तन तंबूरा तार मन...

कभी देखा है किनारे की रेत को? उस पर से जब पानी लौट जाता है तो वो आईने जैसी हो जाती है। उसका अपना वजूद ढक जाता है और हर गुज़रते आदमी की नज़र उसमें अपनी सूरत देखने के लिए एक पल को ही सही, ठहरती ज़रूर है। मुझे खुद को देख कर इन दिनों ऐसा ही लगता है। समंदर मुझे छूकर लौट गया है और मैं शीशे की हो गई हूं। तमाम लोग मुझ में अपना कोई चेहरा देख जाते हैं और मैं… बस यूं ही एकरस खड़ी रह जाती हूं।
न। इन दिनों कोई तो रस घुलते पाया है मैंने खुद में। आईने पर जैसे भाप सी जम जाती है इन दिनों, बिलकुल वैसे जैसे दिल्ली की सर्दियों में गरम पानी से नहाते वक्त शीशे पर जम जाया करती थी। इधर समंदर के पास सर्दियां नहीं है। पर भाप है। जब से उसे देखा है, मैं सब कुछ में उसी को देखने लगी हूं। या उससे मिलते-जुलते किसी और को।
अभी सूरज ढलने में वक्त है। धूप सीधे चेहरों पर पड़ रही है। रेत की पूरी चादर विदेशी सैलानियों से भरी हुई है। सैलानी तो क्या ही कहूं इन्हें प्रवासी कहूं तो बेहतर होगा। सूरज और समंदर में डूबे हुए ये रूसी यहां महीनों रह जाते हैं। प्रवासी पक्षियों की तरह। पिछले तीन दिनों से इधर हलचल कुछ ज़्यादा बढ़ गई है। न, न। मैं कोई नई कॉन्सपिरेसी थ्योरी नहीं बना रही हूं। बस, देख रही हूं कि छब्बीस जनवरी के बाद से कुछ ज़्यादा लोग दिख रहे हैं इधर।
आज फिर वही यूक्रेनियन अपनी किशोर बेटी को योग के नए आसन सिखा रहा है। कोई 12-13 साल की लड़की कुछ देर पिता के निर्देश सुनती है तो कभी बटोरी हुई सीपियों को उलटने-पलटने लगती है। आज उसमें पिछले दिनों जैसी तन्मयता नहीं है। शायद अब वह इस उनींदे समुद्री गांव की ज़िंदगी से थकने लगी है। मुझे उसकी चंचल आंखों में वही आंखें दिख रही हैं। ताज़ा-ताज़ा पांच साल के हुए साशा की आंखें। अरे, साशा नहीं सिद्धार्थ। उसके पारिवारिक गुरू ने पूरे परिवार को हिंदी नाम दिए हैं। साशा को अब सिर्फ नए नाम से बुलाया जाना अच्छा लगता है। मैं साशा को, नहीं सिद्धार्थ को फिर से देखना चाहती हूं। हां, मैं सिद्धार्थ की आड़ में किसी और को नहीं देखना चाहती। नहीं। मैंने कोशिश कर के अपनी भिंची हुई मुट्ठियाँ खोल ली हैं। पर चेहरे पर खिंची तनाव की चादर को खींच कर दूर फेंक देने की कोशिश इस बार भी कामयाब नहीं हुई है।
मेरे कदमों की रफ़्तार अचानक बढ़ गई है। मन की बेचैनी को मन तो नज़रअंदाज़ कर देगा पर तन का क्या? उसे बरगलाना इतना भी आसान नहीं। ‘डू नॉट लेट योर माइंड प्ले विद यू।’ मैं उसका निर्देश हज़ारवीं बार खुद को देती हूँ। मैं किसी तरह के सवालों में नहीं पड़ना चाहती। सूरज डूबने के इंतज़ार में रेत पर बैठे तमाम जोड़ों के बीच से जाकर मेरी नज़र उस छह फुटे रूसी पर जा टिकी है जो अपनी लंबी बांहों में अपने नन्हे बच्चे का पालना लेकर झुला रहा है। झुला क्या रहा है खुद ही झूम रहा है। बच्चे को सीधे बाहों में लेकर भी तो झुलाया जा सकता था, कभी चुप न होने वाला मेरा दिमाग सवाल करता है। पर बांहों में लेकर झुलाना सिर्फ माँओं को ही आता, नए पिताओं को तो डर ही इतना लगता है कि नन्हीं सी जान को कुछ हो गया तो? मेरे गले में कुछ फंस रहा है, नमक की डली सा कुछ। और सीने में जैसे कोई भंवर बनने लगा है जहां लहरें जाकर फंस जाती हैं, वापस नहीं आ पाती। न जाने कब से सब कुछ सीने में जाकर फंस ही तो रहा है। कुछ भी वापस नहीं लौटा है। पर आज इतने दिन बाद मैं क्यों देख रही हूँ यह सब कुछ। आह! कोशिश करने पर भी शीशे पर जमी भाप नहीं हट पा रही है। मैं अब खुद को अकेले देखने के लिए मजबूर होती जा रही हूँ। समंदर मेरी ओर आ रहा है क्या? मैं डूब रही हूँ?
नहीं। पानी के वेग को समझ लिया है मैंने। पर लहरें मेरे साथ कुछ और देर खेलना चाहती हैं। मेरे थके हुए, पर तेज़-रफ़्तार कदम गीली रेत के किनारे पर हैं, मगर समंदर ने अचानक पैंतरा बदला और लहरों को मेरी ओर फेंक दिया। एक समंदर मेरे भीतर भी है। इसी समंदर का कोई छूटा हुआ हिस्सा। मैं बच के भाग निकलती हूँ। बेचारा समंदर इस बार भी मेरे पांव भिगोते-भिगोते रह जाता है। समंदर से जीतने की ज़िद में कहीं खुद से तो हार नहीं रही हूँ न मैं? ये सवाल खत्म क्यों नहीं होते? सामने कुछ गोरे बच्चे पानी में उतर गए हैं। तीनों भाई-बहन हैं। सबसे छोटा लगभग दो का होगा। रिज जितना। नहीं। दो का तो वह पिछले साल था। अब तो तीन का होने को होगा। मैं आज बावली क्यों हो रही हूँ। ये नाम जिसे मैंने साल भर में खुद से दूर करने की कोशिश की है वह आज क्यों मुझे जकड़ कर अपने करीब खींच रहा है?
रिज की छोटी नीली गाड़ी समंदर ने छीन ली है और वह चिल्ला के रो पड़ा है। आह। वह रिज नहीं है। वह तो सिद्धार्थ भी नहीं है। मैं उसी की तरह फूट-फूट के रोना चाहती हूँ। रिज अब चुप हो गया है। समंदर बच्चों को नहीं रुलाता। पर बड़ों को? समंदर ने अगली पाली में उसकी गाड़ी लौटा दी है। ‘समंदर अपने पास कुछ नहीं रखता, सब लौटा देता है…,’ मुझे लगता है अभी-अभी उसने मेरे कानों में फिर से दोहराया है। मैं समंदर से पूछना चाहती हूँ कि क्या वह उसे भी सचमुच लौटा देगा?  मैं पंजों के बल खड़ी होकर समंदर के उस पार की ज़मीन देखने की कोशिश करती हूँ। मेरी सांसें रुकने लगी हैं। गले में नमक की डली तीखी होती जा रही है और सीने का भंवर गहरा होकर रगों में दौड़ता खून भी सोखने लगा है। क्या मुझे कुछ देर रेत पर बैठ जाना चाहिए?
मैं आंखें बंद किए रेत पर बैठी हूँ। मुझे खबर नहीं कि सूरज डूबा है या नहीं। मैं उन तस्वीरों और आवाज़ों से लड़ रही हूँ जिनके निशान मिटाए जा चुके हैं। ‘ तुम्हारे पास मौजूद मेरी एक तस्वीरे भी मेरी जान ले सकती है। और तुम्हारी भी।’ मैं फिर से उसकी आवाज़ सुनती हूँ। मैं इस आवाज़ को सुनती रहना चाहती हूँ। पर वह रिज के बारे में कुछ क्यों नहीं कहता? मैं उसकी आवाज़ में रिज का नाम सुनना चाहती हूँ। पूरा नाम। अर्जुन पारिजात गिल। पर आखिरी बार मैंने खुज कब रिज का नाम लिया था? और पारिजात का? नहीं। मुझे उसके लौट आने तक उसका नाम लेने की मनाही है। उसके बेटे के सामने भी? हाँ। अब बस। समंदर मेरे ऊपर से गुज़र रहा है और ज़मीन का अहसास मैं खो चुकी हूँ।
रिज मेरा कंधा पकड़ कर हिला रहा है। रिज, इधर, मामा के पास आओ मेरी जान। मैं आंखें खोलती हूँ। सिद्धार्थ है। उसकी उंगली पर दांतों के निशान हैं। साथ खेलते बच्चे ने नाराज़ होकर काट खाया है। दोनों के मां-बाप पानी में उतर चुके हैं। मुझे पहचान कर सिद्धार्थ मुझसे शिकायत करने आया है। मैं उसे गोद में बैठाना चाहती हूँ। पर यह रूसी बच्चा सहानुभूति नहीं चाहता। वह थोड़ी देर मुझे देखता है और फिर वापस दौड़ कर रेत का महल बनाने में जुट जाता है। मेरी गोद उसके स्पर्श को महसूस करना चाहती है। मैं फिर सोच रही हूँ कि मन को तो भरमा लूँ पर तन का क्या?
नारियल के झुरमुट के पीछे से चांद ऊपर चढ़ आया है। रेत की चादर लगभग खाली है। मैं वापस कमरे तक नहीं जाना चाहती। चांदनी में उस यूक्रेनियन बच्ची की बटोरी हुई सीपियां पास ही चमक रही हैं। हवा पहले से ज़्यादा तेज़ और ठंडी हो गई है। मछुआरों की नावों पर चमकती हुई रौशनियां मुझे समंदर की तरफ खींच रही हैं। ऐसी ही किसी नाव पर मेरी किसमत लिखी गई होगी। ‘किसमत कोई पहले से लिखा हुआ दस्तावेज नहीं है। हम अपनी किसमत रोज खुद लिखते हैं... और अपने मुल्क की भी।’ मैं समंदर की आवाज़ में उसे सुनती हूँ, उसकी मुस्कुराहट को भी। ‘इंतज़ार लंबा है। आसान नहीं होगा। ट्राइ टू मूव ऑन.’ कितनी कोशिश की है मूव ऑन करने की। एक औरत के लिए आदमी से आगे बढ़ना शायद आसान होगा पर एक मां की बच्चे से आगे बढ़ने की कोशिश का उसे अंदाज़ा तक नहीं होगा? क्या सचमुच उसे पता होगा रिज के बारे में?
मैं पानी की तरफ बढ़ रही हूँ। उसकी आवाज़ में रिज की आवाज़ घुलने लगी है। उसकी खनकती हुई मीठी आवाज़। मैं उन दोनों को एक साथ गले लगाना चाहती हूँ। समंदर बुला रहा है। माइ माइंड इज़ नॉट प्लेइंग विद मी। यह मन की नहीं तन की तलाश है। आज रात मैं बिना उन दोनों को गले लगाए वापस नहीं लौटूंगी।

यह कहानी सबसे पहले जानकीपुल पर प्रकाशित की गई है।

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