तन तंबूरा तार मन...
कभी देखा है किनारे की रेत को? उस पर से जब पानी लौट जाता है तो वो आईने जैसी हो जाती है। उसका अपना वजूद ढक जाता है और हर गुज़रते आदमी की नज़र उसमें अपनी सूरत देखने के लिए एक पल को ही सही, ठहरती ज़रूर है। मुझे खुद को देख कर इन दिनों ऐसा ही लगता है। समंदर मुझे छूकर लौट गया है और मैं शीशे की हो गई हूं। तमाम लोग मुझ में अपना कोई चेहरा देख जाते हैं और मैं… बस यूं ही एकरस खड़ी रह जाती हूं। न। इन दिनों कोई तो रस घुलते पाया है मैंने खुद में। आईने पर जैसे भाप सी जम जाती है इन दिनों, बिलकुल वैसे जैसे दिल्ली की सर्दियों में गरम पानी से नहाते वक्त शीशे पर जम जाया करती थी। इधर समंदर के पास सर्दियां नहीं है। पर भाप है। जब से उसे देखा है, मैं सब कुछ में उसी को देखने लगी हूं। या उससे मिलते-जुलते किसी और को। अभी सूरज ढलने में वक्त है। धूप सीधे चेहरों पर पड़ रही है। रेत की पूरी चादर विदेशी सैलानियों से भरी हुई है। सैलानी तो क्या ही कहूं इन्हें प्रवासी कहूं तो बेहतर होगा। सूरज और समंदर में डूबे हुए ये रूसी यहां महीनों रह जाते हैं। प्रवासी पक्षियों की तरह। पिछले तीन दिनों से इधर हलचल कुछ ज़्यादा बढ़ गई...