लॉकडाउन जर्नल, दिन अज्ञात: सारा खेल सही उत्तरों का नहीं, सही प्रश्नों का है
डल, श्रीनगर |
लॉकडाउन में अब दिनों का गिनना बेमानी हो चुका है. कल फोन पर बहन कह रही थी कि वो अब नॉर्मल्सी को मिस कर रही है. लेकिन इसके बावजूद उसे इस लॉकडाउन की आदत होने लगी है. और ऐसा भी नहीं है कि वो वापस उन दिनों में लौट जाना चाहती है जब वो अगले दिन उठकर दफ्तर जाने के कारण समय पर सोने की कोशिश किया करती थी. तो फिर होना क्या चाहिए? हम कैसा जीवन चाहते हैं?
आज शाम मैं टहलने गई. एक जंगल के भीतर. हम तीन थे. मैंने प्रस्ताव रखा कि हम जंगल की दाँईं ओर की चढ़ाई पर चढ़ते हैं. उस पार सड़क है. लौटते समय हम सड़क से लौटेंगे. जिस रास्ते जाना उसी रास्ते जाने में क्या आनंद. हम चढ़ने लगते हैं. कोई पगडंडी नहीं है. ज़मीन सूखे हुए भूरे पत्तों से भरी है जो पाँवों के नीचे चूर-चूर होते जाते हैं. चढ़ाई पर बहुत सी कँटीली झाड़ियाँ हैं. हम खूब आगे तक जाते हैं. अँधेरा होने लगा है पर सड़क कहीं नहीं दिखती. साथी घबराने लगे हैं. वे लौटने की कहते हैं. मैं उन्हें साथ नहीं खींचती. उनके साथ लौट पड़ती हूँ. एक बार फिर मेरे पाँवों पर लाल रंग की लकीरें हैं.
लौटते हुए मैं गोकर्ण वाली ‘डाउन मैमोरी लेन’ के बारे में सोचती हूँ. पर मैं अब वैसा महसूस नहीं करती. मैं महसूस करती हूँ कि यादों के होते हुए भी अब मुझे ऐसा नहीं लगता कि वे मुझ पर निशान छोड़ रही हैं. ये निशान नई तलाशों के निशान हैं. उतरते हुए मैं सोच रही होती हूँ कि इस तलाश के बारे में लिखूँगी. मैं ये भी सोचती हूँ कि शायद पिछले दिनों मैंने जो लिखा, अधिकतर समय लिखने के लिए लिखा. अपने लिए कम लिखा. मैं अपने लिए लिखने के बारे में सोचती हूँ.
अपने लिए लिखना. मैं क्यों लिखना चाहती हूँ? मैं क्यों एक और पल जीना चाहती हूँ. या जीते हुए मैं जो कुछ चाहती क्यों चाहती हूँ, या वही क्यों चाहती हूँ? सिद्धार्थ कहते हैं, मानव जीवन के उद्देश्य के बारे में सोचो. मैं आँखों पर हाथ रख लेती हूँ. इतने समय से हम मानव जीवन के उद्देश्य के बारे में सोचते, लिखते आए हैं. सब धार्मिक किताबें हमें इसके उद्देश्य के बारे में बताती हैं, साहित्य इस पर बात करता है. कला इस ओर ले जाती है. पर जीवन को जी रहा मानव कितनी देर उद्देश्य के बारे में सोच सकता है? कृषकाय श्रमिक ईंटों भरा तसला अपने सिर पर ढोते हुए किस उद्देश्य के बारे में सोच सकता है?
पर मैं, जो वैसा श्रम नहीं कर रही हूँ, मैं तो सोच सकती हूँ? मुझे याद नहीं पड़ता, पर किसी ने तो हाल में कहा था कि सोचना डर है और कर्म करना प्रेम. शायद पवन वर्मा ने ऐसा कहा था. तो क्या जब मैं कर्म करने लगूँगी तो सोचूँगी नहीं? कदाचित्! सिद्धार्थ ने इस उद्देश्य के बारे में सोचने को नहीं लिखने को कहा था. सोचे बिना लिखा जा सकता है. एक दिन ज़रूर.
विचार और कर्म के इस सिद्धांत को मानूँ तो जब भीतर की सभी यात्राएँ तय हो जाएँगी, जब अनिश्चित और अदृश्य को जान लिया जाएगा, तो भय जाता रहेगा. जब भय जाता रहेगा तो विचार के स्थान पर सिर्फ कर्म बाकी रहेगा तब बिना सोचे लिखना संभव ज़रूर हो सकेगा. बिना सोचे जीवन जीना भी.
मैं अचानक देख रही हूँ कि कितना समय और ऊर्जा हम विचारों के इस अनवरत प्रवाह में डूबते-उतराते खर्च डालते हैं. वे विचार जिनका न तो उद्गम पता है न अवसान. जो क्षणिक हैं, जो कुछ समय में अस्तित्व में नहीं रहेंगे. यदि सचमुच हम विचारों के पार जा सकें तो? मुझे वह दरवाज़ा दीखने लगता है, जिसका ज़िक्र सिद्धार्थ अक्सर करते हैं. पर अभी वह दरवाज़ा विचारों में ही बन रहा है, मैं जानती हूँ.
मानव के पास विचार की शक्ति है, पर मैं देखती हूँ कि विचार करना मानव का उद्देश्य नहीं हो सकता. तब सारी शक्ति, सामर्थ्य व ऊर्जा किस लिए? मेरी आँखों में सिल्विया प्लाथ की बेबसी और वर्जीनिया वूल्फ का उचाट ख़ालीपन तैरने लगता है. और महादेवी वर्मा के पालतू जानवरों की याद भी. ख़ालीपन आकर्षक है, उदासी खींचती है, पर यह भीतर का सारा तरल निचोड़ने लगती है. पर पालतू जानवरों की याद इस तरल को समृद्ध करती है. यह मुझे जीवन की ओर ले जाती है. मृत्यु की ओर नहीं. मानव जीवन का उद्देश्य कदाचित् यही हो. जीवन की ओर जाना?
मैं देखती हूँ कि ये दोनों ही बिंब मेरी स्मृति में हैं. और दोनों ही एक साथ बाहर आते हैं. यह संयोग नहीं है. यह मेरे प्रश्न का उत्तर है. शायद विचारों के परे की भाषा में.
जीवन मृत्यु से बिंधा हुआ है. हर क्षण हम मृत्यु से मिल रहे हैं. हम और हमारे प्रिय सभी. पर इन दो अवस्थाओं के एक साथ हमसे मुख़ातिब होते हुए भी हमें जीवन से संवाद स्थापित करना है. हमें अपना चुनाव सावधानी से करना है. क्योंकि मृत्यु शायद विचारों की ही तरह क्षणिक है. वह आती है, जाती है. जीवन स्थाई है. तुम्हारा या मेरा जीवन नहीं, पर जीवन स्थाई है. तो क्या यह अधिक तर्कसंगत नहीं कि हम क्षणिक में समय न देकर हमेशा रहने वाले को समर्पित हों? क्या यह बेहतर न हो कि हम उसे ही अपना समय, अपनी ऊर्जा, अपनी शक्ति और सामर्थ्य दें?
यदि हम सूक्ष्म से स्थूल तक, ऐसा करने में संभव हो सकें तो शायद जान सकें कि अनिश्चित के पीछे क्या है. क्या मालूम कि जीवन कैसा होना चाहिए की बजाए हम जान जाएं कि जीवन क्या है. मैं सीख रही हूँ कि सारा खेल सही उत्तरों का नहीं, सही प्रश्नों का है.
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