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इनफ़िडल

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अगर ये कहानी, ‘एक लड़की थी’ से शुरू होगी तो क्या आप इसे पढ़ैंगे? शायद हाँ, शायद नहीं. पर ये कहानी एक लड़की थी से ही शुरू होती है. कहानी मेरी है. लेकिन शुरू इस लड़की से होती है. मैं उन दिनों खुद से भी बातचीत बंद कर चुका था जब उसने मुझे मैसेज किया था कि मैं ज़िरो घाटी हूँ और अब मुझे आगे कहाँ जाना चाहिए. वो उस अनसुनी-अनदेखी जगह तक पहुँचने का रास्ता जानना चाहती थी, जिसका मैंने किसी मुलाक़ात में ज़िक्र किया था. मिथुन जानवरों और केले के जंगली पेड़ों से भरी उस घाटी में धान की नई फ़सलों से गुज़रते हुए उसे देख रहा था मैं, बिना किसी कैमरे, बिना किसी कोशिश के. मैं पश्चिमी घाट के समंदर के किनारे टिका हुआ था, जब मुझे उसका मैसेज मिला. मुझे उसके पागलपन पर ज़रा भी हैरत नहीं हुई थी. बस यही पागलपन तो है जो हम दोनों के बीच एक सा है. उसने मुझे बताया था कि वो अकेली नहीं थी, कोई था उसके साथ. मैं नहीं जानना चाहता था कि उसके साथ कौन था. मैं ये भी नहीं जानना चाहता था कि वो कहाँ थी, क्यों थी. मैं उसके बारे में, अपने बारे में कुछ भी नहीं जानना चाहता था. क्योंकि कुछ जानने की शुरूआत के बाद, अगर दिलचस्पी हो...

तन तंबूरा तार मन...

कभी देखा है किनारे की रेत को? उस पर से जब पानी लौट जाता है तो वो आईने जैसी हो जाती है। उसका अपना वजूद ढक जाता है और हर गुज़रते आदमी की नज़र उसमें अपनी सूरत देखने के लिए एक पल को ही सही, ठहरती ज़रूर है। मुझे खुद को देख कर इन दिनों ऐसा ही लगता है। समंदर मुझे छूकर लौट गया है और मैं शीशे की हो गई हूं। तमाम लोग मुझ में अपना कोई चेहरा देख जाते हैं और मैं… बस यूं ही एकरस खड़ी रह जाती हूं। न। इन दिनों कोई तो रस घुलते पाया है मैंने खुद में। आईने पर जैसे भाप सी जम जाती है इन दिनों, बिलकुल वैसे जैसे दिल्ली की सर्दियों में गरम पानी से नहाते वक्त शीशे पर जम जाया करती थी। इधर समंदर के पास सर्दियां नहीं है। पर भाप है। जब से उसे देखा है, मैं सब कुछ में उसी को देखने लगी हूं। या उससे मिलते-जुलते किसी और को। अभी सूरज ढलने में वक्त है। धूप सीधे चेहरों पर पड़ रही है। रेत की पूरी चादर विदेशी सैलानियों से भरी हुई है। सैलानी तो क्या ही कहूं इन्हें प्रवासी कहूं तो बेहतर होगा। सूरज और समंदर में डूबे हुए ये रूसी यहां महीनों रह जाते हैं। प्रवासी पक्षियों की तरह। पिछले तीन दिनों से इधर हलचल कुछ ज़्यादा बढ़ गई...