लॉकडाउन जर्नल, डे-6: सच कहूँ तो हमारी कोई ज़रूरत ही नहीं है


देर रात हुई है. दिन गुज़रने का पता अब चलता नहीं. कमरे में बत्ती नहीं जलाई है. बस कंप्यूटर स्क्रीन की चमक है जो मेरी आँखों पर बरस रही है. सफ़ेद, कुछ ज़र्द. कमरे का पीछे के मैदान की ओर खुलने वाला दरवाज़ा पूरा खुला है. चाँद की कुछ रौशनी कमरे में है, पर अब वो अंधेरे में खूब घुल गई है. इस तरह का अंधेरे में घुलने वाला चाँद सिर्फ़ बचपन में उगता था. गर्मी की छुट्टियों में, गाँव में. जब बिजली के तार अक्सर ठंडे पड़े होते थे. 

चंदा की रौशनी में वो गाँव, लगता था कि दुनिया का अकेला गाँव है. और मैं, दुनिया की अकेली बच्ची.

आज दो दिन बाद शाम को मैं घर के मुख्य दरवाज़े के बाहर तक गई. पाँव में कुछ चोट है तो दो दिन से चलना-फिरना बंद था. आज शाम खुद को भीतर न रोक सकी. बाहर चली गई. दो दिन न देखने पर ही लगने लगा कि सबकुछ नया सा हो गया था. पर इस नई दुनिया में कुछ तो कम लगा रहा था. मेरी नज़र न जाने क्यों इन दूर-दूर बने घरों के ऊपर कुछ तलाशती रही. चूल्हों से उठता धुँआ, जिसमें गोल-गोल रोटियों की गर्म महक भरी होती थी. 

वो धुँआ कहाँ गया? उसी धुँए से तो पता चलता था कि शाम हो गई. पता चलता था कि अब घर के बड़े घर लौटेंगे. बच्चे एक जगह इकट्ठे होने लगेंगे, औरतें उन सब इकट्ठे होने वालों को इकट्ठे रखने का सामान जुटाने लगेंगी. भाप छोड़ती देगचियाँ, पानी के लोटे, दूध के भगोने. साफ़-सुथरे, गिलाफ़ चढ़े बिस्तर-तकिए. 

जब वहाँ होती थी तो तब देगचियाँ, लोटे, भगोने और गिलाफ़ कभी नहीं दिखे. तब पता नहीं क्या देखती थी. शायद सपने.

सपने देखते हुए हम सपने से बाहर की चीज़ों को कहाँ देख सकते हैं? पर अब वो सब चीज़ें कभी-कभी सपनों की तरह दिखती हैं.

आज संगीत सुनते-सुनते, एक नई आवाज़ सुनी, गहरी, भरी-भरी और उदास. “देखकर भी नहीं देखते हैं, उनसे पूछो ख़फ़ा हैं न मुझसे…”  कोई ओशो जैन है. उसके गीत प्रतीक कुहद जैसे हैं. पर अलग हैं.

मैं मनीषा को उसके बारे में बताना चाहती हूँ. मनीषा फोन करती है. हम देर तक बात करते हैं. पर इससे पहले कि ये नई बात बताने तक पहुँचूँ, नेटवर्क चला जाता है. कई कोशिश के बाद भी फिर और बात नहीं हो पाती. फोन करने पर कोई आवाज़ नहीं, यह भी नहीं कि लाइनें ही व्यस्त हैं. बस एक मुँह चिढ़ाती खामोशी. घरों में बंद हो जाने के बाद अगर हमारे फोन भी बंद हो जाएं तो? और ये सोशल मीडिया भी. फिर? दुनिया ख़त्म ही हो जाएगी न? न, न. दुनिया ख़त्म नहीं होती, बस उसके कुछ हिस्से ख़त्म होते जाते हैं, कर दिए जाते हैं, होने दिए जाते हैं.

मुझे अपने एक ट्वीट पर रूफ का कमेंट याद आता है. कश्मीर यूनिवर्सिटी में मीडिया रिसर्च का स्टूडेंट रूफ दोस्त है, आर्चएनेमी टाइप दोस्त 

मैंने लिखा था कि मैं रात के समंदर के सियाह बदन पर झिलमिलाती रौशनियों को याद कर रही हूँ. लॉकडाउन तेरा बुरा हो.

रूफ याद दिलाता है, तुमने इससे बुरे लॉकडाउन झेले हैं, ये भी तुम झेल ही जाओगी. हम सब कुछ झेल जाते हैं. नाश, युद्ध, पराजय, मृत्यु, दुख और प्रेम.

यहाँ तक कि प्रलय भी.

मनीषा कह रही थी कि अब शायद कुछ और दिन लॉकडाउन रहेगा. अब उसे अच्छा नहीं लग रहा. चौथी मंज़िल के स्टूडियो फ़्लैट का मनपसंद एकांत अब परेशान कर रहा है. मनपसंद चीज़ें भी तबतक ही मनपसंद रहती हैं जबतक हमारा उनके करीब होना हमारा स्वतंत्र चुनाव हो, बाध्यता नहीं. 

पुनीत से बात होती है तो वो कहता है, “फाइनली वी हैव स्टार्टेड वैलूइंग ह्यूमन कनेक्शंस.” हम बात करते हैं कि अचानक हमारी आँखों के सामने दुनिया बदल गई है. 

हम अपनी-अपनी खिड़कियों के पीछे छुपे हुए, इस बदलाव को कभी डर से, कभी उत्सुकता से और कभी उम्मीद से देख रहे हैं. नेचर की वेबसाइट पर खबर छपी है कि लॉकडाउन की वजह से धरती कम हिल रही है. यह धरती पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों के लिए अच्छी खबर है. हमने कहानियों में पढ़ा है कि पहले जब कुछ बुरा होता था तो धरती काँपने लगती थी. “डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित होकर बोले...”

पर कलियुग है, यहाँ सब उल्टा होता है. धरती ने अब काँपना कम कर दिया है.

इस नए वाइरस ने शायद धरती के टालटोश को सो जाने का आदेश दे दिया है. टालटोश, यानी हमारे भीतर का प्रेत.

लेकिन धरती के भीतर कई टालटोश हैं. धरती के नहीं, मानव अस्तित्व के प्रेत. 

सुबह, घर पर सब्ज़ी देने आने वाले भट्ट साहब ने बताया था कि उन से मना किया जा रहा है कि मुसलमानों को सब्ज़ियाँ न बेचें. दिल्ली से मनीषा ने भी ऐसी ही खबरें सुनाई हैं, और पिता ने आगरा से. टालटोश ऐसे ही काम करता है. मास हिप्नोसिस.

इस हिप्नोसिस का तोड़ भी कोई तो फ्रॉइड निकालेगा ही. कोई जिज्ञासु लड़का जिसे अपने आप से इतना प्यार है कि वो ख़ुद से झूठ नहीं बोल सकता, ख़ुद को धोखा नहीं दे सकता. जो ख़ुद से इतना प्यार करता है, वो पूरी धरती से प्यार करता है. वो हर दिन ख़ुद को बेहतर करता जाता है, और साथ में पूरी धरती को भी.

रात के दो बज गए हैं. मैं एक बार फिर बाहर तक जाकर आई हूँ. बाहर खूब ठंड है. तारे कम हैं आज, आसमान धुँधला है. कुछ देर वहीं बैठकर दूर पहाड़ी को देखती रही. उसे देखकर ना जाने क्यों उम्मीद बनी रहती है कि गाँव के घरों से शाम को उठने वाला धुँआ अभी बचा है, मेरे ख़याल में ही सही. कल भी बचा रहेगा. मुझे उसे कहीं छुपा के रखने की ज़रूरत नहीं है. 

हमारी ज़रूरतें बहुत कम हैं. 

सच कहूँ तो हमारी कोई ज़रूरत ही नहीं है. 






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