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नवंबर डायरी, दिल्ली 2023

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  नवंबर सात मैं अपनी मेज़ पर हूँ , मेरा बदन इस वक़्त न जाने कितने अहसासों का पुतला है . जुनून , ख्वाहिश , तलब . छोटा पुराना स्पीकर एक रोमानी गाना बजा रहा है — अपनी जड़ों से बिछड़े , एक अनजान सफ़र में भटकते , मगर हर एक लमहे को अपनी जान के आख़िरी क़तरे की तड़प के साथ जीते हुए लोगों का गीत . अभी कुछ देर पहले मैंने लिखा कि मैं चाहती हूँ कि मैं किसी के ( मज़बूत मगर नर्म ) इख़्तियार में रहूँ . अकेले और आज़ाद होने की थकन बढ़ती जा रही है . ये बहुत औरताना ज़रूरत है . मैं देख रहूी हूँ कि मेरा लिखा किसी तर्जुमे जैसे मालूम होता है . सच भी है . मैं जिस भाषा में पढ़ रही हूँ , उसी भाषा में महसूस कर रही हूँ . मेरी कोई भाषा ही नहीं . जिसने माँ न देखी हो उसकी मादरी ज़बान कोई हो सकती है क्या ? मैं इन रोमानियों के क़ाफ़िलों से जुड़ाव महसूस करती हूँ . पिछले पैरा की पहली दो बातें मैंने अंग्रेज़ी में लिखीं . फिर उन्हीं दो बातों को हिंदी में लिखा . आसान नहीं ल...