लॉकडाउन जर्नल, डे -9: “जो हम आज हैं, वही बनना हमारी सबसे गहरी इच्छा थी”


आज के बाद लॉकडाउन के बाद आठ दिन और बचते हैं. आज का दिन मिलाकर नौ दिन हुए. नौ मेरा पसंदीदा नंबर है. पसंद, जो लंबे परिचय के साथ आती है. इस संख्या से मेरा परिचय मेरे इस धरती पर होने जितना पुराना है.

इसे सेलिब्रेट करते हुए मैं एक फिल्म देखती हूँ, इंडिया सॉन्ग. 1975 में आई एक फ्रैंच फिल्म. 

कहानी 1930 के दशक के कलकत्ता में सेट है. फ्रांसीसी दूतावास की एक पुरानी इमारत का एक कमरा, उसके बाहर का मैदान, टेनिस कोर्ट. बस. स्क्रीन पर ज़्यादा समय आप यही देखते हुए गुज़ारते हैं. 

कहानी लाओस के सवन्नाखेत से मीकोंग नदी के साथ साथ हज़ारों मील चल कर कलकत्ता तक आई एक पागल भिखारी औरत की के साथ शुरू होती है. मीकोंग को दक्षिण एशिया की गंगा कहा जाता है.

आप उस औरत को नहीं देखते. 

पर आप दो फ़्रेंच युवतियों और एक पुरुष को उसके बारे में बात करते हुए सुनते हैं. आप इन तीनों बात करने वालों को भी नहीं देखते. 

आपको बताया जाता है कि वो दस साल पैदल चल कर यहाँ आई है. 

इन दस सालों में बंगाल तक आते-आते उसके दस बच्चे मर गए, उसने उन्हें छोड़ दिया, बेच दिया भुला दिया. अब वह बंजर हो चुकी है.

वह औरत एक गीत गा रही है. एक पुकार है, कुछ कहा जा रहा है...

किसी अजनबी भाषा में.

इस भाषा में लाचारी नहीं है.

एक विचित्र सी निडरता है, एक अजीब सा लावण्य है, जो आम औरतों में कभी नहीं पनपता, आम औरतें जो हमेशा बहुत से बंधनों में बंधी होती हैं, जितने एक आदर्श समाज के लिए चाहिए होते हैं, उससे कहीं ज़्यादा बंधन.

इस औरत पर अब शायद बंधन नहीं हैं, उतने भी नहीं जितने एक आदर्श सभ्यता के लिए ज़रूरी हैं. शायद इसलिए इसकी आवाज़ में एक आदिम निडरता, और वैसा ही सौंदर्य है. या तो यह कुछ भी जान लेने और जान लेने की इच्छा के जागने से पहले होता होगा या सब जान लेने और उसके साथ शांति स्थापित कर लेने के बाद. 

सत्रह साल की उम्र में इस महिला को पहला गर्भ मिलता है.

फिर माँ बाहर निकाल देती है.

वो खो जाने का रास्ता पूछती है.

किसी को उन रास्तों का नहीं पता.


कलकत्ते के सफ़ेद महिला-पुरुष उसका गीत सुनते हैं. ऐसा लगता है कि ये तीन आवाज़ें किसी खिड़की से अपने अतीत में झाँक रही हैं. 

वे कहते हैं, कि ये वही पागल औरत है, वही जो हँसती है.

वे कहते हैं कि वह लाओस से आई है.

उन्हें यह संभव नहीं लगता...

बातचीत होती है, “मैदानों में एक भिखारी औरत है.”

“वो जो गाती है? तुमने उसे सुना?”

“तुम अब कलकत्ता में हो पर वो मुझे लगता है वो सवन्नाखेत का कोई गीत गाती है..., लाओस का.”

“वो मुझे हैरान करती है, मैं सोचती रहती हूँ, ये कैसे संभव है?

इंडो-चीन से हम हज़ारों मील दूर हैं.

वह कैसे आ सकती है?”

पुरुष कहता है कि मैंने भी सुबह उसे सुना था

 यह एक ख़ुशी का गीत है, वह बताता है.

महिला याद करती है कि बच्चे इस गीत को गाया करते थे.

वो नदी की घाटियों से होते हुए आई होगी.

“पर उसने इलायची के जंगल कैसे पार किए?” औरत पूछती है।

पुरुष कहता कि वो पूरी पागल है.

“हाँ, पर वो ज़िंदा है,” औरत जवाब देती है.

“कभी-कभी वो टापुओं तक भी आती है.”

“कैसे?”

“कोई नहीं जानता.”

“हो सकता है वो तुम्हारे पीछे जाती हो,” पुरुष कहता है

“गोरों का पीछा करती हो.”

“वैसा होता है,” औरत कहती है. “खाने के लिए.”

दरअसल ये कहानी उस पागल औरत की नहीं है. कहानी एक सफ़ेद फ्राँसीसी औरत की है, ऐने-मारी स्ट्रेटर की. 

वह सत्रह साल की थी जब एक फ्राँसीसी एडमिनिस्ट्रेटर के साथ शादी करके लाओस आ गई. लाओस उस समय भारत ही है. 

वह भारत को बर्दाश्त नहीं कर पाती. उसकी गर्मी. लेप्रसी. उसका अकेलापन.

लाओस में वह एक और फ्राँसीसी राजदूत से मिलती है. उससे शादी कर वह तमाम दक्षिण एशियाई शहरों में घूमते हुए कलकत्ता पहुँचती है. उसकी यात्रा उस गीत गाने वाली पागल औरत की तरह है. इतनी एक सी कि उसके बिलकुल उलट है, शायद मिरर इमेज की तरह. 

फिल्म की अदृश्य पागल औरत आज़ाद दिखती है. गाती हुई, घूमती हुई. 

एने-मारी उदास है. ऊबी हुई है. उसके बारे में बताया जाता है कि जो उसे चाहता है, पा सकता है. उसके बहुत से प्रेमी हैं. पर वह फिर भी ऊबी हुई है. एक लेप्रसी के रोगी तरह गलती हुई. वह उन सब सफ़ेद पुरुषों को प्यार कर लेती है जो उसकी तरह भारत को बर्दाश्त नहीं कर पाते.

8 अक्टूबर 1975 के न्यूयॉर्क टाइम्स में फिल्म के बारे में लिखा जा सकता है कि इसका नाम लेप्रसी भी हो सकता था. 

बाहर से आने वाले यूरोपियन अधिकारी भारत में लेपर्स की तरह ही तो रहते हैं, समाज से अलग-थलग, कटे हुए. निर्वासित. मुझे ऑरवेल के बर्मीज़ डेज़ का फ़्लोरी बहुत याद आता है. वो इतना कटा हुआ नहीं था.

एने इतनी उचाट है कि एक सफ़ेद पुरुष के साथ चंद्रनगर के एक सस्ते होटल में ख़ुदकुशी करते हुए पाई जाती है. कलकत्ता तक एम्बुलेंस में वापस आते हुए वे कहते हैं, “कोई ख़ास कारण नहीं बस इनडिफरेंस टू लाइफ.” जीवन के प्रति विरक्ति.

जीवन हमारे साथ ऐसा क्या करता है कि हमें दो विपरीत ध्रुवों तक लिए जाता है? हम बीच में कहीं अपने लिए जगह क्यों नहीं बना पाते? क्या हम इतने अशक्त हैं?

या तो लाओस की भिखारन का निडर, गीत गाता पागलपन या फिर एने-मारी की यह उदासी, यह विरक्ति, यह पागलपन जो उसकी जान लेने की कोशिश करता है, और फिर ले लेता है. 

विरक्ति शायद उन का हासिल है, जिन्हें सबकुछ हासिल हो चुका है, द व्हाइट्स ऑफ इंडिया. 

पागलपन उनका, जिनसे सब छिन जाता है. 

यह पागलपन सिर्फ सवन्नाखेत की पगली में ही नहीं है, लाहौर के वाइस-कोंसुल में भी है.

वह जीवन भर प्यार तलाशता रहा है. वह भारत इसी प्यार की तलाश में आया है. उसकी माँ से उसने एक इंडिया सॉन्ग सुना है. जिसकी धुन उसे उम्मीद देती है कि उसे एक दिन प्यार ज़रूर होगा. उसे लगता है कि उसे लाहौर से प्यार है. पर वहाँ के कोढ़ियों और बिल्लियों से नहीं. क्योंकि उसे अपने आपसे प्यार नहीं है.

वह कोढ़ियों पर गोली चला देता है. और शीशे में अपने प्रतिबिंब पर भी. उसे सज़ा मिलती है. ये सज़ा उसे कलकत्ता लाती है. और एने-मारी तक भी. उसे एने-मारी से प्यार हो जाता है. उसे लगता है कि वो एने-मारी के प्यार के योग्य है. 

वह प्यार को एक कमोडिटी की तरह देख रहा है.

वह चीखता है, एक रात एने के साथ एंबेसी में रुकने की भीख माँगता है, उसका प्रेमी होने की भीख माँगता है. सभ्य समाज को एने के असंख्य प्रेमी स्वीकार हैं, जबतक कि वे सभ्यता के तय दायरे नहीं तोड़ते. यह पागल कोंसुल उन्हें स्वीकार नहीं. यह कोढ़ियों का भी कोढ़ी है. इसे भुला दिया जाना है. सभ्य समाज आपसे उम्मीद करता है कि आप अपने पागलपन को आवाज़ न दें. सभ्य समाज, जो जहाँ है, जैसा है, उसे वहीं रहने देना चाहता है. उसे चीज़ों के सतही इलाज से समस्या नहीं है. 

जर्नल लिखते हुए मैं मनीषा का फोन उठाती हूँ. वो भी कुछ ऐसी ही बातें कर रही है. कह रही है कि उसे तकलीफ़ है कि लोग सतह के नीचे नहीं उतरते, उनकी बातें, उनके अर्थ, उनका व्यवहार सतही है. वे अपने आप से कटे हुए हैं. लेप्रसी. लेप्रसी ऑफ़ हार्ट एंड माइंड.

लेप्रसी शायद अब भी खत्म नहीं हुई है. 

कल के प्रकाश की तरह, इस लेप्रसी का इलाज भी हर एक को अपने भीतर ढूँढने की ज़रूरत है. 

फिल्म में एने कहती है, बोरडम एज़ वेरी पर्सनल. यह लेप्रसी भी वैसी ही है.

पर हम जैसे बन गए हैं, जो आज हैं, उसके बारे में आज के एपिसोड में डॉक्टर फ्रॉइड कहते हैं,

“अपने भीतर की गहराइयों में हम जो कुछ चाहते हैं, हम वही बन जाते हैं. फिर वो चाहे अच्छे के लिए हो. या बुरे के लिए.

दूसरे शब्दों में कहें, तो हम मान सकते हैं कि जो हम आज बन चुके हैं, वही बनना हमारी सबसे गहरी इच्छा थी.”

और मुझे लगता है इस बात से मैं बहुत हद तक इत्तेफाक़ रखती हूँ. 

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