लॉकडाउन जर्नल, डे -11: रास्ता चाहे कितना भी मुश्किल लगे, घर हम सबका होता है


देर रात हो चुकी है. दस बजकर छियालीस मिनट. खाना खा लिया है. गौरव ने बनाया था. आलू-बैंगन-टमाटर की हलकी रसेदार सब्ज़ी, जैसी पापाजी को पसन्द है. बिलकुल घर जैसा खाना. घर? घर माने क्या? घर थोड़ी खाना बनाता है. खाना या तो मैं बनाती हूँ, या कोई और. 

ख़ैर. घर की ही बात सही. कुछ देर पहले एक दोस्त से बात हो रही थी. घर के बारे में. मैंने कहा मेरे पास घर नहीं है. उसने कहा घर सबके पास होता है. दोनों की बात सच है. दोनों की झूठ. आज मैं लिखना नहीं चाहती. पर चाहती भी हूँ. न लिखना मुश्किल है. लिखना आसान. इसलिए लिख रही हूँ. हम आसान चुनते हैं.

जब हम कहते हैं कि हमने मुश्किल रास्ता चुना, तब दरअसल हम जान रहे होते हैं कि हम झूठ बोल रहे हैं. वो जिसे आप किसी बाहरी नज़रिए से मुश्किल कह रहे हैं, वो आपके अपने नज़रिए से आसान था, इसीलिए आपने उसे चुना. 

मैंने चुना है कि मैं नहीं सुनूँगी कि प्रधानमंत्री ने किस भाषा में दीपक जलाने के लिए कहा है. मेरे लिए यह आसान है, उन्हें सुनना मुश्किल. मैंने सोचा है कि कल मैं भी एक दिया जलाउँगी. क्योंकि मुझे दिया जलाना अच्छा लगता है. बचपन से हर बार दीपावली पर हम संदेश सुनते थे कि इस बार सैनिकों के लिए एक दिया जलाएँ. कई बार मैंने जलाए भी. इस बार भी मैं किसी सैनिक के लिए दिया जलाउंगी. 

दिन का काम खत्म कर आज देर तक अपनी गर्लफ्रेंड से बात की. एक उम्र तक मैं सोचती थी कि सिर्फ लड़के ही अच्छे दोस्त हो सकते हैं. पर अब लगता है कि फीलिआ का जेंडर से कोई संबंध नहीं. मनीषा से अपनी दोस्ती मुझे आदर्श लगती है, मैं आज उसे बता भी रही थी. आदर्श इसलिए कि जब हम दोनों चाहें तो बिना किसी पर्दे के मन के भीतर तक की हर शिकन एक दूसरे से बाँट सकते हैं, और ज़रूरत हो तो एक घर में साथ होकर भी एक दूसरे के लिए अदृश्य हो सकते हैं. 

हम दोनों को ही अदृश्य होना ज़्यादा चाहिए होता है. दोनों एकलजीवी ठहरे. अधिकतर लोगों के साथ ऐसा नहीं हो पाता. हम एक-दूसरे के एकांत को समझ नहीं पाते. घर मेरे लिए अब तक एक कल्पना है. ऐसे स्थान की कल्पना जहाँ मेरा एकांत भी सुरक्षित हो और वह भी जो एकांत का विलोम है. पर घर एक स्थान भर नहीं है. घर एक वातावरण है जहाँ आपकी सब आवश्यकताएँ पूरी होती हों, वस्त्र-भोजन-सुरक्षा से लेकर प्रेम और स्वतंत्रता तक की. पर हो सकता है कि मैं इस समय जहाँ हूँ, वहाँ ये सब आवश्यकताएँ पूरी हो रही हों. पर तब भी मैं घर पर न हूँ.

हाँ, घर का एक सबसे ज़रूरी अवयव है, स्थायित्व. 

जीवन में सबकुछ क्षणिक होते हुए भी हम स्थायित्व चाहते हैं. एक परमाणु के भीतर दौड़ता इलैक्ट्रोन स्थायित्व चाहता है और सूर्य की परिक्रमा करते ग्रह भी. वे स्थायित्व की चाह में ही परिक्रमा करते चले जाते हैं. विज्ञान कहता है कि द लाइटर ऑब्जेक्ट ऑरबिट्स द हेविअर वन. तब क्या हम वे हलके पदार्थ हैं, जो किसी भारी वस्तु के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं?

इसका अंर्थ तो ये हुआ कि घर कोई भारी वस्तु है. वह भारी वस्तु हमारे बाहर नहीं है. हम उसकी कक्षा में घूमते हैं, तो वह कहीं हमारे भ्रमण पथ के केंद्र में स्थित होगा. अपने घर को ढूँढने के लिए हमें अपने भ्रमण पथ को रेखांकित करने की ज़रूरत है. वैसा घेरा बनाने की जैसा हम कोरोनावाइरस से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग के लिए दुकानों के बाहर बनाते हैं. फिर हम सिर्फ उस घेरे के अंदर अपना घर तलाश सकते हैं. 

वहाँ पहुँचकर शायद हम देख सकते हैं कि कहाँ हमें स्थायित्व मिल सकता है. और यह भी कि हमारा स्थायित्व कैसा दिखता है. 

पर जब एक बार और मैं प्रकृति की तरफ़ देखती हूँ तो पाती हूँ कि ग्रह हों या इलेक्ट्रॉन, वे कक्षा में ही रहते हैं. इलेक्ट्रॉन जब अपनी कक्षा छोड़ते हैं तब तमाम ऊर्जा के बदलाव के बावजूद उनका घूमते रहना बंद नहीं होता. 

अगर गति की ही बात की जाए तो फिर ग्रह अपनी धुरी पर भी घूमते हैं, इलक्ट्रॉन वाइब्रेट करते हैं, जिसे हम वेव मोशन भी कहते हैं. धरती अपनी धुरी पर क्यों घूमती है? इसकी कहानी धरती, या कहें कि सौरमंडल के जन्म तक जाती है. विज्ञान कहता है कि सौरमंडल अपनी शुरुआत के समय गैस का एक बादल था जो समय के साथ-साथ ठंडा और चपटा होते-होते एक घूमती हुई तश्तरी जैसा बन गया. 

गैस और धुँए की यह तश्तरी जब टूटी तो बीच का भारी हिस्सा सूर्य बना, आस-पास के हिस्सों से धरती, बाकी ग्रह, उनके चाँद और धूमकेतु बने. इन सबने नए रूप लेने के बाद भी अपनी गति नहीं खोई. 

इलेक्ट्रॉन का वेव मोशन, पदार्थ के तरंगीय स्वभाव का मूल है. यह पदार्थ का गुण है. यानी गति हमारा जन्मजात स्वभाव है. गति में रहना ही हमारा स्थायित्व है. जैसे पिछले छह वर्षों से मैं गति में हूँ. अधिकतर समय बैकपैक उठाए एक शहर से दूसरे शहर जाते बीतता है. वह मेरा स्वभाव है. पर स्थाई घर की इच्छा? यह विपरीत इच्छा क्या मेरी सोशल कंडीशनिंग का परिणाम है या यह भी स्वाभाविक है? 

पिछले वर्षों में अपनी गति में अपने और अपनी सोशल कंडिशनिंग के बीच सामंजस्य बनाना सीखते हुए, मैंने, जहाँ होती हूँ वहाँ एट होम होना, उसे ही घर बना लेना लगभग सीख लिया है. इस ‘लगभग’ में ही मेरे सवालों का उत्तर है. घर दरअसल कोई बाहरी स्थान नहीं, मेरे भीतर ही है. अमित का कहना सही था, बेघर कोई नहीं होता. बस कई बार हम ग़लत जगह फँस जाते हैं, और उस ग़लत जगह की ऐसी लत लग जाती है कि घर जाने का रस्ता मुश्किल लगने लगता है. जैसे पिता कहते हैं कि हमारा घर यह दुनिया नहीं, वह परमधाम है, जहाँ हमारा प्रियतम रहता है. जैसे साहिर कहते हैं कि वो दुनिया मेरे बाबुल का घर, ये दुनिया ससुराल. जा के बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे...


घर हम सबका होता है. मेरा भी है. मेरे ही भीतर. 

यह सारी चर्चा एक बार फिर प्रेम, अकेलेपन और स्वतंत्रता के सवाल तक लौट जाती है. यदि मैं अपनी मौलिकता तक पहुँच चुकी हूँ, यदि मैं जानती हूँ कि मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है, यदि मैं उस उद्देश्य के लिए हर क्षण ईमानदार प्रयास कर रही हूँ, यदि मैं प्रेम में हूँ और ख़ुद को स्वतंत्र पा रही हूँ, तो मैं जहाँ हूँ वही घर है. वह कहीं भी हो सकता है.

घर के बारे में निर्मल वर्मा की इन पंक्तियों को याद करना न जाने क्यों मुझे मरहम जैसा आराम देता है. दो दिन पहले उनका जन्मदिन था. रात का रिपोर्टर में वे लिखते हैं,

"अब मुझे समझ में आता है, लोग क्यों अपना घर बार छोड़कर लंबी यात्राओं पर निकल जाते हैं।"
"क्यों हॉलबाख ?"
"अपना आवास ढूँढने के लिए...हमारे सागा-ग्रंथों में कहा जाता है कि हर आदमी के दो घर होते हैं - एक वह, जहाँ उसका जन्म होता है और दूसरा, जिसका पता नहीं, जिसे खोजना पड़ता है, जहाँ हमारे पुरखों की आत्मा वास करती है..."

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