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आँचल तो सबका मैला है...

उम्र के उस पड़ाव पर, जब आपके ज़ाती सवाल बार-बार आपके सामने आकर खड़े होने लगते हैं और आइडियल-प्रैक्टिकल के बीच की पथरीली जंमीन नापकर थके आपके कदम किसी सच्चे हमदर्द का सहारा लेकर कुछ देर रुक जाना चाहें तो फिर एक अच्छी किताब से बेहतर हमदर्द मिलना मुश्किल है. अभी-अभी मैला आँचल पढ़ी. अपनी ज़मीन अपनी मिट्टी की कहानी, अपने लोगों की कहानी. अपने लोग - ये फायदे के लिए गुटबंदी करते हैं पर दूसरे के दर्द में रो भी देते हैं. गुमराह होकर जान ले लेते हैं तो एक यकीन की खातिर मर मिटने में भी इन्हैं मुश्किल नहीं मालूम होती. हजार कमी-परेशानी, झगड़े-लड़ाई के बाद भी वक्त आने पर एक हो जाने वाले लोग. वजह होने पर नफरत, तो बिना वजह प्यार करने वाले लोग...अपने लोग. पर लोग तो हर जगह ऐसे ही होते हैं. हैं ना? हर गाम, गली, मुहल्ले में. ना ना...शहर में नहीं होते. वहां लोग नहीं रहते, इंडिविजुअल्स रहते हैं. कई बार तो ये भी पता नहीं होता कि बगल वाले फ्लैट या ऊपर वाले माले पर कौन रहता है. तो फिर शहरों में रहने वाले होते कैसे हैं? कमाल है, आप नहीं जानते? यहां रहते हैं हमारे ही जैसे अकेले-अधूरे इंसान, जो आजाद-खयाल तो...