लॉकडाउन जर्नल, डे -10: सब अपनी विसंगतियाँ खुद देख सकें, तब ही माना जा सकता है कि प्रकाश उन तक पहुँचा है



नौ बजे हैं, पूरा देश प्रकाशपर्व मना रहा है. प्रकाश यानी ज्योति. ऊष्मा. जीवन. चेतना. 

मैं फ्रॉइड का सातवाँ एपिसोड देखती हूँ. काउंट विक्टर सपारेज़ अपने काले जादू के नशे में डूबा हुआ है, पर कहता है, हू एवर कैरीज़ द लाइट मस्ट गो इनटू द डार्कनेस. 

फ्रॉइड ने कहा है कि ‘माइ कॉन्शसनेस इज़ द सॉलिटरी लाइट.’ मेरी चेतना ही प्रकाश का एकमात्र स्रोत है.

साढ़े नौ बजे सिद्धार्थ का संदेश आता है. टुमॉरो‘ज़ एंट्री: लाइट.

सिद्धार्थ ने दिया जलाया है. लिखा है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय.’ अंधकार से मुझे प्रकाश की ओर ले जा.

मेरे विद्यालय में सरस्वती की तस्वीर के नीचे यही लिखा हुआ था. 

मैं मुस्कुराती हूँ. हाँ. 

मैंने भी एक मोमबत्ती तलाशकर रखी थी. टूटी हुई, पर उससे क्या. वह जलती है, रौशनी देती है. 

टूटना और रौशनी मिलकर मुझे रॉकस्टार फिल्म का एक डायलॉग याद दिलाते हैं. ठीक से याद नहीं आता, बस इतना ही कि टूटने के बाद ही तो रौशनी अंदर जाती है. ख़ूबसूरत पंक्तियाँ. हालाँकि रौशनी तो हमेशा से हमारे भीतर है. हम रौशनी से ही जन्मे हैं. प्रकाश, जिसे न पैदा किया जा सकता है, न ही नष्ट. 

टूटी हुई मोमबत्ती के प्रकाश में मैं प्रार्थना करती हूँ. अंधकार से मुझे प्रकाश की ओर ले जा. इस ‘मुझ’ में सबकुछ है, गौरव- जो खाना बना रहा है, दीपू- जो दिल्ली में बैठकर अपनी किताब पर काम कर रही है, वो सब- जिन्होंने दिया नहीं जलाया, वे भी- जो पटाखे जला रहे हैं. तुम भी.

मेरा मोमबत्ती जलाना गौरव के लिए आश्चर्य का कारण हो जाता है. दीदी तो प्रधानमंत्री की आलोचक है. पर प्रकाश तो आलोचनाओं से परे की चीज़ है. इसकी आलोचना कैसे हो? जब हम अंधकार में होते हैं तो देख नहीं पाते, यह भी नहीं कि हमें किस ओर बढ़ना है. पर प्रकाश के रहते हम सही दिशा में बढ़ सकते हैं. नफ़रत या घृणा हमारा गंतव्य नहीं है, प्रकाश में हम देख सकते हैं. मोमबत्ती जलाते हुए मैं यही देखती हूँ. 

थाली बजाने और मोमबत्ती जलाने में फ़र्क़ है.

थाली के शोर में बहुत सी आवाज़ें दब जाती हैं. पर दिए के प्रकाश में हमें उन दबती आवाज़ों के स्रोत दीख सकते हैं. प्रकाश हो, तो हम सबकुछ देख सकते हैं. दृष्टि प्रकाश का धर्म है. तब क्या हम भविष्य भी देख सकते हैं?

आज दोपहर को फोन पर बात करते हुए पंकज ने फ़ोन पर पूछा कि मुझे क्या लगता है कि कोरोना संकट हमें कहाँ लेकर जाने वाला है. मैं कहती हूँ कि वह हमें जहाँ ले जा सकता था, वहाँ ला चुका है. संकट के मध्य में खड़े होकर हमें अब इसका सामना करना है. और यह भी देखना है कि हम क्या ग़लत कर रहे थे कि यहाँ तक पहुँचे. इस संकट ने हमारी आँखें खोल दी हैं, हमें नींद से जगा दिया है. इसने हमारे लिए प्रकाश का काम किया है. 

घरों में दुबके बैठे हम बहुत कुछ देख पा रहे हैं. हमारी ग़लतियाँ, हमारी विसंगतियाँ. 

मैं उन विसंगतियों के बारे में लिखती हूँ. फिर कंट्रोल डिलीट दबा देती हूँ. सब अपनी विसंगतियाँ खुद ही देख सकें, तब ही माना जा सकता है कि प्रकाश उन तक पहुँचा है.

विश्व भर में हज़ारों लोग रोज़ मरते हैं, उससे ज़्यादा पैदा होते हैं. शोक और उत्सव साथ चलता है.

पर जिस आपदा के कारण हर रोज़ हज़ारों की संख्या में जानें जा रही हों, उसी के कारण यदि लोग पटाखे चला रहे हैं, उत्सव मना रहे हैं, क्योंकि उनके प्रधानमंत्री ने दीप बालने को कहा है, और वे अपनी पक्षधरता का प्रमाण एक कदम आगे बढ़कर देना चाहते हैं, यह गहरे अंधकार का प्रमाण है. 

इसे देखने के लिए हमें प्रकाश की ज़रूरत है.   

प्रकाश है क्या? विज्ञान हमें बताता है कि प्रकाश एक वेव या तरंग है. तरंग, दो विपरीत दिशाओं में बराबर बल के साथ होने वाली गति है. यह तरंग अपने आप में अर्थहीन है यदि हमारी तंत्रिकाएँ इसके असर को हमारे मस्तिष्क तक न ले जा सकें. 

प्रकाश की तरंग के इस असर को हमारे मस्तिष्क तक ले जाने में हमारी तंत्रिकाओं को ऊर्जा चाहिए होती है. वह ऊर्जा हमें भोजन देता है, जीवन देता है.

तो आज के जलाए दिए से निकली प्रकाश तरंगें तबतक प्रभावी न होंगी जबतक कि हमारे पास इनके असर को ग्रहण करने की ऊर्जा न हो. हमारा शरीर हमारी ऊर्जा के प्रबंधन में निष्पक्षता बरतता है. पर हमारा मन वैसा नहीं करता. वह अपनी ऊर्जा का प्रयोग पक्षधरता के साथ करता है. वैसी ही पक्षधरता जो हमें पटाखे जलाने को कहती है. 

हम अपने पक्षपाती स्वाभव से मुक्त नहीं हो सकते. पर अपनी पक्षधरता को अधिक उदारता, अधिक करुणा और अधिक मानवता के साथ ज़रूर चुन सकते हैं. वरना प्रकाश के होते हुए भी हम अँधेरे में रह जाएंगे. 

दीप जलाने के अनुरोध पर पटाखे जलाना उसी अंधकार का प्रमाण है. 

फ्रॉइड ने कहा कि ‘मेरी चेतना ही प्रकाश का एकमात्र स्रोत है’

पटाखों के शोर से फूटते इस अंधकार को हम फ्रॉइड के साइकोएनालिसिस के सिद्धाँत के ज़रिए देखने की कोशिश कर सकते हैं. इस सिद्धांत की मानें तो मानव मस्तिष्क के तीन हिस्से हैं. इड, सुपरईगो और ईगो. इन तीनों हिस्सों की आपसी कशमकश का नतीजा ही एक व्यक्ति का व्यवहार तय करता है. 

इड लगभग अचेतन है, इसे इंस्टेंट ग्रैटिफिकेशन चाहिए. यानी की गई इच्छा का तुरंत पूरा किया जाना. इसे नैतिकता और सामाजिकता का ज्ञान नहीं है. 

इसे एक मशहूर उदाहरण से समझते हैं. मान लीजिए कि आप रास्ते में हैं और किसी को आइसक्रीम खाते देखते हैं. आइडी देखते ही चाहती है कि आप आइसक्रीम खाएं. यदि आप इड के वश में हैं तो आप तुरंत वह आइसक्रीम छीन कर खा लेंगे.

आपका सुपरईगो आपकी नैतिकता और सामाजिकता का कोश है. आइडी यदि आइसक्रीम छीनकर खाना चाहेगी तो सुपरईगो आपको बताएगा ऐसा करना ठीक नहीं है. लेकिन तब भी आप अगर इड के वश में होकर आइसक्रीम छीन लेते हैं तो आपको अपराधबोध होगा. यह अपराधबोध सुपरईगो से आता है. इसका कुछ हिस्सा चेतन है, कुछ अचेतन.

तीसरा है आपका ईगो. ईगो का काम है इड और सुपरईगो के बीच में सुलह कराना. आइसक्रीम खा रहे व्यक्ति के पास से गुज़रते वक्त ईगो इड से कहेगा कि हम आगे जाकर दुकान से आइसक्रीम ख़रीदकर खाएँगे. या फिर नहीं खाएँगे क्योंकि हमें ज़ुकाम है.

इन तीनों में से हम किसके वश में रहकर काम करते हैं, वह हमारे व्यवहार, हमारे व्यक्तित्व को तय करता है.

हज़ारों मज़दूर जब पैदल अपने गाँवों को जा रहे हों, लाखों नागरिक जब राशन के लिए रोते हुए गुहार लगा रहे हों, तब एक बड़े वर्ग का पटाखे चलाना, दीपावली मनाना, टीवी का प्रोपेगेंडा के लिए उपयोग होना बताता है कि हमारा व्यवहार इंस्टेंट ग्रैटिफिकेशन तक सीमित होता जा रहा है. हमें अपनी इच्छाओं की तुरंत पूर्ति चाहिए. नैतिकता और सामाजिकता से हमें सारोकार नहीं. हम अचेतन के नियंत्रण में हैं. अचेतन यानी अंधकार.

लेखक स्टीफ़न ब्रूनर का रचा फ्रॉइड नेटफ्लिक्स पर कहता है, “मैं एक घर हूँ. मेरे भीतर अँधेरा है. मेरी चेतना ही प्रकाश का एकमात्र स्रोत है. हवा में फँसी एक मोमबत्ती. इसकी लौ हिलती है, कभी इधर, कभी उधर. बाकी सब छाया में है. बाकी सब अचेतन में है. पर वो सब वहाँ है. बाकी कमरे, तलघर, गलियारे, सीढ़ियाँ, दरवाज़े. वे हर वक़्त वहाँ हैं. और वो हर चीज़ भी जो हमारे भीतर रहती है, जो हमारे भीतर घूमती रहती है. वो सब, यहीं है. वो अपना काम करती है, वो जीवित है, उस घर के भीतर जो मैं हूँ….”

अँधेरे में रहने वाली ये चीज़ें, जो हमारे भीतर हैं, वे हमारे शुरुआती अनुभवों से आती हैं. हमारे बचपन के अनुभवों से. बचपन में यह तय होने लगता है कि हमारी इड, ईगो या सुपरईगो में से कौन हम पर हावी रहेगा, कौन ज़्यादा शक्तिशाली होगा. 

अगर सामूहिक रूप से हमारा अचेतन, हमारा अँधेरा हम पर हावी है तो हमारे समाज में, हमारे परवरिश के तरीक़ों में सुधार की ज़रूरत है. हमें तेल के दियों से ज़्यादा चेतना की रौशनी की ज़रूरत है. 









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