि एक सीढ़ी और नीचे उतर कर अपने पाँव 'गंगाजल' में डुबा कर प्रकृति के कोमल स्पर्श का जादू कुछ देर महसूस कर सकूँ. पर मैं ऐसा नहीं कर पा रही हूँ.
माना कि मैं विवश हूँ और एक सीढ़ी नीचे उतर कर अपने पाँव गंगाजल में नहीं डुबा सकती पर इसका अर्थ कतई ये न लगाया जाय कि मैं व्हीलचेयर पर हूँ और चाय लाने के बहाने कोई 'स्वजन' मुझ लाचार को गंगा को समर्पित कर मुझ से मुक्ति पा गया है. ईश्वर की कृपा और डाक्टरों की सलाह का शुक्र है कि मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ और सच तो ये है कि स्वास्थ्य ही वह रोड़ा है जो मेरे गंगा-स्पर्श के आढे आ रहा है.
हाँ मुझे डर है कि जिन जिन 'अमूल्य उपहारों' को बनारस के सभ्य, सुसंस्कृत और बेहद धार्मिक समाज ने मोक्ष प्राप्ति अथवा अन्य किन्हीं महान धार्मिक, सांस्कृतिक कारणों से गंगा को सादर समर्पित किया है कहीं उनका मानवीकरण न हो गया हो. अगर ऐसा हुआ है तो बहुत ही संभव है कि वे गंगा को अपनी पैतृक संपत्ति मानते हुए, गंगा-स्पर्श के सुविधा शुल्क में मुझसे मेरा स्वास्थ्य न ले बैठें. और आप तो जानते ही हैं, स्वास्थ्य ही धन है. अब धन के बारे मैं बात करने को मत कहियेगा, महाभारत लिखने का फिलहाल कोई इरादा नहीं है मेरा.
मुझे पता है कि 'अमूल्य उपहारों' के आगे के शब्द आपने पढ़ ज़रूर लिए हैं पर मन आपका अभी वहीँ अटका है. मानव मन जो ठहरा. चलिए आप अनुमान लगाइए और मन ही मन नापिए-तौलिये गंगा के खजाने को, तब तक मैं इसके प्रत्यक्ष दर्शन का आनंद लेती हूँ. अरे ! यह क्या, आप तो उदास हो गए. अच्छा उदास मत होइए, मैं आपको यहाँ ला तो नहीं सकती पर हाँ आपके लिए संजय बनने का प्रयास अवश्य कर सकती हूँ.
गंगा के बेमिसाल खज़ाने की सबसे कीमती चीज़ है सीवर का अनट्रीटेड प्रवाह जो गंगाजल को और अधिक पवित्र कर रहा है. यह कीमती इस लिए है कि इस उपहार ने गंगा की मुक्ति दे सकने की क्षमता में असाधारण रूप से वृद्धि की है. नहीं समझे ? अरे इस तरह समझिये कि पहले गंगा मरने के बाद ही मोक्ष दे सकती थी पर अब आप यदि मुक्ति चाहते हैं तो आप गंगा में एक बार डुबकी लगा लीजिये आपको मरने का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा. Typhoid, Giardiasis, Amoebiasis, Ascariasis, Dhiarrhea, Encephalitis, Hepatitis आदि आपको मुक्ति देने की पूरी व्यवस्था कर देंगे.
इसके अलावा खज़ाने में है स्टीमर्स से निकला तेल, विसर्जित मूर्तियाँ, प्लास्टिक की बोतलें, थर्माकौल की तश्तरियां, दीपक, दोने, फूल-मालायें, नारियल, चॉकलेट्स-बिस्किट्स-चिप्स आदि के रैपर्स, जूते-चप्पल...और भी बहुत कुछ.
सच कहूँ तो बनारस आकर मुझे गंगा पर लोगों की श्रद्धा को करीब से देखने का मौका मिला और यकीन मानिये मैं इसे देखकर अभिभूत हूँ. मुझे अब तक पता था कि लोग गंगा से जल लाकार अपने ईष्ट का अभिषेक करते हैं. पर यहाँ मैंने लोगों को माँ कही जाने वाली गंगा का मूत्राभिषेक करते देखा. आपको यकीन नहीं है ? जाइये ज़रा तुलसी घाट से दशाश्वमेध घाट की ओर, आपको असंख्य 'धारायें' गंगा की और बहती नज़र आजएँगी. ख़ास तौर पर तुलसी घाट और लाइट हाउस के बीच से उठती पवित्र गंध यदि आपको कृत-कृत्य न करदे तो मुझ से कहियेगा.
कहने को तो बहुत कुछ है पर कितना कहूँ और क्या क्या कहूँ. बनारस तो धरती का सबसे पुराना शहर है, शंकर के त्रिशूल पर बसा है. काल भी इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता. गंगा मर रही है तो मरे बनारस वालों की बला से, उनका क्या वे तो नाले में डुबकी लगा कर भी मकर संक्रांति मना लेंगे. उन्हें तो पान खाना है, खायेंगे और बोलेंगे हर-हर महादेव... इससे आगे क्या बोलेंगे वो आप काशीनाथ सिंह से पूछ लीजियेगा.
मैं तो अब जा रही हूँ हॉस्टल, शाम हो गई है. उदास हूँ कि गंगा को छूने की ख्वाहिश अधूरी रह गई. ख्वाहिश पर मुझे ज़फ़र का शेर याद आरहा है, चलते चलते आपको भी सुना ही देती हूँ...
इन ख्वाहिशों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह नहीं है दिले दागदार में
हर हर महादेव के आगे की लाईन आप कहें तो हम सुना दें -) वैसे गंगा कसम, बढ़िया लिखा है आपने
ReplyDeleteyou have penned down everything very well. You know what even after all the satire i found it to be cute.
ReplyDeletewhere are the other readers? banarasiyon ko padana zaruri hai ji.
ReplyDelete