अपनी जान किसी के नाम...
ख़ाली काग़ज़ भी साफ़ दिल जैसा होता है जिस पर लिख सकते हैं अपनी जान किसी के नाम... -अमृता प्रीतम किसी के प्यार में लिखे हुए ख़त कितने ख़ूबसूरत हो सकते हैं ये मैंने ‘ख़तों का सफरनामा' पढ़ते हुए महसूस किया. अमृता और इमरोज़ के ख़त एक दूसरे के नाम. प्यार की चाशनी में डूबे, हज़ार दर्द, शिक़वे-शिक़ायतें समेटने के बावज़ूद इतने दिलक़श कि उफ़!! ख़ूबसूरती शायद अधूरे होने में ही है. पूरा होना तो जैसे ख़त्म हो जाना है, फ़िल्म के दी एंड की तरह. अधूरापन ही तो है इन ख़तों में जो दोनों को पूरा कर रहा है. अपनी बात कह पाने की ख्वाहिश, उसकी बात सुन पाने की आरज़ू. दोनों के पूरा होने के सुकून की उम्मीद. ये सुनने का इंतजार कि कोई उसकी याद को ज़िन्दगी की तरह जी रहा है और ये कहने की बेक़रारी भी कि तुम जीते रहोगे तो मैं भी ज़िन्दा हूँ. अपने हर ख़याल को काग़ज़ पर उकेर देने की तड़प, पानी में डूबते वक़्त सांस ले पाने की तड़प से ज़रा भी कमतर नहीं दिखती. दुनिया के किसी भी कोने में, कितनी भी नेमतों के बीच दिल से अगर जाता नहीं तो बस एक ख्याल... ‘तुम कहाँ हो? कैसे हो? क्या कर रहे हो?’ बस एक चुपचाप सी ख्वाहिश... ‘काश...