आँचल तो सबका मैला है...
उम्र के उस पड़ाव पर, जब आपके ज़ाती सवाल बार-बार आपके सामने आकर खड़े होने लगते हैं और आइडियल-प्रैक्टिकल के बीच की पथरीली जंमीन नापकर थके आपके कदम किसी सच्चे हमदर्द का सहारा लेकर कुछ देर रुक जाना चाहें तो फिर एक अच्छी किताब से बेहतर हमदर्द मिलना मुश्किल है.
अभी-अभी मैला आँचल पढ़ी. अपनी ज़मीन अपनी मिट्टी की कहानी, अपने लोगों की कहानी. अपने लोग - ये फायदे के लिए गुटबंदी करते हैं पर दूसरे के दर्द में रो भी देते हैं. गुमराह होकर जान ले लेते हैं तो एक यकीन की खातिर मर मिटने में भी इन्हैं मुश्किल नहीं मालूम होती. हजार कमी-परेशानी, झगड़े-लड़ाई के बाद भी वक्त आने पर एक हो जाने वाले लोग. वजह होने पर नफरत, तो बिना वजह प्यार करने वाले लोग...अपने लोग.
पर लोग तो हर जगह ऐसे ही होते हैं. हैं ना? हर गाम, गली, मुहल्ले में. ना ना...शहर में नहीं होते. वहां लोग नहीं रहते, इंडिविजुअल्स रहते हैं. कई बार तो ये भी पता नहीं होता कि बगल वाले फ्लैट या ऊपर वाले माले पर कौन रहता है. तो फिर शहरों में रहने वाले होते कैसे हैं? कमाल है, आप नहीं जानते?
यहां रहते हैं हमारे ही जैसे अकेले-अधूरे इंसान, जो आजाद-खयाल तो हैं पर आजादी का मतलब जिनके लिए अक्सर मोटी तनख्वाह, बड़ा घर, गा़ड़ी, दारु, सिगरेट पार्टी और बॉलीवुड फिल्मों वाली 'कूल' लाइफ स्टाइल की जुगा़ड़ भर रह जाता है. किसी की खुशी, दर्द, आंसू, जिंदगी या मौत पर इनकी प्रतिक्रिया 'Aww' या 'रियली?' से आगे नहीं जा पाती.
पर इसके लिए जिम्मेदार ये नहीं. परवरिश का खोट है. कभी इनके परिवारों को इन्हें अपनी 'मिट्टी' का मोल समझाने का वक्त नहीं रहा होगा, आज इनके पास भी वक्त नहीं साथ रोने, हंसने, समझने और प्यार करने के लिए. अपनी सूखती जड़ों को मुट्ठी भर मिट्टी या अंजुलि भर पानी देने केे लिए.
हम तो दौड़े जा रहे हैं? कहां? अरे वहीं! जहां सब जा रहे हैं. और 'वो जगह जहां सब जा रहे हैं', कहां है, किसी को नहीं पता.
सवाल तो यही है कि हमें जाना कहां है?
अपनी ही बात करुं तो मैं गांव जाना चाहती हूं. वहां की जमीन, हवा और पानी को महसूस करना चाहती हूं, सुकून से. पर सुकून...? ये कोई आसमानी परिंदा तो नहीं, जिसे थोड़ी कोशिश कर के कैद कर लिया और फिर सारी मुश्किलें हल. सुकून तो कहीं अदर ही मौजूद जिसे खोजना शायद दुनिया का सबसे मुश्किल काम है.
मौका मिला था एक बार गांव जाकर रहने का. मध्यप्रदेश के मंडला जिले के एक खूबसूरत आदिवासी वनग्राम में रहना था, पर एक रात तक नहीं बिता पाई थी वहां. अपना गांव अपना घर बहुत याद आया था. पर जरा दूर हट कर देखें तो अपने और पराए का फरक भी बस समझ का खेल भर है, आज समझ आता है, उस दिन नहीं समझ पाई थी.
फिर एक और गांव में जाकर कुछ हफ्ते बिताए थे. एक आदिवासिन की झोंपड़ी में, उसके दो बच्चों, गाय-बैलों के साथ. कुल पांच टोलों का गांव था. गांव के बीच से बहता था एक मीठे पानी का नाला. और मिट्टी की खुशबू से के बीच हो कर भी पता नहीं कौन से सुकून की तलाश में, मैं उस नाले के किसी पत्थर पर बैठी गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स पढ़ा करती थी.
पर किताबों में सुकून खोजने वालों को जवाब कम सवाल ही ज्यादा मिले हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि हम इतने बंटे हुए क्यों हैं, हम सबको प्यार क्यों नहीं कर सकते?
रेणु की किताब जिस तरह की दुनिया को हमारे सामने रखती है, रॉय की किताब उसी दुनिया के कायदे कानूनों की पड़ताल करती है. दो अलग-अलग अंचल, दो अलग भाषाएं पर एक जैसे सवाल. आखिर किसने हमारी गांव कूंचे को गरीब और अमीर के खांचे में बांट कर प्यार के नियम-कायदे बना दिये, और आखिर क्यों और कब?
आँचल तो हम सब का मैला है पर इस मैल को उजला दिखाने की कोशिश क्यों? सच-झूठ, अच्छाई बुराई हम सब में है, तो अपने सच को दूसरे के सच से सच्चा और दूसरे के झूठ को अपने झूठ से झूठा साबित कर आखिर हम पाना क्या चाहते हैं?
अभी-अभी मैला आँचल पढ़ी. अपनी ज़मीन अपनी मिट्टी की कहानी, अपने लोगों की कहानी. अपने लोग - ये फायदे के लिए गुटबंदी करते हैं पर दूसरे के दर्द में रो भी देते हैं. गुमराह होकर जान ले लेते हैं तो एक यकीन की खातिर मर मिटने में भी इन्हैं मुश्किल नहीं मालूम होती. हजार कमी-परेशानी, झगड़े-लड़ाई के बाद भी वक्त आने पर एक हो जाने वाले लोग. वजह होने पर नफरत, तो बिना वजह प्यार करने वाले लोग...अपने लोग.
पर लोग तो हर जगह ऐसे ही होते हैं. हैं ना? हर गाम, गली, मुहल्ले में. ना ना...शहर में नहीं होते. वहां लोग नहीं रहते, इंडिविजुअल्स रहते हैं. कई बार तो ये भी पता नहीं होता कि बगल वाले फ्लैट या ऊपर वाले माले पर कौन रहता है. तो फिर शहरों में रहने वाले होते कैसे हैं? कमाल है, आप नहीं जानते?
यहां रहते हैं हमारे ही जैसे अकेले-अधूरे इंसान, जो आजाद-खयाल तो हैं पर आजादी का मतलब जिनके लिए अक्सर मोटी तनख्वाह, बड़ा घर, गा़ड़ी, दारु, सिगरेट पार्टी और बॉलीवुड फिल्मों वाली 'कूल' लाइफ स्टाइल की जुगा़ड़ भर रह जाता है. किसी की खुशी, दर्द, आंसू, जिंदगी या मौत पर इनकी प्रतिक्रिया 'Aww' या 'रियली?' से आगे नहीं जा पाती.
पर इसके लिए जिम्मेदार ये नहीं. परवरिश का खोट है. कभी इनके परिवारों को इन्हें अपनी 'मिट्टी' का मोल समझाने का वक्त नहीं रहा होगा, आज इनके पास भी वक्त नहीं साथ रोने, हंसने, समझने और प्यार करने के लिए. अपनी सूखती जड़ों को मुट्ठी भर मिट्टी या अंजुलि भर पानी देने केे लिए.
हम तो दौड़े जा रहे हैं? कहां? अरे वहीं! जहां सब जा रहे हैं. और 'वो जगह जहां सब जा रहे हैं', कहां है, किसी को नहीं पता.
सवाल तो यही है कि हमें जाना कहां है?
अपनी ही बात करुं तो मैं गांव जाना चाहती हूं. वहां की जमीन, हवा और पानी को महसूस करना चाहती हूं, सुकून से. पर सुकून...? ये कोई आसमानी परिंदा तो नहीं, जिसे थोड़ी कोशिश कर के कैद कर लिया और फिर सारी मुश्किलें हल. सुकून तो कहीं अदर ही मौजूद जिसे खोजना शायद दुनिया का सबसे मुश्किल काम है.
मौका मिला था एक बार गांव जाकर रहने का. मध्यप्रदेश के मंडला जिले के एक खूबसूरत आदिवासी वनग्राम में रहना था, पर एक रात तक नहीं बिता पाई थी वहां. अपना गांव अपना घर बहुत याद आया था. पर जरा दूर हट कर देखें तो अपने और पराए का फरक भी बस समझ का खेल भर है, आज समझ आता है, उस दिन नहीं समझ पाई थी.
फिर एक और गांव में जाकर कुछ हफ्ते बिताए थे. एक आदिवासिन की झोंपड़ी में, उसके दो बच्चों, गाय-बैलों के साथ. कुल पांच टोलों का गांव था. गांव के बीच से बहता था एक मीठे पानी का नाला. और मिट्टी की खुशबू से के बीच हो कर भी पता नहीं कौन से सुकून की तलाश में, मैं उस नाले के किसी पत्थर पर बैठी गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स पढ़ा करती थी.
पर किताबों में सुकून खोजने वालों को जवाब कम सवाल ही ज्यादा मिले हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि हम इतने बंटे हुए क्यों हैं, हम सबको प्यार क्यों नहीं कर सकते?
रेणु की किताब जिस तरह की दुनिया को हमारे सामने रखती है, रॉय की किताब उसी दुनिया के कायदे कानूनों की पड़ताल करती है. दो अलग-अलग अंचल, दो अलग भाषाएं पर एक जैसे सवाल. आखिर किसने हमारी गांव कूंचे को गरीब और अमीर के खांचे में बांट कर प्यार के नियम-कायदे बना दिये, और आखिर क्यों और कब?
"पर यह कहना, कि यह सब सोफी मोल की मौत से शुरू हुआ, यह इसे देखने का बस एक नजरिया भर है. यह भी तो कहा जा सकता है कि दरअसल यह सब हजारों साल पहले ही शुरू हो गया था. मार्क्सवादियों के आने से बहुत पहले. अंग्रेजों के मलाबार पर कब्जा करने से पहले, पुर्तगालियों के आने से पहले, उससे भी पहले जब वास्को डि गामा यहां आया था या फिर जमोरिन ने कालीकट को जीता था. उससे भी कहीं पहले जब बैंगनी कपड़े पहने तीन सीरियाई पादरियों को पुर्तगालियों ने मार दिया था और समंदर में तैरती उनकी लाशों पर सांप लिपटे हुए मिले थे और दाढ़ियों में सीपियां उलझी थीं. यह भी कहा जा सकता है कि ये उस से भी पहले हुआ था जब ईसाईयत नाव में सवार हो कर आई और पूरे केरल में ऐसे फैल गई जैसे चाय के कप में पड़े टी-बैग से चाय फैलती है. कि ये तब शुरू हुआ जब प्यार के नियम बनाए गए थे. नियम, जो ये बताते हैं कि किसे प्यार किया जाना चाहिए, कैसे किया जाना चाहिए और कितना किया जाना चाहिए. और वो भी, निराशावाद की हद तक व्यावहारिक इस दुनिया में व्यावहारिक कारणों से..."- गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स, अरुंधती रॉय
आँचल तो हम सब का मैला है पर इस मैल को उजला दिखाने की कोशिश क्यों? सच-झूठ, अच्छाई बुराई हम सब में है, तो अपने सच को दूसरे के सच से सच्चा और दूसरे के झूठ को अपने झूठ से झूठा साबित कर आखिर हम पाना क्या चाहते हैं?
We need to get a real freedom inside ,a being having real freedom actually must meet the standard of being always happy and making others happy. We must never have anger, never fight with others, never struggle with others, and we must love others completely. We must own the moment ,we must attain this standard to be really free.
ReplyDelete