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Showing posts from January, 2014

इन ख्वाहिशों से कह दो कहीं और जा बसें...

जनवरी का आख़िरी सप्ताह है , गुलाबी ठण्ड है और   मैं भदैनी घाट की सीढ़ियों पर बैठी हुई हूँ.   गंगा किनारे घाट की सीढ़ियों पर बैठना मुझे तब से ही बहुत पसंद रहा है जब मैं पहली बार बनारस आई थी. युनिवर्सिटी आने के बाद तो   मेरी कितनी ही शामें   अस्सी   पर बीती हैं. सर्दी की गुनगुनी धूप हो , डायरी हो , कलम हो , गंगा का किनारा हो , बनारस में इससे ज़्यादा और क्या चाहिए.   घाट की जिस सीढ़ी पर अभी मेरे पाँव हैं उससे अगली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है. माफ़ी चाहती हूँ पानी में नहीं , ' गंगाजल ' में. गंगाजल , जिसे   स्पर्श   कर लोग जीवन चक्र से मुक्त हो जाने की आकांक्षा रखते हैं. सचमुच जादू होता है न स्पर्श में !! सोच रही हूँ कि मैं भी छू पाती गंगा को. मुझे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं है. मैं कुछ   चाह रही हूँ तो बस इतना ही कि एक सीढ़ी और नीचे उतर कर अपने पाँव  ' गंगाजल ' में डुबा कर प्रकृति के कोमल स्पर्श का जादू कुछ देर महसूस कर सकूँ. पर मैं ऐसा नहीं कर पा रही हूँ.   माना कि मैं विवश हूँ और एक सीढ़ी नीचे उतर कर अपने पाँव गंगाजल में नहीं डुबा सकती...

रविवार या सन्डे...?

 आज रविवार है. रविवार ! सुन के कुछ जाना पहचाना सा लग रहा है न ये शब्द. हाँ सन्डे और मंडे वाली जीवन शैली में रविवार जैसे  रास्ता भटक कर कहीं खो गया है. और नहीं तो क्या. पहले रविवार माने होता था स्कूल की छुट्टी होने पर भी सुबह सुबह उठ जाना. पापाजी का ऑफिस न जाना. रविवार का मतलब होता था रंगोली और श्री कृष्णा और आर्यमान. रविवार का मतलब होता था सुबह की धूप का खिड़की से कमरे तक आना. हाँ, क्यूंकि बाकी दिनों इस धूप को कमरे तक आते देखने के लिए हम घर में कहाँ रुक पाते थे, स्कूल जो जाना होता था. रविवार का मतलब होता था रूटीन से अलग स्पेशल खाना. और हाँ मेरे लिए रविवार का एक और बहुत खास मतलब होता था. और वो था दैनिक समाचार पत्र का रविवासरीय अंक, जिसके लिए हम भाई बहन आपस में खींचतान करते थे. किसी को उसमें कहानी पढनी होती थी, किसी को राशिफल. किसी को हेनरी पढना होता था तो किसी को वर्ग पहेली सबसे पहले हल कर के सबसे बुद्धिमान होने का ख़िताब पाना होता था. पांचवीं क्लास के बाद उस तरह का रविवार आना बहुत कम हो गया. हम बोर्डिंग में रहने जो चले गए. हम यानि मैं और दीपिका, मेरी बहन. हाँ घर पर वो रविवार ...