लॉकडाउन जर्नल, डे -18: याद एक इंटेंस कहानी है, अधूरी, बरसों से लिखी जा रही...
शाम के छह बज चुके हैं. सूरज अब दूर जाता दिख रहा है. खिड़की के बाहर मैदान का ज़्यादातर हिस्सा गाढ़ा हरा है, छाँव में डूबा. आख़िरी कोने पर, दूर दिखते पीले, दुमंज़िले मकान के ऊपरी हिस्से पर थोड़ी धूप बाकी है. नारंगी बाँहों वाली सफ़ेद टीशर्ट पहने एक लड़का छत पर टहल रहा है. मैं उठकर एक तस्वीर उतारती हूँ. आज सुबह से कुछ नहीं लिखा. दिन पता ही नहीं कब, कहाँ गुज़र गया. क़ैद में होने पर बहुत सारी चीज़ों के बीच की धारियाँ मिटने लगती हैं, जैसे हफ़्ते के दिनों के बीच की, दिन के घंटों के बीच की. मुझे ज़रा याद नहीं कि आज कौन सा दिन है या फिर बीते घंटों में मैंने क्या-क्या किया है.
क़ैद में कुछ रेखाएँ मिट जाती हैं तो कुछ रेखाएँ और उभर कर साफ़ भी हो जाती हैं. मेरे घर और घर के बाहर के की दुनिया के बीच की रेखा अब उठकर दीवार बन गई है. मैं रोज़ उन मज़दूरों के महागमन के बारे में पढ़ रही हूँ, जो महानगरों से अपने-अपने गाँवों के लिए निकले हैं. वे पैदल जा रहे हैं, अपनी ज़िंदगियाँ गठरियों में बाँध अपने सिरों पर उठाए. वे वाइरस से ज़्यादा एक रूखे-निर्दयी शहर की चौखट पर अकेले मर जाने से डरते हैं. वे इस वायरस को नहीं जानते, वे इसे यहाँ तक नहीं लाए. वे भूख को जानते हैं. भूख उन्हें शहर तक लाई है. अब वायरस उन्हें वापस गाँव ले जा रहा है. शायद वे भी वाइरस को अपने साथ गाँव ले जा रहे हैं. गाँव तक रोज़ी-रोज़गार नहीं पहुँचता. वाइरस पहुँच जाता है. विदेशों से वाइरस लाने वाले लोग इन गाँव लौटने वालों को देशद्रोही कह रहे हैं. कह रहे हैं कि इन्हें गोली मार दी जानी चाहिए.
मैं अपने आप को देख रही हूँ कि इन सबके मध्य, मैं कहाँ खड़ी हूँ. मैं जहाँ हूँ वह मेरा घर नहीं है. पर मेरा घर तो कहीं भी नहीं है. मैं यहाँ लंबे समय तक नहीं रह सकती. पर कहीं और लौटने के लिए भी मैं खुद को तैयार नहीं पाती, इसके कारण कई हो सकते हैं. यदि मैं आज पिता के घर या फिर अपने पैतृक गाँव लौटना भी चाहूँ तब भी वह होता नहीं दीखता. न तो यह सुरक्षित है, न ही आसान. बाकी मज़दूरों की तरह मेरे पास भी अपनी जान को गठरी में उठाए पाँव-पाँव सड़क पर चलते हुए ही पिता के घर तक पहुँचने का रास्ता बचता है. घर जाने का नाम लेते ही मैं भी देशद्रोही कहलाने और गोली खाने की ज़द में आ जाती हूँ. मुझ में और घर लोटते बेघर मज़दूरों में बहुत अंतर नहीं है.
मेरे कमरे में एक पीला बल्ब जल रहा है. इसकी रौशनी बचपन के गाँव में ले जाती है, जब घरों में टंग्स्टन बल्ब जला करते थे. बचपन में गाँव जाना एक भावुक अनुभव हुआ करता था. फिर चाहे वह पिता की पोस्टिंग वाले क़स्बे से गर्मी की छुट्टियों में गाँव जाना हो या फिर बोर्डिंग स्कूल से उसी तरह छुट्टियों में गाँव आना. गाँव पहुँचते हुए लगता था किसी नर्म, गर्म आग़ोश में आ गई हूँ, जहाँ मैं, मैं हो सकती हूँ. जहाँ हर वक़्त मुझ पर निगाह नहीं रखी जाएगी, मुझे हर समय अनुशासन के कटघरे में नहीं रखा जाएगा. इस पीली रौशनी में मुझे न जाने क्या-क्या दीखता है, गाँव की शामें, घर की तिखालें, पपड़ी छोड़ती दीवारें, रसोई के धुँए से काले हुए खंभे, हरी-नीली वार्निश से न जाने कितनी बार पोते गए जंगले, मिट्टी की बरोसी, सरसों की सूखी पर मुलायम लकड़ियों का जलावन, मुड़गेली पर बैठने वाला मोर, अम्मा की कहानियाँ, परदादी का बेंत, बाबा की सुरमेदानी और सामने के मंदिर का पीपल जो अब कट गया है. मैं फिर उसी तरह भावुक हो जाती हूँ. ऐसा महसूस करती हूँ जैसे याद कोई इंटेंस कहानी है, कई बरसों से लिखी जा रही है, आधी पन्नों पर है और आधी सीने में फँसी हुई है. निकलना ही नहीं चाहती.
शाम आठ बजकर नौ मिनट पर एएनआइ के ट्विटर हैंडल पर दिल्ली के आनंद विहार बस टर्मिनल की तस्वीरें प्रसारित होती हैं. लोग ही लोग हैं. अपने घर लौटना चाहते हैं. मैं न जाने क्यों हिंदुस्तान के बँटवारे के समय की तस्वीरें याद करती हूँ. यह याद भी गाँव की याद जैसी है, दो देशों की कलेक्टिव मैमरी में दर्ज़. बसने और उजड़ने में बहुत अंतर नहीं है. जब अस्तित्व का संकट खड़ा होता है तो लोग घर की ओर दौड़ते हैं. घर सिर्फ एक जगह नहीं, एक भावना है, सुरक्षा और स्थायित्व का वादा है. सत्तर साल पहले बँटवारे के समय, मानव इतिहास के सबसे बड़े माइग्रेशन के दौरान, लोग अपने-अपने नए मुल्कों की तरफ जा रहे थे, अपना बसा-बसाया घर छोड़कर, इस उम्मीद में कि वे एक बेहतर घर बनाएँगे, और इस डर से भी कि पुरखों का बसाए उनके पुराने घर का मोह अब जानलेवा हो सकता है. वे बसों, रेलों और बैलगाड़ियों में चढ़कर सरहद पार करने निकल पड़ते हैं, जबकि वे जानते हैं कि हो सकता है उन्हें रास्ते में ही मार दिया जाए. उनके लिए सुरक्षा न इस पुराने ठिकाने में है, न सफ़र में, अगर कहीं है तो उस उम्मीद में कि ज़िंदा बचे तो नए मुल्क में नया घर बसाएँगे.
आज पैदल निकले या आनंद विहार में इकट्ठा हुए मज़दूर क्या नहीं जानते कि वे रास्ते में क्या-क्या ख़तरे उठा सकते हैं. अनिश्चितता और आपातकाल की इस स्थिति में सड़क पर निकलना अपने आप में एक ख़तरा है, पुलिस का डर भी है, और वाइरस का ख़तरा तो है ही. वे तब भी निकलते हैं, क्योंकि वे जहाँ हैं वहाँ अपने आप को सुरक्षित नहीं पाते. विभाजन के समय दोनों देशों की सरकारें नई थीं, वे इतने बड़े माइग्रेशन को किसी तरह की सुविधा न दे सकी थीं. पर आज की सरकार के पास भी कोई सुविधा-सहूलियत की तैयारी नहीं दिखती. लॉकडाउन घोषित करने के चार दिन बाद उत्तर प्रदेश सरकार 1000 बसें निकालने की घोषणा करती है. पर यह नहीं बताती कि सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखते हुए कब कितने लोग, कहाँ से और कैसे ले जाए जाएंगे. भीड़ की तस्वीरें ट्विटर हैंडल पर जाती हैं. हम लोग च्च च्च करते हुए ट्वीट लिखते हैं, व्हाट्सएप पर संदेश भेजते हैं, दुखी होते हैं, असहाय महसूस करते हैं पर सरकार से सवाल नहीं कर पाते. सरकार मुश्किल में है, उनका साथ देना हमारा फ़र्ज़ है. ऐसे भी संदेश सोशल मीडिया पर दिखते हैं कि यदि राजा अपनी प्रजा से मदद माँग रहा है तो इसका अर्थ है मुश्किल बड़ी है. हमें राजा का साथ देना चाहिए.
लोकतंत्र के बावजूद हम प्रजा बने रहते हैं. हम प्रतिनिधि नहीं चुनते, सच तो यह है कि हम राजा भी नहीं चुनते. बाज़ार और समाज की अदृश्य सत्ता का ढाँचा हमारे लिए राजा चुनता है, हम बस उसे सहृदय स्वीकार करते हैं. हम वही भीड़ हैं जो आनंद विहार टर्मिनल पर खड़ी हुई है.
तुषार, वही दोस्त जो कल खाना बनाने को लेकर संघर्ष कर रहा था, उसके पास भी आज इन मज़दूरों का ही ज़िक्र है. वह लिखता है, “बच्चे-बूढ़े सब अपने गाँव जा रहे हैं. शहरों में न तो काम है न खाने को रोटी. जिन घरों में बैठकर ऊपरी तबके के लोग वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं, शायद इन्हीं मज़दूरों ने बनाए होंगे. क्वेरंटीन समय है घर बैठने का, ऑनलाइन नई चीज़ें सीखने का. क्या कुछ नहीं है हमारे पास, नेटफ्लिक्स, प्राइम. इन मज़दूरों के पास तो शहर में पक्की छत भी नहीं है. कोई भी सरकार आए-जाए, बॉटम ऑफ़ पिरामिड का कोई नहीं सोचता.” तुषार दुखी है, पर उसे नहीं पता कि वो दुखी होने के अलावा और क्या करे. उसने इन मज़दूरों तक राशन पहुँचाने वाली संस्थाओं को पैसा दिया है, यह सोचकर कि वो कुछ तो योगदान कर रहा है. पर वह जानता है कि यह सही रास्ता नहीं है. पिरामिड के निचले तले के लोगों को दान नहीं, संसाधनों में हिस्सेदारी देनी होगी. उसने आज ठीक-ठाक तेहरी बना ली है, आज के लिए यही संतोष की बात है.
आज मैं माइग्रेशन पर नहीं लिखना चाहती थी. मैं उस ट्वीट के बारे में लिखना चाहती तो जो सुबह देखा था. नीली टिक और कई हज़ार फ़ॉलोअर वाली एक भद्र महिला का ट्वीट. उन्होंने लिखा था कि लॉकडाउन के दिनों में हमें सेक्स चेट ही बचा सकती है. इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता था, बावजूद इस बात के कि मेरे पिता भी यह डायरी पढ़ते हैं. पर इन तस्वीरों को देखने के बाद वह ट्वीट ऐसे हज़ारों ट्वीट्स की तरह अपनी शेल्फ लाइफ पूरी कर दम तोड़ देता है. सिद्धार्थ ने कुछ देर पहले लिखा है, ‘क्या अमीर के आराम की कीमत ग़रीब को ही चुकानी होगी?’ जानती हूँ कि मेरा या मुझ जैसे अन्य का दुखी होना फ़ौरी तौर पर कुछ नहीं कर सकता. पर दुख तो है. इसका क्या किया जाए, अगर महसूस न किया जाए.
मैं पिता का भेजा संदेश पढ़ती हूँ, जो उन्होंने कल के जर्नल को पढ़ने के बाद भेजा था. ‘जब दिल दुख से घबरा जाए, प्रार्थना कर. प्रार्थना कर. यह फ्रॉइड से परे की बात है.’ प्रार्थना करनी ही चाहिए. मुझे भी. फ्रॉइड को भी.
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