श्रीनगर से बनारस को चिट्ठी
डियर बनारस,
पता है हमेशा की तरह मज़े मैं ही होगे तुम. और ये भी पता है कि जब भी तुम मुझे याद करते होगे एक ज़ोरदार ठहाका लगाकर हंस पड़ते होगे. जैसे तुम फक्कड़ हो तुम्हारे तरीके भी वैसे ही हैं. नाराज़ भी होगे मुझसे तो बताओगे थोड़े ही, बस जब वापस लौटने पर मिल कर गले लगाओगे तो पकड़ थोड़ी और मजबूत हो जाएगी तुम्हारी.
खैर, मैं यहां ठीक होकर भी ठीक नहीं हूं. पहले पहल श्रीनगर से मिलकर अच्छा लगा था. खुश थी मैं यहां. पर इन दिनों कुछ भी सही नहीं है इधर. ना तो सुबह को ही ये शहर मुस्कुरा पाता है, ना ही शाम को जी खोल के रो सकता है. अजीब घुटन में मर रहा है. ये जो पहाड़ हैं न इसको अपने कंधे का सहारा दिए हुए, वो खुद भी जलते रहते हैं एक अजीब सी बेचैनी भरी आंच में. और ये जो सारे के सारे चिनार हैं न, दहशतज़दा से, हर वक्त सर नीचा किए न जाने क्या क्या सोचते रहते हैं. हां, डल की तरफ जाती हूं तो थोड़ा सुकून मिलता है, पर उसके पानी पर भी अजीब सी उदासी और वीरानेपन की काई पसरी है इन दिनों. गौर से देखती हूं तो तिल-तिल खत्म होती हुई दिखती है वो भी. बस इस जेहलम को देखकर एक आस बची रहती है. उम्मीद जागती है कि सब कुछ बह जाएगा एक दिन. ये घुटन और उदासियां भी.
तुम्हैं पता है, जब में ज़ीरो ब्रिज के करीब से गुज़रती हूं तो गंगा का किनारा बहुत याद आता है. इन दिनों इस ब्रिज के दरवाज़े बंद रहते हैं. जहां पहले हर शाम ढेरों टूरिस्ट्स और लोकल्स चहलकदमी करते नज़र आते थे, अब वहां सन्नाटा पसरा दिखता है तो बस लगता है कि यहां से कहीं दूर भाग जाऊं. और तब मुझे तुम्हारा दामन बहुत याद आता है. रात को गंगा किनारे के घाटों की रौशनियां और उनका तिलिस्म मुझे अपनी ओर खींचने लगता है.
इन दिनों इधर हड़ताल है न, तो सारी दुकानें बंद ही रहती हैं, चाय की दुकानें, किताबों की दुकानें, सब बंद. शाम को लोग बाहर निकलते तो हैं, पर वो सिर्फ ग़म और गुस्से की बातें करते हैं, तुम्हारी मस्ती और फक्कड़पन यहां की फिज़ा मैं दूर-दूर तक नहीं देख पाती. तुम्हारी गलियों की आवारगी ऐसे में बहुत बेचैन करती है. मैं तुम्हैं बहुत याद करती हूं. तुमसे जल्द मिलना चाहती हूं. जानती हूं कि तुम्हैं भी मेरा इंतज़ार है. लेकिन बस एक ही बात है जो मुझे सताती है कि ये जो मेरे दोस्त हैं, साथी है, जो इस घाटी में पैदा हुए हैं, जो तुमसे कभी मिले ही नहीं, या तुम्हारे जैसे किसी को इन्होंने देखा ही नहीं, उनका क्या. मैं तो वापस लौट आउंगी एक दिन तुम्हारे पास पर क्या ये सब जा सकेंगे अपने किसी बनारस की ओर?
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