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Showing posts from April, 2014

My first Film

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LADKIYAAN Here is my first attempt at film making. Making it was a learning experience. This film is not that good technically but is close to my heart as it is the first one. I'm sorry for the poor quality of sound and other issues with it but i still want you to spare 17 minutes from your busy schedule.  :)

मेरे लिए तुम

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अस्सी की सीढियों पर बीती सुरमई सुबह या कनॉट प्लेस पर गुज़री शर्मीली शाम हॉस्टल के कमरे की दीवार पर सैक्सोफोन बजाता लड़का या डिपार्टमेंट के पीपल के चबूतरे पर लिखा हुआ नाम धुंधलाता ताजमहल शिमला की सर्द हवा भीम की चाय, या किंगडम ऑफ़ ड्रीम्स का नीला आसमान सवाल ये नहीं कि इनमें से क्या हो मेरे लिए तुम सवाल ये है कि क्या क्या नहीं हो मेरे लिए तुम

एक चम्मच मुस्कान

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आज सूरज उगने पर मैंने देखा कि मेरा प्रेम ज़रा जल्दी जाग पड़ा कुछ देर रूक कर छोड़ दिया उसने सिराहना प्रिय के बिस्तर का आश्चर्य ! नहीं गया वो मलिन बस्तियों की ओर सत्यापित करने वसुधैव कुटुम्बकम का भारी भरकम सिद्धांत नहीं छुपा वो जाकर चाय का गिलास धोते बच्चे की उधड़ी जेब में नहीं उड़ाया आज उसने बुढ़ापे का मखौल वृद्धाश्रम के सालाना जलसे में कर्तव्य और सम्मान पर चुटीला भाषण देकर मैंने देखा आज उसने खटखटाया अनचीन्हा दरवाज़ा पड़ोसी के घर का और परोसी गई चाय की प्याली में घोल कर पी ली एक चम्मच खालिस मुस्कान

क्यों ?

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बिहारी, प्रीतम, और बच्चन बहुत कुछ लिखा तुमने प्रेम पर और उन पर भी जो प्रेम करते हैं प्रेम में व्याकुल नायक पर विरह में जलती नायिका पर पर बोलो क्यों नहीं लिखा तुमने प्रेम का अभिनय करने वालों पर प्रेम को छलने वालों पर उन पर जो एक साथ कई प्रेम करते हैं और उपलब्धता के आधार पर एक को चुनते हैं क्यों ?

एहसास के पंछी

उन हाथों की सुलगती हुई नर्मी का नम होता एहसास आज भी है कहीं क़ैद वक़्त के पुराने पिंजरे में जिन हाथों ने ढका था कभी ठण्ड से कंपकंपाते मेरे कमज़ोर हाथों को जाने क्यूँ खुलते ही नहीं लम्हों के ये ताले कितना भी चाहो आज़ाद नहीं होते एहसास के ये पंछी छुपा देती हूँ इन्हें पिंजरे के साथ दूर कहीं नज़र अन्दाज़ियों के जंगल में  और में देखती हूँ कि मेरे हाथ अब कमज़ोर नहीं