लॉडडाउन जर्नल: डे -20: जीवन को स्वीकार करने का अर्थ है इसकी क्षणिकता को स्वीकार कर लेना


लॉकडाउन के दूसरे दिन की सुबह नौ बजकर बीस मिनट पर मैं लिखने की मेज़ पर हूँ. कल के बचे बेहद कम दूध से दो चाय बना ली गईं. थोड़ा फ्लू जैसा महसूस हो रहा है, नाक काफ़ी संवेदनशील हो गई है. सिट्रज़िन लेना चाहती हूँ. पर नहीं लूँगी. इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती है कमरे में घूमती दो-चार मक्खियों से पार पाना. पर्दे उतारे जाने के बाद मक्खियाँ कुछ ज़्यादा परेशान कर रही हैं. आज पर्दे वापस लगाने ही होंगे. 

कुछ देर पहले अगले कुछ दिनों के लिए दूध, फल, सब्ज़ियाँ वग़ैरह लेकर लौटी. सबकुछ काफी महँगा है, ईमानदारी भी. पास एक दुकान चलाने वाले दादा ने बेस्ट बिफोर 25 मार्च वाले दूध के पैकेट दे दिए, जबकि आज 26 मार्च है. फिर वापस जाना पड़ा. आलू चालीस रुपए किलो, जिसमें कि तोल कम थी. नाश्ता बनाने में आज ऊर्जा खत्म नहीं की जाएगी. दूध-कॉर्नफ्लेक्स और केले, आज यही ठीक. घर में मौजूद हम सभी छींक रहे हैं. यह ठीक नहीं है. 

कल जिस दोस्त ने अपनी खाना बनाने वाली दीदी के बारे में बताया था, आज साढ़े दस बजे उसने लिखा, “कुछ कोट्स होते हैं, स्लोगन होते हैं, बातें होती हैं, जो सिर्फ़ बातें बनकर रह जाती हैं, तबतक जब तक आप खुद उन्हें महसूस न कर लें. जैसे वो कहते हैं, ‘जिस दिन महिला श्रम का हिसाब होगा, दुनिया की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी’. अभी मैंने सिर्फ़ घर साफ किया है और काफी थक गया हूँ. अभी खाना बनाना बाकी है, वो भी सिर्फ़ एक जान का. मैं आज उस बात को महसूस कर रहा हूँ. जो महिलाएं होममेकर होती हैं, वो कितना काम करती हैं. और जो घर भी सँभालती हैं और काम पर भी जाती हैं, वो कितना काम करती होंगी?”

तनहाई हमें महसूस करने में, और जो कुछ महसूस किया है उसे समझने में, काफी मदद करती है. शायद इसीलिए कुछ क़ैदियों को तनहाई में रखा जाता था. मैं बता दूँ कि जेलों में तनहाई शब्द का आशय एक ऐसी कोठरी से होता है, जहाँ बंदी को अकेले रखा जाता है. जब मैं जेल में थी, तो मेरी माँग पर आख़िरी दिन मेरे लिए भी तनहाई में रहने का बंदोबस्त कर दिया गया था. शुरुआत में मुझे वहाँ रखने से मना किया जाता रहा. कहा गया कि वहाँ ख़तरनाक अपराधियों को रखा जाता है, तुम तो पढ़ी लिखी, निरपराध बंदी हो. निरपराध बंदी, अपने आप में कितना हास्य लिए हुए है यह वाक्यांश. 

खैर, सूरत-ए-हाल यह था कि बैरक में रात को पहरा देने वाली सिपाही और होमगार्ड रात को उस तनहाई में सोया करती थीं। ऐसे में मुझे वह कोठरी देने का मतलब था, उन्हें अपना सामान और आदत लेकर साथवाली कोठरी में जाना होगा, वो कोठरी जो बैरक नंबर 12 बी से जुड़ी हुई थी. एक निरपराध बंदी के लिए इतनी ज़हमत कौन उठाए. पर जब उनपर दबाव बढ़ा, ज़िले के सांसद और विधायक ने ख़ुद आकर मेरे लिए बेहतर इंतज़ाम करने के लिए कहा, तब जाकर वो कोठरी मुझे देने पर सहमति बनी. और तब भी, रात को जब मुझे वहाँ बंद किए जाने का समय आया तो मालूम हुआ कि कोठरी में बने आधे-खुले शौचालय के पॉट को मिट्टी और पॉलीथिन डालकर बंद रखा गया है. फिर उस रात को भी मुझे 21 अन्य महिलाओं के साथ बैरक नंबर 12 ए में बंद होना पड़ा. अगले दिन सुबह शौचालय साफ कराया गया, पर रात तक हमारी रिहाई के आदेश आ गए और मुझे तनहाई में अकेले पढ़ने-लिखने और सोने का सुनहरा मौक़ा खो देना पड़ा. 

दिन का काफ़ी वक्त आज सोशल मीडिया पर लोगों को पढ़ते हुए बीता. अब सिर्फ लॉकडाउन के बारे में लिखा जा रहा है. लोग एक दूसरे को फ़िल्में, किताबें, गाने सुझा रहे हैं. कुछ लोग कमज़ोर तबके की मदद के लिए पैसा जुटा रहे हैं, तो कुछ लोग खूब सारी तस्वीरों के ज़रिए क़ैद के इन दिनों की कहानियाँ कह रहे है. सबके पास कहने के लिए कुछ न कुछ है. क्योंकि सबके लिए ये अनुभव नया है. दुनिया इस तरह इस से पहले कभी घरों में क़ैद नहीं हुई. कश्मीर की बात और है. कश्मीरी कह रहा है कि हमें तो इसकी आदत है. सच ही कह रहा है. दो दिन पहले क़ैद से रिहा हुए ओमर अब्दुल्ला ने बाहर आकर अपने पहले ट्वीट में मज़ाक़िया अंदाज़ में कहा भी कि अगर किसी को क्वैरंटीन या लॉकडाउन में बचे रहने पर सलाह चाहिए तो उन से ली जा सकती है, उनके पास महीनों का अनुभव है. 

इन हालात में भी कश्मीरी हिंदुस्तान की सरकार से अपनी नाराज़गी जताना नहीं भूल रहा. वह ट्वीट कर रहा है कि भारत के प्रधानमंत्री ने जब थाली बजाने को कहा तो कश्मीर में चम्मच भी नहीं बजी, पर पाकिस्तान के एक मौलवी ने अज़ान देने को क्या कहा, पूरी घाटी अज़ान की आवाज़ से गूँजने लगी. काँगड़ी कैरियर यानी कश्मीर कैडर के आइपीएस अधिकारी बसंत रथ ट्विटर पर लोगों को यूपीएससी की तैयारी और जेएनयू प्रवेश परीक्षा पर सवाल-जवाब के ज़रिए मदद कर रहे हैं, पर कह रहे हैं कि बिना थाली बजा के. 

थाली से याद आया कि आज से नाश्ते के बाद एक किताब का सामूहिक पाठ होना तय हुआ. इसके लिए मैं एक आधी पढ़ी किताब चुनती हूँ. पदयात्रा के दौरान मैं साथियों के साथ थिच न्हात हन की ‘ओल्ड पाथ व्हाइट क्लाउड्स’ पढ़ रही थी. आज उसी का सोलहवाँ पाठ पढ़ा जाता है. ‘क्या यशोधरा सो रही थीं?’ पाठन सत्रहवें पाठ ‘पिप्पला लीफ़’ पर खत्म होता है. बुद्ध को ज्ञान प्राप्त होने से ठीक पहले. बुद्ध जीवन की क्षणिकता और ‘मैं’ जैसी किसी चीज़ की शून्यता की बात करते हैं. 

“अपने शरीर की नदियों, भावनाओं, मन के विन्यासों और चेतना को प्रकाशित करते हुए सिद्धार्थ अब जान गए थे कि जीवन के लिए दो ही अवस्थाएँ चाहिए, क्षणिकता और स्वयं के होने की शून्यता. क्षणिकता और अपने होने की शून्यता के बिना कुछ भी उग नहीं सकता, बढ़ नहीं सकता. अगर चावल के एक दाने में क्षणिकता और चावल का दाना होने की शून्यता न होगी, तो वह बढ़कर धान का पौधा न बन सकेगा. अगर बादल क्षणिक न होंगे, वे बादल होने के भाव से रिक्त न होंगे तो वे बरस कर वर्षा न बन सकेंगे. क्षणिकता और मैं की रिक्तता के अभाव में एक बालक बढ़कर कभी वयस्क न हो पाएगा. “इसलिए,” उन्होंने सोचा, “जीवन को स्वीकार करने का अर्थ है क्षणिकता को और मैं होने की शून्यता को स्वीकार कर लेना. अमरता में झूठा विश्वास और एक पृथक ‘मैं’ की कल्पना, दोनों हमारे कष्ट के कारक हैं. इसे देखकर समझा जा सकता है कि जन्म-मृत्यु, निर्माण-विनाश, एक-अनेक, बाह्य-आंतरिक, सूक्ष्म-विशाल, शुद्ध-अशुद्ध जैसा कुछ है ही नहीं. ये सब अवधारणाएँ हमारी बुद्धि के रचे झूठे भेद हैं. अगर हम सब वस्तुओं के रिक्त स्वभाव को देख सकें, हम सभी मानसिक अवरोधों के पार जा सकेंगे और पीड़ा के चक्र से मुक्त हो जाएंगे””

बुद्ध को समझना जितना आसान लगता है, उन्हें अभ्यास में लाना भी उतना आसान हो सकता है, यदि हम रोज़ इस चक्र से निकलना चाहें और रोज़ प्रयास करें तो. 

घर में रोज़ की तरह आज फिर काम के बँटवारे पर बातचीत हुई है. सुबह का नाश्ता और दिन-रात का खाना, बर्तन और सफ़ाई का काम बाँट दिया गया है. मेरे हिस्से ज़्यादा काम नहीं आया. भाई और दूसरे पार्टनर ने ज़िम्मा लिया है कि वो दीदी को ज़्यादा देर तक अपने कंप्यूटर और किताबों के साथ रहने देंगे. हालाँकि दीदी को पता है कि कहने और कर पाने का अंतर सिर्फ़ आदर्श परिस्थितियों में जाता है. परिस्थितियाँ फिलहाल आदर्श से बहुत दूर हैं. दिन के खाने में सब्ज़ियों वाली तेहरी और रायता बनाया गया है. मैंने वाक़ई रायते में तड़का लगाने के अलावा कुछ नहीं किया. हाँ बीच-बीच में तेहरी में पानी जाँच कर उसे जलने से बचाने की ज़िम्मेदारी मुझे उठानी ही पड़ी. इन बिगड़े शहज़ादों पर ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता. 

लंच के बाद में अपना नन्हां कंप्यूटर और पानी की बोतल उठाकर घर के नज़दीक जंगल की तलहटी तक चली आई हूँ. यहाँ पीपल का बड़ा सा एक पेड़ है, जिसके नीचे गोल-सा चबूतरा है और उस पर कुछ खंडित मूर्तियाँ भी. पास ही एक पानी का स्रोत है, जो अब गंदा हो चुका है. पर है. मैं यहीं पर बैठकर लिखती रहती हूँ. क़रीब पाँच बजे एक बुज़ुर्ग अंकल अपना कुत्ता टहलाते हुए निकल जाते हैं. उन्होंने मास्क पहना हुआ है. मैं कल्पना करती हूँ कि उनके भूरे लैबराडोर कुत्ते ने भी मास्क पहना है. आधे घंटे बाद पास के गाँव के दो-तीन जवान लड़के एक-एक कर अपने स्कूटर, मोटरबाइक पर बैठ कर आते हैं. वे मुझे यहाँ देखकर कुछ असहज हैं, मैं भी. थोड़ी देर की असहजता के बाद मैं उन्हें पूछती हूँ कि अगर मेरे यहाँ होने से उन्हें असुविधा है तो मैं वापस जा सकती हूँ. वे कहते हैं कि उन्हें असुविधा नहीं है. वे घर में बैठे-बैठे थक गए हैं, इसलिए निकले हैं. फिर वे आपस में बात करते हैं, कहते हैं कि अगले तीन महीनों के लिए आपस में मीटिंग करके यह तय करना पड़ेगा कि कौन-कौन कहाँ-कहाँ बैठेगा. मैं अपना काम करती रहती हूँ, वे चले जाते हैं. 

मेरे पिता फोन करके बताते हैं कि उन्होंने आज एक और पेज लिखा है. हाथ से लिखे गए इस पेज को उन्होंने कैमस्कैनर से स्कैन करके व्हाट्सऐप के फैमिली ग्रुप पर भेजा है. कल यानी लॉकडाउन के पहले दिन, यानी ‘भारतीय हिंदू वर्ष’ 2077 के पहले दिन आख़िरकार बिटिया की तरह उन्होंने भी लिखना शुरू किया है. वे आध्यात्म पर लिख रहे हैं. चार सवालों के जवाबों की तलाश, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, क्यों आया हूँ और कहाँ जाउँगा. लिखना शुरू करने के बाद वे खुश दिखते हैं. सिद्धार्थ ने आज लिखने के बारे में कुछ नहीं लिखा है. मैंने भी जर्नल के अलावा बहुत कुछ नहीं लिखा है. पर रात बाकी है, बात भी. 


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