लॉकडाउन जर्नल, डे -8: “अगर मैं सचमुच तुम्हारे सपने का हिस्सा हूँ, तो तुम एक दिन लौट आओगे.”


कल शाम का जर्नल लिखने के बाद से ही जिस शब्द ने मेरे मन पर आधिपत्य जमाया हुआ है, वह है टेलीपेथी. अगर टेलीपेथी यानी मन ही मन किसी से बातचीत कर लेने जैसा कुछ होता है तो ये कैसे होता है? क्या इसका कोई विज्ञान है. सिग्मंड फ्रॉइड ने ड्रीम और टेलीपैथी पर लिखा है. सिग्मंड ने मानव मन के किस कोने पर नहीं लिखा? 

ये लिखते हुए मैं मुस्कुरा रही हूँ. फ्रॉइड अब सिग्मंड हो गए हैं. फ़र्स्ट नेम से बुला रही हूँ. परिचय और घनिष्ठता ऐसा कर देती है. क्यों और कैसे कर देती है, उसके लिए फिर डॉक्टर फ्रॉइड की तरफ़ देखना होगा. उनके पास लगभग हर सवाल का कुछ-कुछ जवाब है. मेरे कंप्यूटर में उनका पूरा का पूरा काम स्टोर है. 3804 पन्ने. इतना काम? वह भी वैज्ञानिक काम, प्रयोगों पर आधारित. हिस्टीरिया, फोबिया, ऑबसेशन, सेक्सुएलिटी, ड्रीम, टेलीपैथी, सिविलिज़ेशन, स्लिप ऑफ़ टंग, भूलना, अंधविश्वास, रोज़मर्रा का मनोविज्ञान…. कुछ भी नहीं छोड़ा. 

सिग्मंड को पढ़ते हुए मैं देखती हूँ कि हम आम लोग खुद अपने बारे में भी कितना कम जानते हैं. जब अपने बारे में ही नहीं जानते तो हम दुनिया के बारे में इतनी पक्की राय कैसे बना लेते हैं? अज्ञान पर आधारित हमारे ये पक्के नज़रिए दुनिया में हिस्टीरिया नहीं लाएँगे तो और क्या लाएँगे? 

मैं सोचती हूँ कि सिग्मंड ने आखिर कैसा जीवन जिया होगो जो वे मानव मन की इस अतल खोज में उतर पड़े. वो क्या था जो उन्हें चेतन, अचेतन और अवचेतन मन की हर परत उघाड़ कर देखने पर मजबूर करता गया? मैं जानना चाहती हूँ कि हम आम लोगों में और सिग्मंड जैसे लोगों में क्या फ़र्क़ होता है कि उनके इस दुनिया में जीकर चले जाने के बाद दुनिया पहले जैसी नहीं रहती. उनके ही शब्दों में कहूँ तो दुनिया तो पहले जैसी रहती, बस अपने आपको पहले से बेहतर समझ पाती है.

मैं ये भी सोचती हूँ कि मानव मन को इतनी सूक्ष्मता से जान लेने के बाद सिग्मंड ने कैसा जीवन जिया होगा? क्या उनका सबकुछ जान लेना बुद्ध के आत्मज्ञान जैसा था?

मैं जानना चाहती हूँ कि मनुष्य जानना क्यों चाहता है?

इज़राइली एस्ट्रोफिज़िसिस्ट मारिओ लिविओ भी यही जानना चाहते हैं. इस सवाल का जवाब तलाशते हुए वे एक किताब लिखते हैं, ‘व्हाइ? व्हाट मेक्स अस क्यूरिअस?’  

वे कहते हैं कि उत्सुकता कई जानवरों में होती है, पर ‘व्हाइ’ यानी कारण को जानने का स्वभाव सिर्फ़ मनुष्य को मिला है. 

“कई शोध ये दिखाते हैं कि क्यूरिओसिटी या उत्सुकता के लिए हमारे जीन ज़िम्मेदार हैं.”

वे दो तरह की उत्सुकता की बात करते हैं. परसेप्चुअल क्युिरिओसीटी यानी बोधात्मक उत्सुकता और एपिस्टेमिक क्युरिओसिटी यानी ज्ञानात्मक. पहली तरह की उत्सुकता वह है जब हम पहले से कोई बात जानते हैं और हमें एक नई बात पता चलती है जिसका पहले से जानी गई बात से विरोध है. यह हमें अक्सर अच्छी नहीं लगती.

पर दूसरी तरह की उत्सुकता नया ज्ञान प्राप्त करने, नई चीजें जानने की उत्सुकता है. नया सीखने के लिए मानव का प्यार है. यह हमें आनंद देती है.

लिविओ कहते हैं कि बच्चों में हर बात के पीछे का कारण जानने की स्वाभाविक उत्सुकता होती है. वे जानना चाहते हैं ताकि चीज़ों को ठीक से समझ सकें, अपने आस-पास की दुनिया को और जान सकें, ताकि वे रोज़ की ज़िंदगी में ग़लतियाँ न करें. 

वे सवाल उठाते हैं कि क्या बड़े होने पर हमारी उत्सुकता कम हो जाती है. फिर खुद ही बताते हैं कि ऐसा नहीं है. होता अक्सर यह है कि हमारी अधिकतर उत्सुकता पहली तरह की होने लगती है. जिसकी वजह से नई चीज़ों को सीखने के प्रति हमारा प्यार कम होने लगता है, नए ख़तरे उठाने से हम बचने लगते हैं.

पर ऐसा क्यों होता है? बड़े होने पर हम नई चीज़ों से दूरी क्यों बनाने लगते हैं? इस सवाल के लिए मुझे सिग्मंड के पास जाना होगा. 

हम शायद जितना जानते हैं उसी को काफ़ी मानने लगते हैं. 

मुझे पाउलो कोएल्हो का सेंटिआगो याद आता है. वह बाइबिल का बूढ़ा आदमी भी, जो सेंटिआगो के सपने पर से उसका यकीन टूटने से बचाता है. उनके बीच कुछ इस तरह की बातचीत होती है:

“जब हम बच्चे होते हैं तब हम सब अपने बड़े सपनों पर यकीन करते हैं. पर जब हम बड़े होने लगते हैं तो उन सपनों पर हमारा यकीन कम होता जाता है, कोई रहस्यमई ताकत हमें उस यक़ीन से दूर धकेलती जाती है.”

वह रहस्यमई ताकत क्या है? मुझे लगता है वो ताक़त हमारे स्वभाव की परतंत्रता है. वही परतंत्रता जिसका पिछले दिनों एरिक फ्रोम ने ज़िक्र किया था, कि हम अपनी आज़ादी के साथ आई ज़िम्मेदारियों से बचना चाहते हैं. हम समाज के लगातार खोखले होते खंभों के सहारे खड़े रहते हैं पर अपने पाँवों की ताकत को आज़माने से डरते हैं. क्योंकि आस-पास के सब लोग उन खंभों के सहारे खड़े हैं, तो हम कैसे चल सकते हैं? चलना ठीक नहीं. चलने से क्या होगा? हम भेड़ बन जाते हैं और तबतक नहीं चलते जबतक हमें हाँका नहीं जाता.

यह परतंत्रता हमें सिर्फ़ अज्ञान, अंधविश्वास, कट्टरता और नफ़रत की तरफ़ लेकर जाती है. इतिहास की तरफ़ देखें तो हमें इस बात के सेंकड़ों उदाहरण मिलते हैं.

यह परतंत्रता सबसे पहले हमें स्टेट्स कुओ यानी यथास्थिति के ठीक होने का यक़ीन दिलाती है. फिर हमें कहती है कि हम जो सोच रहे हैं, सही है. हमारा नज़रिया ही सही नज़रिया है.

हमारे पक्के होते नज़रिए, अब तक न जानी गई चीज़ों को जानने की संभावना नष्ट करते जाते हैं. नया खोजने की, नए तर्क गढ़ने की, नए समाधान ढूँढने की संभावनाएँ. 

यह एक सिद्ध किया जा चुका सत्य है कि उत्सुकता, नया जानने की इच्छा ही हमारे इवोल्यूशन के लिए, हमारे उद्भव के लिए उत्तरदायी है. जब हम नयी बातों को अपने भीतर जानना बंद कर देते हैं, हम इवोल्यूशन में पीछे रह जाते हैं. 

हम आश्चर्यचकित होने के आनंद से वंचित रह जाते हैं. 

मैं जानना चाहती हूँ कि इन दिनों जब दुनिया घरों में क़ैद है, तो मनुष्यता की सामूहिक उत्सुकता इसे कैसे देख रही होगी. 

जब हम नया जानने के लिए उत्सुक रहते हैं, हर चीज़ हमें संभावनाओं से भरी लगती है. हर चीज़ हमें आश्चर्यचकित कर सकती है, हर चीज़ हमें आनंद दे सकती है.

शाम को मैंने सिद्धार्थ को लिखा था कि आज मैं टेलीपैथी पर कुछ पढ़ना चाहती हूँ. 

वे मुझे एक कोट भेजते हैं,

“यू ड्रीम दैट आइ एम ड्रीमिंग अबाउट यू. आइ ड्रीम दैट यू आर ड्रीमिंग अबाउट मी.”

“तुम सपना देखते हो कि मैं तुम्हारे बारे में सपना देख रहा हूँ. मैं सपना देख रहा हूँ कि तुम मेरे बारे में सपना देख रहे हो.”

ये काफ़ी फ्रॉइडियन है. मैं ऐसा ही कुछ पढ़ना चाहती थी.

आज का जर्नल लिखते वक्त, जब मैं पाउलो कोएल्हो का कहा हुआ तलाश रही होती हूँ, मुझे सिद्धार्थ के कोट से ठीक आगे की बात मिलती है. मैं आश्चर्यचकित रह जाती हूँ.

“इफ़ आइ एम रिअली अ पार्ट ऑफ़ योर ड्रीम, यू विल कम बैक वन डे.”

“अगर मैं सचमुच तुम्हारे सपने का हिस्सा हूँ, तो तुम एक दिन लौट आओगे.”


               

Comments

Popular posts from this blog

नवंबर डायरी, दिल्ली 2023

Soar in the endless ethers of love, beloved!

रामनगर की रामलीला