लॉकडाउन जर्नल, डे-7: वादी जैसे शब्द, न्यूज़ एंकर्स डिज़र्व ही नहीं करते


तस्वीर: संजय पंडिता
दर्द एक दरिया है. इस दरिया में एक बहुत गहरी जगह आती है. इतनी गहरी कि उसे पार करने के बाद दर्द अपना अहसास खो देता है…

अहसास होते ही क्यों हैं? अहसास होते हैं, क्योंकि हम होते हैं.

मैं फिल्म देख रही थी अभी. शिकारा. कब से देखना था इस फ़िल्म को. मेरे लिए ये फ़िल्म नहीं थी. नज़्म की एक किताब थी, वो किताब जिसके शायर से मुझे मोहब्बत है. जैसे शिकारा के शायर से शाँति को थी. जब आपको शायर से मोहब्बत होती है तो आप उसकी नज़्म में क्राफ़्ट नहीं, मानी तलाशते हो. जब रिलीज़ हुई थी तो मैं कश्मीर में थी. कश्मीर में थिएटर्स नहीं थे. जब वापस दिल्ली आई तो फ़िल्म उतर गई. परसों जब प्राइम पर फ़िल्म आई तो मनीषा ने फ़ोन करके बताया.

संजू ने भी फ़ोन किया. पूछा, “आपने शिकारा देख ली?” जानती थी, उसने भी वही बताने के लिए फ़ोन किया था जो मनीषा ने बताया था. संजू ने अपनी माँ के साथ देखी थी फ़िल्म. बताया, दोनों मिलकर खूब रोए. संजू पैदा भी नहीं हुआ था जब उन्होंने वादी छोड़नी पड़ी थी.

वादी, बड़ा मैजिकल लगता है ये शब्द मुझे. फ़िल्म में एक न्यूज़ एंकर कहता है, ‘वादी में हालात असामान्य.’ असामान्य? कोई मतलब है इस शब्द में? क्या होता है असामान्य होने का मतलब? खबरें, शब्दों से उनके मानी छीन लेती हैं. वादी जैसा तिलिस्मी लफ़्ज़ सिर्फ़ नज़्मों और कहानियों में इस्तेमाल होना चाहिए था. टीवी एंकर इसे बोलना डिज़र्व नहीं करते.

संजू न, बहुत अच्छा फ़ोटोग्राफ़र है. पर उसकी तस्वीरों में वादी नहीं दिखता. उसे कभी कहा नहीं मैंने, पर मैं उसकी नज़र से कश्मीर देखना चाहती हूँ. मैं उससे कहती हूँ कि वो मुझे अपनी खींची एक तस्वीर भेजे. वो बस दो बार वहाँ गया है. एक बार 2008 में, तुलमुला, खीर भवानी के मेले में. छोटा था तब. फिर एक और बार, 2014 में. उससे ज़्यादा तो मैंने देखा है कश्मीर को. पर क्या ही देखा है, उसके वहाँ न होते हुए. 

मैंने कहा था कि फ़ोन करूँगी फ़िल्म देखने के बाद. 

देखने से पहले ही मैं जानती थी कि आज की एंट्री कश्मीर के नाम होगी. सोचा था आज कश्मीर के नाम चिट्ठी लिखूँगी, पर जो सोचते हैं, होता कब है...

ख़ासकर तब, जब मसला दिल का हो. 

फ़िल्म में एक दृश्य आता है, जब अपनी शादी की तीसवीं सालगिरह पर शिव अपनी पत्नी को बताता है कि उसने घर बेच दिया. वो यक़ीन नहीं कर पाती. लेकिन फिर संभल जाती है. मैं उस लमहे में रुक जाती हूँ. फिल्म आगे बढ़ती जाती है. उस घर का बेच दिया जाना जिसे तीस साल के तमाम इसरार के बाद नहीं बेचा गया था.. कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिनके बारे में लिखा नहीं जा सकता. उनके बारे में जिन भी शब्दों में लिख दो, छिछला लगता है. लगता है, कि वैसा लिखना तुम्हारे दर्द की तौहीन करने जैसा है…

मैं अपने फ़ोन में नया गूगल डॉक खोल कर लिखती हूँ, 

दर्द एक दरिया है, इस दरिया में एक बहुत गहरी जगह आती है. इतनी गहरी कि उसे पार करने के बाद दर्द अपना अहसास खो देता है…

दिल का ग़ुबार कुछ कम होता है. आह.. मैं यहाँ ग़ुबार लिख रही हूँ और मेरा कंप्यूटर मुझे सजेस्ट करता है, गुबरा… एक कश्मीरी शब्द. मतलब है ‘प्यारा बच्चा.’ माएँ अपने बच्चे को कहती हैं.

संजू मुझे कहता था, ‘सोन गोबुर.’ राजा बेटा जैसा कुछ समझ लीजिए…

मैं वापस स्क्रीन पर देखती हूँ. शिव, शाँति को शिकारे जैसी नाव पर लिए यमुना में है. वैसे ही जैसे अपनी शादी की पहली रात उसे झेलम में लेकर गया था. आज वो उसे ताजमहल दिखाने ले जा रहा है. तीस साल पहले शाँति ने उससे कहा था कि हो सके तो उसे ताजमहल दिखाने ले जाए. और आज तीस साल बाद जब वो उसे ले आया है... वो, वो अपनी आख़िरी साँस लेती है. अब उसे किसी दर्द का अहसास नहीं…

दरिया.. अहसास का खो जाना...

मैं अपने फ़ोन की स्क्रीन पर देखती हूँ. 

दर्द एक दरिया है. इस दरिया में एक बहुत गहरी जगह आती है. इतनी गहरी कि उसे पार करने के बाद दर्द अपना अहसास खो देता है…

जो मैंने गूगल डॉक में लिखा है वो हू-ब-हू स्क्रीन पर दिख रहा है. ऐसा कैसे? 

ये सब करिश्मे कैसे होते हैं?

करिश्मा… यही तो शब्द है जहाँ से फ़िल्म शुरू होती है. जम्मू के रिफ्यूजी कैंप में टाइपराइटर पर अमेरिका के राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखने वाला मास्टर, जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार करना आता है, वो करिश्मों की बात न करे तो किसकी करे?

फ़िल्म देखते हुए मैं न जाने कितनी जगह रुकती हूँ. स्क्रीन पर वो जो घर दिखते हैं न, वो सब मुझे अपनी तरफ़ खींचते हैं. उनमें से कोई घर मेरा नहीं है, तब भी. जब शिव अठारह साल बाद कश्मीर जाता है और उसकी एंबेसडर पॉलपर के लंबे, ख़ूबसूरत दरख़्तों की क़तारों के बीच से गुज़र रही होती है न, तो मैं भी पट्टन पहुँच जाती हूँ. हाँ, मैं उस रास्ते को पहचानती हूँ. 

मैं बटमालू के उस बस स्टैंड को भी जानती हूँ जहाँ चार पुलिस वालों को गोली मार दी जाती है और ये चार सैकेंड की खबर बनती है. वहाँ से बसों में चढ़कर न जाने कितनी बार डलगेट और जहाँगीर चौक गई हूँ. वो छोटी बसें, जो बस शहर में चलती हैं. जिन्हें वहाँ लोग मैटाडोर कहते हैं, और कहते हैं कि ऐसी बसें हिंदुस्तान में कहीं नहीं चलतीं, बस पाकिस्तान में चलती हैं. और हाँ, शहर मतलब श्रीनगर. सिरनगर, ऐसे ही बोलते हैं कश्मीरी. 

मैं उस अहसास से गुज़र चुकी हूँ जब एक कश्मीरी शादी में ‘हाए हाए विसिए’ की जगह ‘बेबी बर्न द डांस फ्लोर’ सुनाई देता है तो कैसा लगता है.

पिछले दिनों पवन सर ने मुझे कहा था कि उन्हें उत्तराखंड में रहने वाली प्रदीपिका, कश्मीर में रहने वाली प्रदीपिका से ज़्यादा ठीक लगती है. ठीक ही कहते हैं. उत्तराखंड में रहने वाली प्रदीपिका उस तरह की पागल नहीं है. 

मैंने उन्हें बताया था कि कश्मीर जाकर न, मुझे लगता है मैं एक अजीब नशे में हूँ. किसी सपने में. वहाँ मैं जो कुछ महसूस करती हूँ, बहुत ज़्यादा करती हूँ. मेरी रियलिटी वहाँ जाकर बाहर की दुनिया की रियलिटी से डिस्कनेक्ट हो जाती है. वहाँ मैं ज़ीरो ब्रिज से गुज़रते हुए सोचने लगती हूँ कि आज अगर इस नदी में डूब जाऊँ तो मुझे अफ़सोस न होगा. डायरी में लिखती हूँ कि मरने के बाद मेरी मिट्टी को किसी चिनार के नीचे की ज़मीन में दफ़ना दिया जाए. मैं, जैसे कोई और ही हो जाती हूँ. सिग्मंड अगर होते तो उनसे कहती कि वो मुझे अपनी केस स्टडी बना सकते हैं.


पहली बार कश्मीर को लेकर मेरी रूमानियत आठवीं क्लास में शुरू हुई थी. एक किताब के ज़रिए. एक हिंदी उपन्यास था, शायद शलभ का ‘फूल स्मृतिगंधा के.’  कोई डॉक्टर था उसका नायक. कोई डॉक्टर सारस्वत ही शायद. ज़्यादा कुछ याद नहीं. पर हाँ एक कश्मीरी गहना याद रह गया था. वो कान के बीच में पहना जाने वाला, लड़ियों वाला सुहाग चिन्ह. डेजूहर. मैं तब उस खूबसूरत गहने को इमैजिन तो नहीं कर पाई थी. पर मुझे वो पहनना था. टीनएजर का मन. 

अप्रेल 2016 में जब पहली बार कश्मीर गई तो जहाँ रुकी थी वहाँ की एक गृहिणी से मैंने पूछा था उस गहने के बारे में. उन्होंने कहा वैसा कोई गहना नहीं होता. मेरा दिल टूट गया था. मुझे लगा था शायद कोई काल्पनिक गहना हो, जिसे लेखक ने बस अपने ख़यालों से गढ़ा हो.

पर बाद में मालूम हुआ कि सिर्फ़ पंडितों की विवाहित स्त्रियाँ ही पहना करती हैं उसे. एक पंडित दोस्त के यहाँ शादी में गई थी. नगरोटा कैंप में. लिखा है मैंने उस अनुभव के बारे में. कैंप के उन छोटे-छोटे घरों में मैंने कश्मीर का दूसरा रूप देखा था. सवेरे-सवेरे एक आँटी आ गईं थी, दोस्त की माँ और भाभी को डेजूहर पहनाने. मैं उन सुंदर औरतों को, उस गहने को देखती रह गई थी. जैसे किसी सपने को सच होते देख रही हूँ.

कहा था न दिल के मसलों में रैशनलिटी नहीं चलती. क्या कह रही थी मैं, कहाँ ले आई.

कश्मीर की बात होती है, तो दो चीज़ें होती हैं मेरे साथ. या तो मैं कुछ भी नहीं कह पाती, या फिर चुप होना भूल जाती हूँ. अभी इतना कुछ दिल में भरा हुआ है कि मैं पूरी रात लिख सकती हूँ. पर नहीं लिखूँगी. 

मैं बस उस छोटे शिकारे में बैठकर, विरकुल से घिरे हुए उस छोटे से नाले से गुज़रते हुए उस पुराने गाँव वाले घर तक जाना चाहती हूँ, जहाँ शिव लौटकर गया है… मैं और कुछ नहीं चाहती. शायद वहाँ पहुँचना भी नहीं. 

शिव और शाँति का कैरेक्टर इतना प्यारा लगता है कि फ़िल्म शुरू होने के कुछ देर बाद मैंने सिद्धार्थ को लिखती हूँ, 

लिसन, आइ वाँट टू गेट मैरीड टू शिव कुमार धर.”

हू इज़ ही?” फिल्म देख चुकने के बाद जब मैं लिख रही होती हूँ तो उधर से सवाल आता है.

मैं कहती हूँ कि बताउँगी अभी लिख लूँ.

वो कहता है, लिख लो.

फिर कुछ देर बाद कहता है, “आइ नो व्हाट यू आर राइटिंग. व्हाट यू आर थिंकिंग. व्हाट यू आर सीइंग, ड्रीमिंग..”

मैं कहती हूँ कि मैं जानती हूँ कि उसे पता है.

मैं जानना चाहती हूँ कि उसे क्या पता है… फिर मैं नहीं जानना चाहती. उसे पता है.

वो लिखता है,

आइ डोंट वाँट यू टू राइट व्हाट यू आर राइटिंग, ड्रीम व्हाट यू आर ड्रीमिंग, सी व्हाट यू आर सीइंग, फ़ील व्हाट यू आर फ़ीलिंग, टच व्हाट यू आर टचिंग...

मैं कहती हूँ कि मैं जानती थी कि वो ऐसा कहेगा.

बट यू राइट.”

मैं लिखती हूँ. और मैं नहीं लिखती. 






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