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Showing posts from March, 2020

लॉकडाउन जर्नल डे -16,15: बाहर का अन्याय खत्म करने के लिए हमें भीतर के अन्याय को खत्म करना होगा

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तस्वीर: इंटरनेट से  मुझे लगता है कि मैं एक चक्रवात के बीच फँसी हूँ. दो अलग दुनियाओं से उठती हवाओं का बना चक्रवात. एक तरफ मेरा कमरा है, जहाँ बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो रही हैं, सोशल मीडिया का वो हिस्सा है जहाँ संगीत-साहित्य-विलासिता है. दूसरी तरफ सड़कों, फैक्ट्रियों, रेलवे स्टेशन और अपने फ्लैट्स में फँसे हुए लोग हैं जिन्हें सो पाने के लिए एक गर्म कोने, खाने के लिए रोटियों और जीने के लिए दवाइयों की ज़रूरत है.  परसों शाम को मेरे कुछ साथियों ने देशभर में लॉकडाउन के कारण परेशानी का सामना कर रहे लोगों के लिए कुछ फोन नंबर्स जारी किए. तब से अबतक लगातार ज़रूरतमंदों की मदद की गुहार हम तक पहुँच रही है. देर रात चार बजे तक फ़ोन आते रहे हैं. सुबह आठ बजे से फिर बातचीत जारी है. अभी सुबह के दस बजकर बावन मिनट हुए हैं. कुछ देर पहले एक लड़की का फोन आता है. नॉएडा के सेक्टर पचपन में रहती है. कुछ दिनों पहले उसका अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ है. रात से वह दर्द में है, उसके टाँके खुल गए हैं. पेनकिलर दवाइयाँ खा चुकी है, पर राहत नहीं है. वह रोते हुए बताती है कि उसने सभी सरकारी इमर्जेंसी नंबर्स पर फ...

लॉकडाउन जर्नल, डे -17: प्रिय इको, हम सिर्फ़ अपने दुखों की मृत्यु चाहते हैं

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देहरादून रविवार, मार्च 29, 2020 हलो. इको, मुझे तो यह भी नहीं पता कि तुम्हारा नाम किस तरह पुकारा जाए. तुम्हें शायद नाम की ज़रूरत भी नहीं. आज सुबह-सुबह तुम्हारा ख़त पढ़ा. तुमसे इतनी छोटी सी मुलाक़ात है कि मैं ठीक से कह भी नहीं सकती कि तुम्हारी चाहतें, तुम्हारी ज़रूरतें क्या थीं. तुम्हारे गाँव का ज़िक्र करते हुए सिद्धार्थ ने एक बार कहा था कि उसका वहाँ जाना एक बरबाद कर देने वाला अनुभव था, डिवस्टेटिंग. तब से मैं वहाँ जाना चाहती थी. बरबाद होने के लिए.  आज जब तुम्हारी चिट्ठी में तुमसे मुलाक़ात हुई, या कहूँ कि तुमसे आज की छोटी सी मुलाक़ात को जब मैंने एक ख़त की तरह पढ़ा तो कुछ देर के लिए सबकुछ थम गया. शायद मेरे भीतर भी कोई हकलाने वाला लड़का हो, जिसे तुमसे मोहब्बत रही हो. तुमसे या तुम्हारे बदन से. मोहब्बत क्या है, किसे कहते हैं. मैं इस पर कुछ नहीं कहने वाली. कम से कम अभी नहीं. अभी मैं तुम्हारे और मेरे बारे में बात करना चाहती हूँ. और थोड़ी बहुत उस हकलाने वाले लड़के मिज़ोगुची के बारे में, जो तुम्हें आख़िरी बार देखने के बाद बेहोश हो गया था. कुछ देर के लिए ही सही, उसके लिए सबकुछ ...

लॉकडाउन जर्नल, डे -18: याद एक इंटेंस कहानी है, अधूरी, बरसों से लिखी जा रही...

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शाम के छह बज चुके हैं. सूरज अब दूर जाता दिख रहा है. खिड़की के बाहर मैदान का ज़्यादातर हिस्सा गाढ़ा हरा है, छाँव में डूबा. आख़िरी कोने पर, दूर दिखते पीले, दुमंज़िले मकान के ऊपरी हिस्से पर थोड़ी धूप बाकी है. नारंगी बाँहों वाली सफ़ेद टीशर्ट पहने एक लड़का छत पर टहल रहा है. मैं उठकर एक तस्वीर उतारती हूँ. आज सुबह से कुछ नहीं लिखा. दिन पता ही नहीं कब, कहाँ गुज़र गया. क़ैद में होने पर बहुत सारी चीज़ों के बीच की धारियाँ मिटने लगती हैं, जैसे हफ़्ते के दिनों के बीच की, दिन के घंटों के बीच की. मुझे ज़रा याद नहीं कि आज कौन सा दिन है या फिर बीते घंटों में मैंने क्या-क्या किया है.  क़ैद में कुछ रेखाएँ मिट जाती हैं तो कुछ रेखाएँ और उभर कर साफ़ भी हो जाती हैं. मेरे घर और घर के बाहर के की दुनिया के बीच की रेखा अब उठकर दीवार बन गई है. मैं रोज़ उन मज़दूरों के महागमन के बारे में पढ़ रही हूँ, जो महानगरों से अपने-अपने गाँवों के लिए निकले हैं. वे पैदल जा रहे हैं, अपनी ज़िंदगियाँ गठरियों में बाँध अपने सिरों पर उठाए. वे वाइरस से ज़्यादा एक रूखे-निर्दयी शहर की चौखट पर अकेले मर जाने से डरते हैं. वे इस व...

लॉकडाउन जर्नल: डे -19: नेटफ्लिक्स वाला बंदा ठीक है, पर फ्रॉइड फ्रॉइड हैं

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दिन के दस बजकर 27 मिनट हुए हैं. मेज़ के उस तरफ खिड़की के बाहर हलकी बारिश है. मैं आवाज़ सुन सकती हूँ. मेरा सर कुछ भारी है. पर कल की तरह छींकें अब नहीं हैं. सर भारी होने का कारण आज का उदास मौसम भी हो सकता है, और वह एक शब्द भी जो सवेरे से मेरे ज़हन पर सवार है, किसी अनचाहे बोझ की तरह, ‘डिसअपॉइन्टमेंट’. मुझे इसके लिए सही हिंदी शब्द याद नहीं आता. मैं इंटरनेट की मदद लेती हूँ, ‘निराशा या मायूसी’.  दोनों में से कोई भी शब्द ठीक-ठीक वह नहीं कह पाते, जो डिसपॉइन्टमेंट शब्द मेरे लिए कह देता है. ट्विटर पर मैं सुबह इस बारे में लिखती हूँ: डिसअपॉइन्टमेंट इज़ अ लोडेड वर्ड, हेवी. आइ एम प्लेसिंग इट एट द रेलिंग ऑफ माइ मेंटल बैलकनी. इट शुड टेक अ फ्री फ़ॉल, अ फ़ॉलिंग व्हिसिल शु़ड फ़ॉलो. निराशा एक भरा हुआ शब्द है, वज़नी. मैं इसे अपने मन के छज्जे के जंगलों पर रख रही हूँ. इसे निर्बाध गति से नीचे गिरना चाहिए, पीछे से आनी चाहिए गिरने की सीटी सी आवाज़. मेंटल बैलकनी मुझे फ्रॉइड तक ले जाती है. पिछले दिनों मैंने फ्रॉइड को पढ़ना शुरू किया था. यहाँ देहरादून में मेरी किताबें मेरे पास नहीं हैं. ...

लॉडडाउन जर्नल: डे -20: जीवन को स्वीकार करने का अर्थ है इसकी क्षणिकता को स्वीकार कर लेना

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लॉकडाउन के दूसरे दिन की सुबह नौ बजकर बीस मिनट पर मैं लिखने की मेज़ पर हूँ. कल के बचे बेहद कम दूध से दो चाय बना ली गईं. थोड़ा फ्लू जैसा महसूस हो रहा है, नाक काफ़ी संवेदनशील हो गई है. सिट्रज़िन लेना चाहती हूँ. पर नहीं लूँगी. इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती है कमरे में घूमती दो-चार मक्खियों से पार पाना. पर्दे उतारे जाने के बाद मक्खियाँ कुछ ज़्यादा परेशान कर रही हैं. आज पर्दे वापस लगाने ही होंगे.  कुछ देर पहले अगले कुछ दिनों के लिए दूध, फल, सब्ज़ियाँ वग़ैरह लेकर लौटी. सबकुछ काफी महँगा है, ईमानदारी भी. पास एक दुकान चलाने वाले दादा ने बेस्ट बिफोर 25 मार्च वाले दूध के पैकेट दे दिए, जबकि आज 26 मार्च है. फिर वापस जाना पड़ा. आलू चालीस रुपए किलो, जिसमें कि तोल कम थी. नाश्ता बनाने में आज ऊर्जा खत्म नहीं की जाएगी. दूध-कॉर्नफ्लेक्स और केले, आज यही ठीक. घर में मौजूद हम सभी छींक रहे हैं. यह ठीक नहीं है.  कल जिस दोस्त ने अपनी खाना बनाने वाली दीदी के बारे में बताया था, आज साढ़े दस बजे उसने लिखा, “कुछ कोट्स होते हैं, स्लोगन होते हैं, बातें होती हैं, जो सिर्फ़ बातें बनकर रह जाती हैं, तबतक जब तक...

लॉकडाउन जर्नल, डे -21: जबतक आप अपना सिस्टम नहीं बना लेते, तब तक कभी बेरोज़गारी तो कभी बेगारी आपके साथ-साथ चलती है.

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लॉकडाउन यूँ तो पिछले रविवार से ही शुरू हो चुका है, पर इस 21 दिन लंबे लॉकडाउन का आज पहला दिन है. मैं देहरादून में हूँ. पिछले बुधवार को, यानी एक हफ्ते पहले कुछ काम से यहाँ आना हुआ, फिर कोविद-19 के फैलते जाने की खबरों ने मुझे वापस दिल्ली नहीं जाने दिया. यहाँ दिल्ली के फ्लैट जैसी सुविधाएँ और आराम नहीं है, पर मैं खुश हूँ कि मैं दिल्ली में नहीं हूँ. दिल्ली में यूँ भी हमेशा बड़ी घुटन महसूस होती है. चारों तरफ इमारतें ही इमारतें, लोग ही लोग, हर क़िस्म के, गरीब, अमीर, बहुत गरीब, बहुत अमीर…  क़िस्में और भी हो सकती हैं. पर इससे ज़्यादा हम लोगों में देखते ही क्या हैं, उनके बारे में जानते ही क्या हैं. दिल्ली में मेरे फ्लैट के साथ वाले फ्लैट में एक बच्चा रहता है, मेरे फ्लैट की इकलौती बालकनी के पीछे बने टिन की छत वाले लगभग झुग्गीनुमा मकानों में से एक में भी एक बच्चा, नहीं बच्ची रहती है. इन दो बच्चों के चलते मैं इन दो परिवारों के बारे में कुछ-कुछ जानती हूँ. ज़्यादा कुछ नहीं, बस उन बच्चों के रोने के समय और कारण, और उनकी माँओं के नाम. और यह भी कि झुग्गी वाली बच्ची के रोने के कारण, फ्लैट वाल...