यादों के पिघलते शीशे
पिघलती हुई यादों के शीशे में
उभरने लगे हैं
कुछ अक्स
एक नदी है
कुछ बादल
एक सूरज है, ज़रा सुर्ख
थोड़ा भीगा हुआ सा
नमी से सब्ज़ होती सी
पड़ी हैं चंद सीढियां भी,
काली-भूरी-मटमैली
ओढ़ ली है चादर
बेरंग,
ख़ामोशी की
दूर...कायनात ने
और फिर
वही शहर है,
तुम हो
और मेरा अक्स
तुम्हारी यादों के
पिघलते शीशे में
उभरने लगे हैं
कुछ अक्स
एक नदी है
कुछ बादल
एक सूरज है, ज़रा सुर्ख
थोड़ा भीगा हुआ सा
नमी से सब्ज़ होती सी
पड़ी हैं चंद सीढियां भी,
काली-भूरी-मटमैली
ओढ़ ली है चादर
बेरंग,
ख़ामोशी की
दूर...कायनात ने
और फिर
वही शहर है,
तुम हो
और मेरा अक्स
तुम्हारी यादों के
पिघलते शीशे में
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