युनिवेर्सिटी, शाम, लड़की...और हाफ पेंट्स !!


हाँ शाम का ही वक़्त था जब डिपार्टमेंट से बाहर निकली. करीब छह बजे थे. अरे ये क्या....? इतना खूबसूरत मौसम! काले बदल घिरे थे...हलकी रिमझिम भी थी. दिल खुश हो उठा. सारे दिन कि थकान जैसे ग़ायब हो गई. साइकिल उठाई और दौड़ा दी हॉस्टल कि तरफ. रास्ते भर मुस्कुराती, गुनगुनाती रही. इस बेमौसम बरसात ने इनटोक्सिकेट कर दिया था जैसे मुझे. 

 हॉस्टल पहुँच के याद आया कि सुबह से कुछ खाया नहीं है. आज प्रेजेंटेशन था. सुबह जल्दी ही निकल गई थी डिपार्टमेंट के लिए. देर होते होते शाम हो गई सुबह से. खैर इस वक़्त मुझे खाने कि नहीं बारिश की फिक्र थी. जल्दी जल्दी कपड़े बदले, साइकिल की चाभी उठाई और नाचती सी चल दी बाहर की ओर. ओये स्नैक्स तो ले ले. आज मैगी है मेस में... रूम मेट चिल्लाई. मुझे कहाँ सुनाई देना था... जा कहाँ रही है ? वो और तेज़ चिल्लाई. आवारागर्दी करने... मैं मुस्कुराते हुए बोली. हँसी की आवाज़ आई मुझे. सुन लिया था उसने.

 साइकिल स्टेंड पर साईकिल निकालते वक़्त एक प्रश्नवाचक आवाज़ कानों से टकराई. ...लंका ? मैंने पलट कर देखा. एक दुबली पतली, प्यारी सी लड़की मेरी तरफ सवालिया आँखों से देख रही थी. कुछ परेशान सी थी. हाँ बोलो ? लंका जा रही हो तुम भी ? मैंने पूछा. बोली हाँ, बहुत देर से सोच रही थी कि जाऊं या न जाऊं. अँधेरा हो गया है, डर लग रहा था. डर...? चलो चलते हैं लंका. मैं तो यूँ ही निकली हूँ मौसम का मज़ा लेने. तुम्हें लंका तक कम्पनी दे दूंगी. खुश हो गई वो.

 मौसम सचमुच बहुत प्यारा था. एकदम रोमेंटिक. ठंडी हवा, हलकी बूंदें, गहराती शाम और फिर खूबसूरत यूनिवर्सिटी कैम्पस. उसे लंका गेट तक छोड़ने के बाद साइकिल मोड़ ली मैंने. बहुत मज़ा आ रहा था. कम ही होते हैं ऐसे मौके...इस तरह की आज़ादी इस कंज़र्वेटिव शहर में... हाफ पेंट्स! मेरी आज़ादी की कविता अधूरी रह गई. ये शब्द कहा से आया इस कविता में..? देखा, दो लड़के बाइक से निकले थे अभी. उनमें से एक अभी तक पीछे मुड़के मेरी टांगों को घूर रहा था. अपनी पाशविक मुस्कान के साथ. वितृष्णा नहीं हुई मुझे. सर झटक के साइकिल मोड़ दी मैंने गोल चक्कर से. 

 तेज़ हवा का झोंका आके मुझे प्यार से छू गया. तन ही नहीं, मन को भी. लगा जैसे माँ ने प्यार किया हो. मुस्कुरा दी मैं, फिर से. रास्ता काफी हद तक खाली था. इक्का दुक्का लोग ही थे बाहर. मैं आगे बढ़ गई. वीटी पर कुछ रौनक थी. कॉफ़ी और लस्सी में कॉम्पिटिशन जारी था शायद. सामने भारतीय प्रौद्योगिकी संसथान का बोर्ड था. अन्दर जाने को ही थी कि.. ये लोग इस तरह के कपडे पहनेंगी तो यही सब न होगा..हाफ पेंट्स...!!जलता हुआ सा कुछ गिरा कानों में.

 दी अदर साइड ऑफ़ दी साइलेंस...सेक्स...वायलेंस... डोमिनेंस...ओनरशिप...प्लैज़र...सुबह की क्लास में सुने बसु सर के शब्द मेरे इर्द गिर्द नाचने लगे थे... एक बार फिर कोशिश की सर झटक के आगे बढ़ने की. बढ़ भी गई. बहुत खूबसूरत है आई आई टी वाला हिस्सा. पर वो  सुनसान खालीपन... मुंबई की फोटो जर्नलिस्ट  चली आई आँखों के सामने...ज़िन्दगी के लिए जूझती सी. डर...! लंका तक कम्पनी चाहती लड़की का डर भी याद आ गया. साइकिल खुद ब खुद मुड़ गई वापस.

  तेरी आँखें..अब होंगी ना कभी नम. तू जो देख ले...ऐ दिल तू रोना नहीं...ये ख्वाब अधूरे नहीं. एक दिन आएगा...”  एक ओपन हाल में कुछ लड़के लड़कियां शायद किसी प्रोग्राम की तैयारी में व्यस्त थे. आदतन होठों ने फिर मुस्कुराने कि कोशिश की. पर कहाँ... कुछ नज़रें मेरी टांगों से टकराईं. कुछ आवाजें कानों से भी. हाँ वही ! वही शब्द था... हाफ पेंट्स !


Comments

  1. क्या बात,क्या बात। इतना खूबसूरत लेखने पढ़े अरसा बीत गया था। गजब। एक समस्या, जो समाज की है, मानसिक है। कानून बन जाएंगे तो शायद कुछ अपराधियों को सज़ा हो जाएगी, लेकिन कानून मानसिकताएं कहां बदल पाता है। कपड़ों से अगर घटनाएँ होती तो तीन साल की बच्ची और बूढ़ी औरते शिकार न बनती वहशियों का। बहुत शानदार लेखन..प्रदीपिका। आप लिखते रहें। बहुत बधाई।

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  2. this writing inspires in some vague manner. i know this fear very well but you can't let the fear define you, you are more than that.

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  3. so well written girl good keep going (Y)

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  4. दो चीजे कहूँगा
    पहली - एक स्त्री का चरित्र दर्पण सरीखा होता है पुरुष उसमे जो भी देखता वो उसी का प्रतिरूप होता या कहिये उसी पर निर्भर करता ।
    और दूसरी - अपराध शास्त्र कहता है कि अपराध का लोप किसी काल में नहीं हुआ न हो सकता है । स्वभाव के अतिरिक्त परिस्थति , अवसर अपराध के घटित होने के प्रमुख कारण है । सामाजिक चेतना या सामाजिक शर्म जैसा माहौल बना कर यौन अपराधों के कम होने की अपेक्षा करना अपनी जगह ठीक है । पर सावधानी भी आवश्यक है ...

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